धर्म
प्रकृति (ईश्वर) के नियमों का पालन करना धर्म कहलाता है
इसका एक ही कानून है कि इस धरती पर पैदा होने वाला प्रत्येक व्यक्ति सभी
कर्म करने के लिए स्वतंत्र है वशर्ते उसके कर्म से किसी भी जड़ या चेतन को
कोई आपत्ति न हो, न ही किसी का कोई नुकसान हो, धर्म का यही मूल नियम है,
यदि कोई व्यक्ति इसका उलंघन करता है तो उसके लिए ईश्वर द्वारा इस प्रकार की
प्रक्रिया बनाई गई है कि मनुष्य प्रकृति के नियम के विपरीत किए गए कर्म के
फल स्वरूप ही दुख बीमारी एवं दंड भोगता रहता है। परंतु अज्ञान के कारण वह
इसे समझ नहीं पाता कि वह अपने स्वयं के कर्मों का फल भोग रहा है, वह इसका
दोष हमेशा ईश्वर, भाग्य या अन्य किसी को देता है, जबकि ईश्वर न तो कभी किसी
को दुख देता है न ही सुख देता है। मनुष्य जो भी सुख दुख प्राप्त करता है
इसके लिए उसके कर्म ही जबावदार होते हैं। प्रतिक्रिया हेतु कर्म का
उद्देश्य प्रमुख होता है क्योंकि एक ही कर्म के अच्छे या बुरे कई उद्देश्य
हो सकते हैं। यदि मनुष्य प्रकृति या जीवों का विनाश करता है तब उसका भी
विनाश निश्चित है। इस घरती पर पैदा होने वाले मनुष्य सहित प्रत्येक जीव को
ईश्वर द्वारा रहने खाने एवं जीने का हक समान रूप से दिया गया है, परंतु आज
स्वार्थी लोगों द्वारा मनुष्य सहित अन्य जीवों के इस हक को छीना जा रहा है
जिससे आगे चलकर इसके भयानक परिणाम देखने को मिल सकते हैं।
इस धरती पर जन्म लेने वाला प्रत्येक जीव अपने
जीवनकाल में दो ही कार्य करता है एक तो अपने जीवन के अस्तित्व को बनाए रखने
के लिए संघर्ष करना एवं दूसरा दुख निवृति कर सुख प्राप्ति का प्रयास करना।
विज्ञान को तो अभी यह भी मालूम नहीं है कि पृथ्वी पर मनुष्य क्यों पैदा
होता है एवं उसके जीवन का लक्ष्य क्या है तथा उसके जीवन की इकाई क्या है।
घार्मिक ग्रथों में मनुष्य जीवन के चार लक्ष्य बतलाए गए हैं।
1. घर्म 2. अर्थ 3. कर्म 4. मोक्ष।
उपरोक्त चार लक्ष्य प्राप्ति के लिए चार वेद लिखे गए
हैं। गायत्री मंत्र के चार चरण इन चार वेदों का सार है। कलयुग में अब
मनुष्य जीवन का एक ही उद्देश्य अर्थ अर्थात धन कमाना ( वह भी अनैतिक तरीके
से ) ही शेष बचा है, कर्म भी दिशाहीन हो गया है धर्म का स्वरूप बदल चुका है
और मोक्ष तो समाप्त ही हो चुका है।
संसार में कई धर्म प्रचलित हैं परंतु इन धर्मों में कुछ
समानताऐं भी हैं, जैसे सभी धर्म ईश्वर को निराकार मानते हैं इसी कारण किसी
भी धर्म में ईश्वर का कोई चित्र या मूर्ति नहीं है। ( निराकार का अर्थ है
जिसका कोई आकार न हो जो त्रिविमीय आकाश में कोई जगह न घेरता हो अर्थात
जिसका आयतन शून्य हो)। सभी धर्म एक मत से आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार
करते हैं एवं इसे जीवन की इकाई मानते हैं। सभी धर्मों में ईश्वर तक पहुंचने
का माध्यम ध्यान होता है, चूंकि शरीर को ध्यान के योग्य बनाने के कई तरीके
होते हैं अतः अपने अपने धर्म संस्थापकों द्वारा बतलाए गए तरीकों के आधार
पर धर्म यहां से अलग अलग हो जाते है तथा एक ही धर्म में धर्म गुरुओं के
आधार पर कई संप्रदाय बन जाते हैं, परंतु सभी धर्मों का एक ही उद्देश्य होता
है ईश्वर तक पहुंचना। धार्मिक ग्रथों में ईश्वर को निराकार निर्विकार
निर्लिप्त सर्वव्यापी एवं सर्व शक्तिमान कहा गया है। वर्तमान में धर्म को
समझने वाले बहुत कम लोग बचे हैं, अब धर्म अंधविश्वास व्यवसाय एवं राजनीति
तक सीमित रह गया है। वैज्ञानिक क्रियाओं को हम भौतिक साधनों द्वारा
प्रमाणित कर सकते हैं, देख सकते हैं एवं दूसरों को भी दिखा सकते हैं।
आध्यात्मिक क्रियाओं को हम स्वयं तो प्रमाणित कर सकते हैं परंतु इन्हें हम
दूसरों को नहीं दिखा सकते क्योंकि घर्म पूर्णतः मानसिक प्रक्रिया है भौतिक
रूप से इसका कोई महत्व नहीं है न ही इस क्षेत्र में किसी की नकल की जा सकती
है। आध्यात्म के क्षेत्र में प्रवेश करने के लिए हमें सबसे पहिले मन पर
नियंत्रण करना सीखना होता है इसके बिना इस क्षेत्र में कुछ भी नहीं कर सकते
क्योंकि धर्म एक मानसिक प्रक्रिया है इसका भौतिक रूप में कोई महत्व नहीं
है भौतिक रूप में सिर्फ यज्ञ का महत्व होता है जो पर्यावरण शुद्धि के लिए
है। आध्यात्म का मुख्य उद्देश्य वास्तिविक ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष प्राप्त
करना है। आधुनिक धर्म के ठेकेदारों ने धर्म को भौतिक सुख प्राप्ति का साधन
बताकर इसके वास्तविक स्वरूप को बदलकर इसे व्यवसाय, राजनीति एवं
साम्प्रदायिकता फैलाने का साधन बना लिया है जिससे मनुष्य अंध विश्वास और
लालच में फंसकर अपना कीमती समय और धन बर्बाद करता है, जब कि धर्म का भौतिक
सुख सुविधा, अंधविश्वास, चमत्कार आदि से कोई संबंध नहीं है। धर्म स्वस्थ
सुखी एवं दीर्धायु जीवन जीने के लिए एक उच्चस्तरीय विज्ञान है। यह धरती
मनुष्य की कर्म भूमि है यहां बिना कर्म किए किसी को कुछ नहीं मिलता भगवान
और भाग्य के भरोसे कुछ प्राप्त करने की इच्छा रखना मूर्खों का काम है।
तुलसीदास ने कहा है कि:-
सकल पदारथ है जग मांहीं, कर्महीन नर पावत नाहीं।।
गीता में भी श्रीकृष्ण ने कर्म का ही उपदेश दिया है।
किसी भी देवी देवता का कृपा पात्र बनने के लिए संसार में आसक्ति को छोड़कर
उन देवी देवता तक पहुंचना जरूरी है। धर्म एवं आध्यात्म विज्ञान को समझने के
लिए सबसे पहिले ईश्वर को समझना आवश्यक है।
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