।। श्रीगौडडपादाचार्येभ्यो नमो नमः ।।
“ ज्ञान – विज्ञानं “ -
भगवान् श्रीगौडपाद ने अपने माण्डुक्यकारिका में " विज्ञान " शब्द का प्रयोग किया है । भगवान् श्रीगौडपाद् ने जो अपने " कारिका " में " विज्ञान " शब्द जो प्रयोग किया है वह बड़ा ही सोच समझ कर किया है । दूसरे को शिक्षा देना भी विज्ञान कहा जाता है , क्योंकि विज्ञान का मतलब है अनुभवपूर्वक ज्ञान । श्रीमद्भगवद्गीता में आया है - " ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्षसेऽशुभात् " तथा " ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानम् " । जब ज्ञान विज्ञान के साथ साथ प्रयोग होता है तो विज्ञान का अर्थ अनुभवपूर्वक ज्ञान होता है ।
दूसरे को शिक्षा देते समय यह याद रखना चाहिये कि उसमें जो तत्त्व है वही खींचकर बाहर निकालना है । यदि आपने किसी व्यक्ति के उपर कुछ शिक्षा थोप दी तो यह समझ लेंगे कि उस मनुष्य के जीवन आपने नष्ट कर दिया । श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के जीवन में आता है कि जब शुरू में विवेकानन्द जी को कुछ विशिष्ट शक्ति प्राप्त हुई तो उन्होंने अपने एक गुरुभाई श्री स्वामी अभेदानन्द जी को जो भक्तिमार्गी या उपासना पक्ष के थे , रात को कहा " मैं ध्यान करता हूँ और तू मेरे को हाथ लगाकर बैड , देख तेरे को क्या होता है । " वे बैठ गये और उन्हें उस दिन निर्गुण तत्त्व की तरफ निष्ठा बन गई । दूसरे दिन प्रातःकाल श्रीरामकृष्णदेव जी ने विवेकानन्द को बहुत डाँटा " तूने इसका जीवन बरबाद कर दिया । यह एक रास्ते से चल रहा था , उसे रास्ते से धीरे - धीरे आगे जाता । अब तूने उसमें ज़ोर से निर्गुणता का संचार तो कर दिया लेकिन वह उसकी प्रकृति में बैठेगा नहीं । नतीजा यह होगा कि धीरे - धीरे उसके अन्दर एक संघर्ष बढ़ता रहेगा । " क्योंकि पहले के जन्मों से जैसी साधना जीव करता आया है तत्संस्कारों के अनुकुल ही उसकी साधना का क्रम चलता है । भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने अपने गीतागायन में गाते हुये कहा है- " ह्रियते ह्यवशोपि सः " अवश हुआ उसी रास्ते जायेगा । अर्जुन कहता है मैं ब्राह्मण की तरह भिक्षा मांग कर गुजारा करूँगा । तो श्रीवासुदेव कृष्ण ने कहा - अरे अर्जुन ! तेरे से यह होगा ही नहीं क्योंकि यदि तेरे में ऐसे संस्कार होते तो तू क्षत्रिय के घर पैदा क्यों होता ? संस्कार तेरे दूसरे हैं , सुन - सुनाकर दूसरे संस्कारों की नकल करने जायेगा , वे संस्कार पड़ेंगे नहीं इसलिय मन में केवल संघर्ष चलता रहेगा और कुछ नहीं होगा। यही बात श्रीरामकृष्णदेव जी ने विवेकानन्द से कही । दूसरी बात यह भी कही कि अभी तूने शक्ति पूरी प्राप्त की नहीं है और दूसरों को दिखाना पहले ही शुरु हो गया । इसलिये आध्यात्मिक साधना में तो यह बहुत ही जरूरी है कि सामने वाले के संस्कारों को लेकर उन संस्कारों को ही आगे बढ़ना है , नवीन संस्कारों का आरोपण नहीं करना है । नवीन संस्कारों की बात उसे सुना दो , वह दूसरी बात है । दस पाँच जन्मों में धीरे धीरे वे संस्कार बन जायेंगे । लेकिन हठात् यह काम नहीं हुआ करते । अध्यात्मविज्ञान बड़ा धैर्य का विज्ञान है । इसीलिय " भगवान् श्री मनु " ने धर्म के लक्षणों में सबसे पहला धर्म ही " धृति " अर्थात् " धैर्य " को गिनाया है । धैर्य का मतलब ही यह है कि तुम एक संस्कार दिया और फिर धैर्यपूर्वक देखते है कि समय आने पर फल देगा । यदि सद्यः फल चाहोगे तॅ कुछ नहीं होना है सिवाय संघर्ष के।
अध्यात्मविज्ञान में यह चीज़ शतप्रतिशत है तो 98 प्रतिशत लौकिक विज्ञान में भी है । दूसरे को शिक्षा देते समय अकस्मात् चाहो कि नये संस्कार बैठा दो तो वे बैठ पायेंगे और न बैठा पाओगे । हिन्दुस्तान के अन्दर आदमी डॉक्टर बन जाता है । संक्रमण के बारे में सब समझ लेता है और इलाज करते समय किसी के चोट लगी हुई हो और दबाई का फाया जमीन पर गिरे तो जमीन से ही उठा कर लगा देता है । यह हमने कितने बार अपनी आँखो से देखा है । पढ़ा पढ़ाया है , लेकिन संस्कार अंदर प्रविष्ट नहीं हुए , इसलिये ऐसा कर जाता है । जहाँ वे संस्कार सौ साल से प्रविष्ट हो गये हैं वहाँ छोटा बच्चा भी यह काम नहीं करेगा । हम जहाँ प्रवास करते है { जोधपुर , राजस्थान } वहाँ पहले विण्डम अस्पताल था , अब उस अस्पताल का नाम महात्मा गाँधी अस्पताल कर दिया है । डॉक्टर विण्डम के नाम पर उस अस्पताल का नाम पड़ा था। उनके पास जब कभी कोई डॉक्टर आता था तो सबसे पहले रूई लेकर उसकी दाढ़ी की परीक्षा करते थे और यदि रूई उसकी दाढ़ी पर चिपक गई तो वापिस भेज देते थे कि शेव ठीक से नहीं हुई है । उस समय अस्पताल में बड़ी सफाई भी थी । अब यही अस्पताल नर्क से भी गन्दा है । एक बार हम अस्पताल गये देखने की अस्पताल का क्या हाल है । देख कर बड़ा कष्ट हृ । हमने डॉक्टर बन्धुओं से कहा " इस अस्पताल का क्या हाल हो गया है ? " वहाँ डॉक्टर कहने लगे स्वामी जी " कोई ख्याल नहीं करता । " जिनको ख्याल था उनके डर से कर लेते थे , पर अन्दर से निश्चय था कि इस सबसे क्या होता है । ज्ञान में ऊपर से थोपने से नहीं होता । धीरे धीरे अन्दर में जो बैठा हृ है उसे निकालना पड़ता है । उत्तम अध्यापक वह है जो विद्यार्थी के अन्दर के जो तत्त्व हैं उनको निकाल कर बाहर करे । केवल ऊपर से चीज़ रटा देने से काम नहीं होगा ।
ऐसे ही विज्ञान की उन्नति भी धीरे धीरे होती है । विज्ञान का मतलब है ब्रह्माण्ड के नियमों को अर्थात् " ऋत " को ठीक से समझना । हमारे यहाँ दो चीज़े मानी गई है " ऋतं च सत्यं च " , ऋत और सत्य ये दोनों तप अर्थात् सुक्ष दृष्टि से विचार किये जाये तॅ " इद्ध " अर्थात् प्रज्वलित होकर उनकी वृद्धि होती है । यह ऋग्वेद का मन्त्र है , संध्या वंदन में इसका प्रयोग करते है । ऋत संसार को चलाने वाले नियम हैं । संसार को चलाने वाले नियमों के अन्दर कुछ वास्तविक नियम होते हैं और कुछ वास्तविक नियमों का ज्ञान होने पर हम मान लेते हैं , उन माने हुये नियमों से भी व्यवहार चलता रहता है । कालान्तर में पता लगता है कि हमारा मानना गलत था । जैसे आदिम मानव मानता था कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है , स्वभाविक है । नक्षत्र , तारामण्डल पृथ्वी के चारों तरफ धूमते हैं , यह मानना स्वाभाविक ही था और उससे भी काम चलता था । उससे भी वर्ष मास आदि का पता लगता था , सारा व्यवहार चलता था । उसके बाद धीरे धीरे पता लगा कि इनके अन्दर विप्रतिपत्तियाँ हैं। उनको हटाकर यह माना गया कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों तरफ धृमता है । अब इससे भी व्यवहार चल रहा है । व्यवहार मान्यताओं से चलता है। ऐसा नहीं कि कालान्तर में पता चलेगा कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चल रही है , सूर्य स्थिर है । अभी ही यह मालूम है कि पृथ्वी पृथ्वी भी चल रही है। आज से करीब सवा सौ साल पूर्व ध्रुव को केन्द्र माना गया कि उसके चारो तरफ पृथ्वी धूमती है । फिर पच्चीस तीस साल पता चला कि ध्रुव भी स्थिर नहीं है । वैज्ञाननिक मानते हैं कि बीस हजार मील प्रति सैकेण्ड से ज्यादा गति से हम लोग चल रहे हैं । पृथ्वी की अपनी गति , पृथ्वी की सूर्य सम्बन्धिगति , सारे सूर्यमण्डल की गति , उसके साथ गैलेक्सी की गति , इन सब गतियों को मिलाकर जो गति बनती है , वह बीस हज़ार मील प्रतिसैकेण्ड से ज्यादा हो जाती है जो हम लोगों की गति है । यह तो वह हिसाब बताया जिसमें ध्रुव स्थिर है , लेकिन अब तो वह भी स्थिर नहीं है । अभी उसका पता नहीं , लाखों मील प्रति सैकेण्ड की गति हो जायेगी यदि उसे जोड़ा जायेगा ।
ये परिष्कार धीरे - धीरे आते हैं । पुराने व्यवहार पुराने परिष्कारों से चलते ही थे । धीरे धीरे बदलने से ही तो हमारे संस्कार बदलेंगे , एक दिन में थोड़े बदलेंगे । उपर से किताब गिराते हैं तो नीचे गिर जाती है । विज्ञान में पढ़ भी लेते हैं कि सारे के सारे इलेक्ट्रोन्स नीचे नहीं आते , उस पदार्थ के कुछ इलैक्ट्रोन्स ऊपर , कुछ दाहिने , कुछ बायें चले जाते हैं , सारे के सारे नीचे नहीं आते , फिर भी यही मानकर चलते हैं , क्योंकि अभी तक वही संस्कार हैं , कि चीज़ गिरी तो सारी नीचे गिरी । अब धीरे धीरे कई सौ वर्षों में नवीन विचार रहेंगे तो वे संस्कार बन जायेँगे । विज्ञान की वास्तविक उत्कर्षता तब होगी जब हमारे सोचने का , जीवित रहने का अंग बन जायेगा । तब तक वह बाह्य ज्ञान बना रहता है। जब वह हमारा विज्ञान बन जाता है तब फिर उसके आगे की प्रगति होती है । ऐसा नहीं कि कहीं जाकर यह सिलसिला बन्द हो जाना है कि इतनी प्रगति हो गई , इसके आगे कुछ नहीं । यह तो ऐसे ही चलता रहेगा ।
हमारे यहाँ अनादि काल से आज तक वेदान्ती एक बात कहता है , द्वैतवादी , सांख्यवादी , नैयायिक दूसरी बात कहता है । वे जिस बात को कहते हैं उनमें हम दोष निकालते हैं । फिर वे जबाब देते हैं कि द्वैत सिद्धान्त ठीक है । वैदिक काल से आज तक यही चल रहा है । असद्वाद भी वैदिक काल से चल रहा है " असद् वा इदमग्र आसीत् " उपनिषद् कहती है असत् से सब कुछ उत्पन्न हुआ है , ऐसा नहीं । इसके अतिरिक्त आरम्भवाद , परिणामवाद भी सब मानते रहे हैं । क्या कोई ऐसा समय आयेगा जब यह शास्त्रार्थ बन्द हो जायेगा ? यह कभी नहीं आना है । लेकिन हर बार जब परिष्कार होता है तो पहले की अपेक्षा चिंतन और सूक्ष्म सूक्ष्मतर होता चला जाता है , भावों में और ज्यादा गंभीरता आ जाती है । इसी प्रकार विज्ञान के अन्दर भी जब उन्नती होती है तो यही होता है कि पुराना विज्ञान गलत हो गया है , वरन् कोआर्डिनेट्स में वह ठीक था और अब नये रिफाइनमैण्ट या नये कोआर्डिनेट्स का पता चल गया है तो ये भी ठीक है । चाहे आत्मविज्ञान हो चाहे बाह्य विज्ञान , निरन्तर परिष्कार होते चले जाने हैं ।
परिष्कार सच्चा तब बनता है जब स्वप्न में भी आपको उसका ख्याल रहे अर्थात् सोचते सोचते आपका ऐसा अंग बन जाये कि स्वप्न काल में भी आप उसी को समझे । इसलिये भगवान् श्री गौडपादाचार्य जी ने विज्ञान शब्द का प्रयोग किया कि आध्यात्मिक विज्ञान काल में भी यह उत्कर्ष की दृष्टि रखनी पड़ेगी चूँकी ये उसमें से निकलकर आते हैं ।
--- स्वामी मृगेन्द्र सरस्वतीजी
“ ज्ञान – विज्ञानं “ -
भगवान् श्रीगौडपाद ने अपने माण्डुक्यकारिका में " विज्ञान " शब्द का प्रयोग किया है । भगवान् श्रीगौडपाद् ने जो अपने " कारिका " में " विज्ञान " शब्द जो प्रयोग किया है वह बड़ा ही सोच समझ कर किया है । दूसरे को शिक्षा देना भी विज्ञान कहा जाता है , क्योंकि विज्ञान का मतलब है अनुभवपूर्वक ज्ञान । श्रीमद्भगवद्गीता में आया है - " ज्ञानं विज्ञानसहितं यज्ज्ञात्वा मोक्षसेऽशुभात् " तथा " ज्ञानं तेऽहं सविज्ञानम् " । जब ज्ञान विज्ञान के साथ साथ प्रयोग होता है तो विज्ञान का अर्थ अनुभवपूर्वक ज्ञान होता है ।
दूसरे को शिक्षा देते समय यह याद रखना चाहिये कि उसमें जो तत्त्व है वही खींचकर बाहर निकालना है । यदि आपने किसी व्यक्ति के उपर कुछ शिक्षा थोप दी तो यह समझ लेंगे कि उस मनुष्य के जीवन आपने नष्ट कर दिया । श्रीरामकृष्ण परमहंसदेव के जीवन में आता है कि जब शुरू में विवेकानन्द जी को कुछ विशिष्ट शक्ति प्राप्त हुई तो उन्होंने अपने एक गुरुभाई श्री स्वामी अभेदानन्द जी को जो भक्तिमार्गी या उपासना पक्ष के थे , रात को कहा " मैं ध्यान करता हूँ और तू मेरे को हाथ लगाकर बैड , देख तेरे को क्या होता है । " वे बैठ गये और उन्हें उस दिन निर्गुण तत्त्व की तरफ निष्ठा बन गई । दूसरे दिन प्रातःकाल श्रीरामकृष्णदेव जी ने विवेकानन्द को बहुत डाँटा " तूने इसका जीवन बरबाद कर दिया । यह एक रास्ते से चल रहा था , उसे रास्ते से धीरे - धीरे आगे जाता । अब तूने उसमें ज़ोर से निर्गुणता का संचार तो कर दिया लेकिन वह उसकी प्रकृति में बैठेगा नहीं । नतीजा यह होगा कि धीरे - धीरे उसके अन्दर एक संघर्ष बढ़ता रहेगा । " क्योंकि पहले के जन्मों से जैसी साधना जीव करता आया है तत्संस्कारों के अनुकुल ही उसकी साधना का क्रम चलता है । भगवान् श्रीवासुदेव कृष्ण ने अपने गीतागायन में गाते हुये कहा है- " ह्रियते ह्यवशोपि सः " अवश हुआ उसी रास्ते जायेगा । अर्जुन कहता है मैं ब्राह्मण की तरह भिक्षा मांग कर गुजारा करूँगा । तो श्रीवासुदेव कृष्ण ने कहा - अरे अर्जुन ! तेरे से यह होगा ही नहीं क्योंकि यदि तेरे में ऐसे संस्कार होते तो तू क्षत्रिय के घर पैदा क्यों होता ? संस्कार तेरे दूसरे हैं , सुन - सुनाकर दूसरे संस्कारों की नकल करने जायेगा , वे संस्कार पड़ेंगे नहीं इसलिय मन में केवल संघर्ष चलता रहेगा और कुछ नहीं होगा। यही बात श्रीरामकृष्णदेव जी ने विवेकानन्द से कही । दूसरी बात यह भी कही कि अभी तूने शक्ति पूरी प्राप्त की नहीं है और दूसरों को दिखाना पहले ही शुरु हो गया । इसलिये आध्यात्मिक साधना में तो यह बहुत ही जरूरी है कि सामने वाले के संस्कारों को लेकर उन संस्कारों को ही आगे बढ़ना है , नवीन संस्कारों का आरोपण नहीं करना है । नवीन संस्कारों की बात उसे सुना दो , वह दूसरी बात है । दस पाँच जन्मों में धीरे धीरे वे संस्कार बन जायेंगे । लेकिन हठात् यह काम नहीं हुआ करते । अध्यात्मविज्ञान बड़ा धैर्य का विज्ञान है । इसीलिय " भगवान् श्री मनु " ने धर्म के लक्षणों में सबसे पहला धर्म ही " धृति " अर्थात् " धैर्य " को गिनाया है । धैर्य का मतलब ही यह है कि तुम एक संस्कार दिया और फिर धैर्यपूर्वक देखते है कि समय आने पर फल देगा । यदि सद्यः फल चाहोगे तॅ कुछ नहीं होना है सिवाय संघर्ष के।
अध्यात्मविज्ञान में यह चीज़ शतप्रतिशत है तो 98 प्रतिशत लौकिक विज्ञान में भी है । दूसरे को शिक्षा देते समय अकस्मात् चाहो कि नये संस्कार बैठा दो तो वे बैठ पायेंगे और न बैठा पाओगे । हिन्दुस्तान के अन्दर आदमी डॉक्टर बन जाता है । संक्रमण के बारे में सब समझ लेता है और इलाज करते समय किसी के चोट लगी हुई हो और दबाई का फाया जमीन पर गिरे तो जमीन से ही उठा कर लगा देता है । यह हमने कितने बार अपनी आँखो से देखा है । पढ़ा पढ़ाया है , लेकिन संस्कार अंदर प्रविष्ट नहीं हुए , इसलिये ऐसा कर जाता है । जहाँ वे संस्कार सौ साल से प्रविष्ट हो गये हैं वहाँ छोटा बच्चा भी यह काम नहीं करेगा । हम जहाँ प्रवास करते है { जोधपुर , राजस्थान } वहाँ पहले विण्डम अस्पताल था , अब उस अस्पताल का नाम महात्मा गाँधी अस्पताल कर दिया है । डॉक्टर विण्डम के नाम पर उस अस्पताल का नाम पड़ा था। उनके पास जब कभी कोई डॉक्टर आता था तो सबसे पहले रूई लेकर उसकी दाढ़ी की परीक्षा करते थे और यदि रूई उसकी दाढ़ी पर चिपक गई तो वापिस भेज देते थे कि शेव ठीक से नहीं हुई है । उस समय अस्पताल में बड़ी सफाई भी थी । अब यही अस्पताल नर्क से भी गन्दा है । एक बार हम अस्पताल गये देखने की अस्पताल का क्या हाल है । देख कर बड़ा कष्ट हृ । हमने डॉक्टर बन्धुओं से कहा " इस अस्पताल का क्या हाल हो गया है ? " वहाँ डॉक्टर कहने लगे स्वामी जी " कोई ख्याल नहीं करता । " जिनको ख्याल था उनके डर से कर लेते थे , पर अन्दर से निश्चय था कि इस सबसे क्या होता है । ज्ञान में ऊपर से थोपने से नहीं होता । धीरे धीरे अन्दर में जो बैठा हृ है उसे निकालना पड़ता है । उत्तम अध्यापक वह है जो विद्यार्थी के अन्दर के जो तत्त्व हैं उनको निकाल कर बाहर करे । केवल ऊपर से चीज़ रटा देने से काम नहीं होगा ।
ऐसे ही विज्ञान की उन्नति भी धीरे धीरे होती है । विज्ञान का मतलब है ब्रह्माण्ड के नियमों को अर्थात् " ऋत " को ठीक से समझना । हमारे यहाँ दो चीज़े मानी गई है " ऋतं च सत्यं च " , ऋत और सत्य ये दोनों तप अर्थात् सुक्ष दृष्टि से विचार किये जाये तॅ " इद्ध " अर्थात् प्रज्वलित होकर उनकी वृद्धि होती है । यह ऋग्वेद का मन्त्र है , संध्या वंदन में इसका प्रयोग करते है । ऋत संसार को चलाने वाले नियम हैं । संसार को चलाने वाले नियमों के अन्दर कुछ वास्तविक नियम होते हैं और कुछ वास्तविक नियमों का ज्ञान होने पर हम मान लेते हैं , उन माने हुये नियमों से भी व्यवहार चलता रहता है । कालान्तर में पता लगता है कि हमारा मानना गलत था । जैसे आदिम मानव मानता था कि सूर्य पृथ्वी के चारों तरफ घूमता है , स्वभाविक है । नक्षत्र , तारामण्डल पृथ्वी के चारों तरफ धूमते हैं , यह मानना स्वाभाविक ही था और उससे भी काम चलता था । उससे भी वर्ष मास आदि का पता लगता था , सारा व्यवहार चलता था । उसके बाद धीरे धीरे पता लगा कि इनके अन्दर विप्रतिपत्तियाँ हैं। उनको हटाकर यह माना गया कि पृथ्वी ही सूर्य के चारों तरफ धृमता है । अब इससे भी व्यवहार चल रहा है । व्यवहार मान्यताओं से चलता है। ऐसा नहीं कि कालान्तर में पता चलेगा कि पृथ्वी सूर्य के चारों तरफ चल रही है , सूर्य स्थिर है । अभी ही यह मालूम है कि पृथ्वी पृथ्वी भी चल रही है। आज से करीब सवा सौ साल पूर्व ध्रुव को केन्द्र माना गया कि उसके चारो तरफ पृथ्वी धूमती है । फिर पच्चीस तीस साल पता चला कि ध्रुव भी स्थिर नहीं है । वैज्ञाननिक मानते हैं कि बीस हजार मील प्रति सैकेण्ड से ज्यादा गति से हम लोग चल रहे हैं । पृथ्वी की अपनी गति , पृथ्वी की सूर्य सम्बन्धिगति , सारे सूर्यमण्डल की गति , उसके साथ गैलेक्सी की गति , इन सब गतियों को मिलाकर जो गति बनती है , वह बीस हज़ार मील प्रतिसैकेण्ड से ज्यादा हो जाती है जो हम लोगों की गति है । यह तो वह हिसाब बताया जिसमें ध्रुव स्थिर है , लेकिन अब तो वह भी स्थिर नहीं है । अभी उसका पता नहीं , लाखों मील प्रति सैकेण्ड की गति हो जायेगी यदि उसे जोड़ा जायेगा ।
ये परिष्कार धीरे - धीरे आते हैं । पुराने व्यवहार पुराने परिष्कारों से चलते ही थे । धीरे धीरे बदलने से ही तो हमारे संस्कार बदलेंगे , एक दिन में थोड़े बदलेंगे । उपर से किताब गिराते हैं तो नीचे गिर जाती है । विज्ञान में पढ़ भी लेते हैं कि सारे के सारे इलेक्ट्रोन्स नीचे नहीं आते , उस पदार्थ के कुछ इलैक्ट्रोन्स ऊपर , कुछ दाहिने , कुछ बायें चले जाते हैं , सारे के सारे नीचे नहीं आते , फिर भी यही मानकर चलते हैं , क्योंकि अभी तक वही संस्कार हैं , कि चीज़ गिरी तो सारी नीचे गिरी । अब धीरे धीरे कई सौ वर्षों में नवीन विचार रहेंगे तो वे संस्कार बन जायेँगे । विज्ञान की वास्तविक उत्कर्षता तब होगी जब हमारे सोचने का , जीवित रहने का अंग बन जायेगा । तब तक वह बाह्य ज्ञान बना रहता है। जब वह हमारा विज्ञान बन जाता है तब फिर उसके आगे की प्रगति होती है । ऐसा नहीं कि कहीं जाकर यह सिलसिला बन्द हो जाना है कि इतनी प्रगति हो गई , इसके आगे कुछ नहीं । यह तो ऐसे ही चलता रहेगा ।
हमारे यहाँ अनादि काल से आज तक वेदान्ती एक बात कहता है , द्वैतवादी , सांख्यवादी , नैयायिक दूसरी बात कहता है । वे जिस बात को कहते हैं उनमें हम दोष निकालते हैं । फिर वे जबाब देते हैं कि द्वैत सिद्धान्त ठीक है । वैदिक काल से आज तक यही चल रहा है । असद्वाद भी वैदिक काल से चल रहा है " असद् वा इदमग्र आसीत् " उपनिषद् कहती है असत् से सब कुछ उत्पन्न हुआ है , ऐसा नहीं । इसके अतिरिक्त आरम्भवाद , परिणामवाद भी सब मानते रहे हैं । क्या कोई ऐसा समय आयेगा जब यह शास्त्रार्थ बन्द हो जायेगा ? यह कभी नहीं आना है । लेकिन हर बार जब परिष्कार होता है तो पहले की अपेक्षा चिंतन और सूक्ष्म सूक्ष्मतर होता चला जाता है , भावों में और ज्यादा गंभीरता आ जाती है । इसी प्रकार विज्ञान के अन्दर भी जब उन्नती होती है तो यही होता है कि पुराना विज्ञान गलत हो गया है , वरन् कोआर्डिनेट्स में वह ठीक था और अब नये रिफाइनमैण्ट या नये कोआर्डिनेट्स का पता चल गया है तो ये भी ठीक है । चाहे आत्मविज्ञान हो चाहे बाह्य विज्ञान , निरन्तर परिष्कार होते चले जाने हैं ।
परिष्कार सच्चा तब बनता है जब स्वप्न में भी आपको उसका ख्याल रहे अर्थात् सोचते सोचते आपका ऐसा अंग बन जाये कि स्वप्न काल में भी आप उसी को समझे । इसलिये भगवान् श्री गौडपादाचार्य जी ने विज्ञान शब्द का प्रयोग किया कि आध्यात्मिक विज्ञान काल में भी यह उत्कर्ष की दृष्टि रखनी पड़ेगी चूँकी ये उसमें से निकलकर आते हैं ।
--- स्वामी मृगेन्द्र सरस्वतीजी
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