वास्तु में दिशाओं का सर्वाधिक महत्व होता है। तभी तो भवन
निर्माण करते समय या भूखण्ड क्रय करते समय दिशाओं का विशेष खयाल रखा जाता
है। आइए जानते हैं कि वास्तु के अनुसार घर में किस दिशा में कौन से कक्ष का
निर्माण किया जाए -
वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे उतना ही महत्व है, जितना कि पंच तत्वों का है। दिशाएं कौन-कौन सी हैं और उनके स्वामी कौन-कौन से हैं और वो किस तरह जीव को प्रभावित कर सकती हैं-ये समझना जरुरी है। वास्तु शास्त्र की अहमियत अब अंजानी नहीं रह गई है। अधिकांश लोग मान चुके हैं कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हें रखने का तरीका जीवन को प्रभावित करता है। ऐसे में, वास्तु शास्त्र की बारीकियों को समझना आवश्यक है। इन बारीकियों में सबसे अहम है-दिशाएं। वास्तु विज्ञान शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाएं भी होती हैं। ये चार दिशाएं हैं- ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य। समरागण सूत्र में दिशाओं व विदिशाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
पूर्व दिशा – वास्तुशास्त्र में इस दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए.यह सुख और समृद्धिकारक होता है.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं.परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं.पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। इस दिशा को पितृ स्थान माना जाता है अतः इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है। यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टॉयलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची नहीं होनी चाहिए। इससे भी संतान हानि का भय रहता है।
पश्चिम दिशा -जब सूर्य अस्तांचल की ओर होता है तो वह दिशा पश्चिम कहलाती है। इस दिशा का स्वामी श्वरूणश् है। यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है और वायु चंचल होती है। अतः यह दिशा चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन का दरवाजा पश्चिम मुखी है तो वहां रहने वाले प्राणियों का मन चंचल होगा। पश्चिम दिशा सफलता यश, भव्यता और कीर्ति प्रदान करती है। पश्चिम दिशा का स्वामी वरूण है। इसका प्रतिनिधि ग्रह शनि है। ऐसे में गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो वो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी और उसे गुप्तांग की बीमारी हो सकती है।
उत्तर दिशा -उत्तर दिशा का स्वामी कुबेर है और यह दिशा जल तत्व को प्रभावित करती है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़ देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान करती है। उत्तर मुखी भवन इसकी दिशा का ग्रह बुध है। उत्तरी हिस्से में खाली जगह न हो। अहाते की सीमा के साथ सटकर और मकान हों और दक्षिण दिशा मे जगह खाली हो तो वह भवन दूसरों की सम्पति बन सकता है।
दक्षिण दिशा - इस दिशा के स्वामी यम देव हैं.यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है.इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है.गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है.आम तौर पर दक्षिण दिशा को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण दिशा को यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है। यह धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार की बुराइयों को नष्ट करती है। भवन निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित या खुली होगी तो शत्रु भय का रोग प्रदान करने वाले होगी।
नैऋत्य दिशा – दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं.इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है.यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है.भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए.इस दिशा का स्वामी राक्षस है.यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है.दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र यानि नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। यह क्षेत्र अनंत देव या मेरूत देव के अधीन होता है। यहाँ शस्त्रागार तथा गोपनीय वस्तुओं के संग्रह के लिए व्यवस्था करनी चाहिए।
ईशान दिशा – पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग को ईशान दिशा कहा जाता है। ईशान दिशा को देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया जाता है तो घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की जाती है। सूर्योदय की पहली किरणें भवन के जिस भाग पर पड़े, उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान, बुद्धि आदि प्रदान करती है। भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है। इस दिशा का स्वामी रूद्र यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है।उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र अर्थात् ईशान कोण जल का प्रतीक है। इसके अधिपति यम देवता हैं। भवन का यह भाग ब्राह्मणों, बालकों तथा अतिथियों के लिए शुभ होता है। अत: इस दिशा में अतिथि कक्ष बनवाना शुभ होता है।
दक्षिणी-पूर्वी दिशा यानि आग्नेय कोण अग्नि तत्व की प्रतीक है। इसका अधिपति अग्नि देव को माना गया है। यह दिशा रसोईघर, व्यायामशाला या ईंधन के संग्रह करने के स्थान के लिए अत्यंत शुभ होती है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं.अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है.धन की हानि होती है.मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है.यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है. उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है.पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है इस कोण को अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ है। यह दिशा दूषित रहेगी तो घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति क्रोधित स्वभाव वाला व चिड़चिड़ा होगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो संतान को कष्टप्रद होकर राजभय आदि देता है। इस दिशा के स्वामी गणेश हैं और प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है। यदि आग्नेय ब्लॉक की पूर्वी दिशा मे सड़क सीधे उत्तर की ओर न बढ़कर घर के पास ही समाप्त हो जाए तो वह घर पराधीन हो सकता है।
कैसे हो कम्पास के द्वारा दिशाओं का ज्ञान -
वास्तु जानने के लिए दिशाओं का सही निर्धारण जरूरी है।
दिशा जानने के लिए कम्पास का प्रयोग करते हैं।
जिसमें एक चुम्बकीय सुई होती है जिसका तीर उत्तर दिशा में ही रूकता है।
--- श्री अनुराग मिश्र
वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे उतना ही महत्व है, जितना कि पंच तत्वों का है। दिशाएं कौन-कौन सी हैं और उनके स्वामी कौन-कौन से हैं और वो किस तरह जीव को प्रभावित कर सकती हैं-ये समझना जरुरी है। वास्तु शास्त्र की अहमियत अब अंजानी नहीं रह गई है। अधिकांश लोग मान चुके हैं कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हें रखने का तरीका जीवन को प्रभावित करता है। ऐसे में, वास्तु शास्त्र की बारीकियों को समझना आवश्यक है। इन बारीकियों में सबसे अहम है-दिशाएं। वास्तु विज्ञान शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाएं भी होती हैं। ये चार दिशाएं हैं- ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य। समरागण सूत्र में दिशाओं व विदिशाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है।
पूर्व दिशा – वास्तुशास्त्र में इस दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए.यह सुख और समृद्धिकारक होता है.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं.परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं.पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। इस दिशा को पितृ स्थान माना जाता है अतः इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है। यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टॉयलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची नहीं होनी चाहिए। इससे भी संतान हानि का भय रहता है।
पश्चिम दिशा -जब सूर्य अस्तांचल की ओर होता है तो वह दिशा पश्चिम कहलाती है। इस दिशा का स्वामी श्वरूणश् है। यह दिशा वायु तत्व को प्रभावित करती है और वायु चंचल होती है। अतः यह दिशा चंचलता प्रदान करती है। यदि भवन का दरवाजा पश्चिम मुखी है तो वहां रहने वाले प्राणियों का मन चंचल होगा। पश्चिम दिशा सफलता यश, भव्यता और कीर्ति प्रदान करती है। पश्चिम दिशा का स्वामी वरूण है। इसका प्रतिनिधि ग्रह शनि है। ऐसे में गृह का मुख्य द्वार पश्चिम दिशा वाला हो तो वो गलत है। इस कारण ग्रह स्वामी की आमदनी ठीक नहीं होगी और उसे गुप्तांग की बीमारी हो सकती है।
उत्तर दिशा -उत्तर दिशा का स्वामी कुबेर है और यह दिशा जल तत्व को प्रभावित करती है। भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़ देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान करती है। उत्तर मुखी भवन इसकी दिशा का ग्रह बुध है। उत्तरी हिस्से में खाली जगह न हो। अहाते की सीमा के साथ सटकर और मकान हों और दक्षिण दिशा मे जगह खाली हो तो वह भवन दूसरों की सम्पति बन सकता है।
दक्षिण दिशा - इस दिशा के स्वामी यम देव हैं.यह दिशा वास्तुशास्त्र में सुख और समृद्धि का प्रतीक होता है.इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी एवं रोजी रोजगार में परेशानी का सामना करना होता है.गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है.आम तौर पर दक्षिण दिशा को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण दिशा को यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है। यह धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार की बुराइयों को नष्ट करती है। भवन निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित या खुली होगी तो शत्रु भय का रोग प्रदान करने वाले होगी।
नैऋत्य दिशा – दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं.इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है.यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है.भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए.इस दिशा का स्वामी राक्षस है.यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है.दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र यानि नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। यह क्षेत्र अनंत देव या मेरूत देव के अधीन होता है। यहाँ शस्त्रागार तथा गोपनीय वस्तुओं के संग्रह के लिए व्यवस्था करनी चाहिए।
ईशान दिशा – पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग को ईशान दिशा कहा जाता है। ईशान दिशा को देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया जाता है तो घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की जाती है। सूर्योदय की पहली किरणें भवन के जिस भाग पर पड़े, उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान, बुद्धि आदि प्रदान करती है। भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है। इस दिशा का स्वामी रूद्र यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है।उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र अर्थात् ईशान कोण जल का प्रतीक है। इसके अधिपति यम देवता हैं। भवन का यह भाग ब्राह्मणों, बालकों तथा अतिथियों के लिए शुभ होता है। अत: इस दिशा में अतिथि कक्ष बनवाना शुभ होता है।
दक्षिणी-पूर्वी दिशा यानि आग्नेय कोण अग्नि तत्व की प्रतीक है। इसका अधिपति अग्नि देव को माना गया है। यह दिशा रसोईघर, व्यायामशाला या ईंधन के संग्रह करने के स्थान के लिए अत्यंत शुभ होती है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं.अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है.धन की हानि होती है.मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है.यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है. उर्जावान और स्वास्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है.पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है इस कोण को अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ है। यह दिशा दूषित रहेगी तो घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति क्रोधित स्वभाव वाला व चिड़चिड़ा होगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो संतान को कष्टप्रद होकर राजभय आदि देता है। इस दिशा के स्वामी गणेश हैं और प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है। यदि आग्नेय ब्लॉक की पूर्वी दिशा मे सड़क सीधे उत्तर की ओर न बढ़कर घर के पास ही समाप्त हो जाए तो वह घर पराधीन हो सकता है।
कैसे हो कम्पास के द्वारा दिशाओं का ज्ञान -
वास्तु जानने के लिए दिशाओं का सही निर्धारण जरूरी है।
दिशा जानने के लिए कम्पास का प्रयोग करते हैं।
जिसमें एक चुम्बकीय सुई होती है जिसका तीर उत्तर दिशा में ही रूकता है।
--- श्री अनुराग मिश्र
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