भगवान् ने भी अपने श्रीगीताजी के गायन में कहा है -
" लोकेऽस्मिन् द्विविधा पुरा प्रोक्ता मयाऽनघ " इस गीता वचन में " मया "
इस अंश से अपने वेदस्वरूप की ही इंगना कर रहे हैं , वेदरूप से मैंने प्रथम
ही दो निष्ठाओं का वर्णन किया है । इतना ही नहीं , प्रत्युत भगवान् कट
अस्तित्व एवं उपादेयता को प्रकाश करने वाला वेद - शास्त्र स्वरूप भगवान् से
भी श्रेष्ठ है । प्रकाश्य से अधिक प्रकाशक का महत्व प्रसिद्ध ही है ।
भगवान् के स्वप्रकाश चिदंश का ही वेदरूप में प्रादुर्भाव हुआ है । यही
समस्त शब्द - ब्रह्म की उत्पत्तिस्थान है । वैयाकरण इसी से प्रपञ्च सृष्टि
मानते हैं -
" अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दरूपं यदक्षरम् ।
विवर्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः ।। "
सभी वेद - मूल और वेदसारभूत प्रणव आदि भगवन्नामों का भगवान् के साथ अभेद
कहा गया है । भगवन्नाम भगवान् से भी श्रेष्ठ हैं , श्री गोस्वामी जी ने कहा
है -
" राम एक तापस तिय तारी । नाम कोटी खल कुमति सुधारी ।।
राम भालू कपि कटक बटोरा । सेतु हेतू श्रम की न थोरा ।।
नाम लेत भवसिन्धु सुखाही । करहु विचार सुजन मन माँही ।।
कहहुँ कहां लगि नाम बडाई । राम न सकहिं नाम गुण गाई ।।
इस तरह वेद भगवान् से उद्भूत और उन्हीं के स्वरूप हैं । वे उन्हीं के
अस्तित्व एवं उपादेयता को सिद्ध करते हैं । अतः उनके विरूद्ध भगवान् की भी
बात न मानना ही आस्तिकता एवं बुद्धिमानी है ।
एक बार जब श्री
भीष्मपितामह जी पिण्ड प्रदान करने लगे , तो उनके पिता श्रीशन्तनुजी का हाथ
स्पष्ट पिण्ड ग्रहण के लिये व्यक्त हुआ । इसपर श्रीभीष्मजी ने वेदज्ञों से
प्रश्न किया कि " क्या श्राद्ध में हाथ पर पिण्ड प्रदान वैध है ?
ब्राह्मणदेवताओं ने कहा नहीं , कुशाओं पर ही पिण्ड प्रदान की शास्त्रीय
विधि है । फिर भीष्म ने वैसा ही किया । श्रीशन्तनु उनकी अटल शास्त्रनिष्ठा
से प्रसन्न हो उन्हें आशीर्वाद देकर चले गये । क्रमशः .....
इस तरह
वेदों के निर्माण में किसी का स्वातन्त्र्य न होना उनके प्रमाण्य का साधक
ही है और प्रयत्न एवं बुद्धिनिरपेक्ष वेदों का प्रादुर्भाव उनकी
स्वाभाविकता एवं अकृत्रिमता का व्यंजक है । अतः सर्वज्ञ की समाहित बुद्धि
से बने हुये ग्रन्थ की भी अपेक्षा प्रयत्न एवं बुद्धि - निरपेक्ष श्वासवत्
स्वाभाविक वेदों का अधिक महत्व है ।
यही कारण है कि आस्तिकों के यहाँ
गीता सर्वज्ञ , समाहित श्रीवासुदेव कृष्ण प्रोक्त है - इतने से ही संतोष
एवं गीता का माहात्म्य नहीं है , प्रत्युत उसका महत्व इसी में है कि समाहित
, सर्वज्ञ श्रीकृष्ण परमात्मारूप गोपाल के द्वारा वेद - शीर्ष उपनिषदरूप
गौओं के दुग्धामृतरूप में उसका प्रादुर्भाव हुआ है ।
वैष्णवों के परमधन
भागवत की भी महत्ता वेदरूप कल्पद्रुम के सुमधुर फल होने के ही नाते बढ़ी ।
श्रीमद्भागवत फल ही नहीं , मधुर एवं परिपक्व फल है । वह फल कल्पतरू का , जो
स्वयं सर्वाभीष्टदायक है । वह कल्पवृक्ष भी साधारण भोगदायक देवतरु नहीं
अपितु वेद - कल्पतरु है । इस कल्पतरु से धर्म , अर्थ , काम और मोक्ष - सभी
प्रकार के पुरुषार्थ अनायास प्राप्त हो सकते हैं । उस अद्भुत अद्भुत
लोकोत्तर कल्पतरु का सारतम , परिपक्व एवं स्वयं गलित फल श्रीभागवत् है ।
वहीं भी शुक्र - तुण्ड स्सृष्ट - होने से अतिमधुर है । श्रीशुक भी प्राकृत
नहीं , परमहंस - महामुनीन्द्र - कुलतिलक एवं श्रीव्रजेन्द्रनन्दन एवं
श्रीवृषभानुनन्दिनी के कृपापात्र से परिपुष्ट शुक हैं । उनके मुखामृत -
द्रव से संस्पृष्ट यह भागवत फल है । यहाँ फल भी वेदसार एवं वेदज्ञ - संबद्ध
होने से ही श्रीमद्भागवत का माहात्य बढ़ा । यही भागवत के माहात्मय में
स्पष्ट किया गया है । जैसे ईक्षु में मधुरिमा विस्तृत है , फिर भी उसी से
निकली हुई शर्करा , सिता , कन्द आदि के माधुर्य की विचित्रता मान्य होती है
, वैसे ही वेदों का ही सार समुह होने के कारण श्रीमद्भागवत शास्त्र का
महत्व विलक्षण है ।
" वेदवेद्ये परं पुंसि जाते दशरथात्मजे ।
वेदः प्राचेतसादासीत् साक्षाद्रामायणात्मना ।। "
अर्थात् वेदवेद्य परमात्मा जब श्रीरामरूप में प्रकट हुए इत्यादि वचनों के
अनुसार रामायण , महाभारत आदि समस्त आर्ष - ग्रन्थ वेद से ही महात्वास्पद
होते हैं ।
अग्नि की उष्णता और जल की द्रवता स्वाभाविक धर्म है ।
ब्रह्मदेव भी उनके निर्माता नहीं माने जाते । यही कारण है कि अग्नि कभी शीत
और जल कभी उष्ण नहीं होता । यदि निर्माता के अधीन उसका निर्माण हो , तो
स्वतन्त्र होने के कारण निर्माता वैसा भी बन सकता है। इसी तरह भगवान् के
निःश्वासभूत वेद स्वाभाविक हैं , कृत्रिम नहीं । भगवान् वेदों के स्मर्ता
ही हैं , यह बात महामुनीवर्य श्रीपराशरजी ने भी कही है -
" न कश्चिद्वेदकर्ताऽस्तिवेदस्मर्ता प्रजापतिः ।
तथैव धर्म स्मरति मनुः कल्पान्तरान्तरे ।। "
वेद का एकदेश " आयुर्वेद " है । उससे विवेच्य विषयभूत योग्य एवं अयोग्य
पदार्थों के गुण- दोषों का ज्ञान किसी जीव को सहस्रों कल्पों में भी पूर्ण
नही हो सकता । जब एक नगण्य तृण के विचित्र गुणों का सहज में ज्ञान नहीं
होता , तब फिर अनन्त तृण एवं उनके अनन्त संप्रयोग - विप्रयोग और उनसे
उद्धृत एवं अभिभूत होनेवाली विचित्र शक्तियाँ किसी अल्पज्ञ को कैसे विदित
हो सकती है ? एक तृण कोई ले , तो उसमें न जाने कितने रोगों को उत्पन्न और
विनष्ट करने की शक्ति है । फिर दो - चार औषधियों के संयोग आदि से कितनी
शक्तियाँ संकुचित एवं विकसित है - यह जानना जीव के लिए अन्वय - व्यतिरेक
आदि युक्तियों से सैकड़ो कल्पों में भी संभव न होगा । एक 4 विष के ही
शक्तिपरीक्षण में सहस्रों प्राणियों की हत्या हो जायेगी , फिर भी ठीक - ठीक
परिणाम ज्ञात नहीं होगा । इसी तरह योग्य एवं अयोग्य अनेक विध पदार्थों के
ज्ञान में पुरुष की योग्यता नहीं है । अतः इन सब विषयों का जिस शास्त्र से
बोध होता है , वह अपौरुषेय ही है । कुछ लोग कहते हैं कि यह विश्व अपने आप
ही उत्पन्न होता है । इसकी उत्पत्ति के लिय परमेश्वर को ढूँढना व्यर्थ है ,
किन्तु क्या इसका अर्थ यह है कि प्रपंच अपनी उत्पत्ति में स्वयं कारण है ?
यदि हाँ तो क्या यह विश्व अपनी उत्पत्ति के समय था या नहीं ? स्वतंत्रता
विद्यमान की होती है या अविद्यमान की ? यदि सृष्टि के पूर्व प्रपंच का
अस्तित्व हो , तो फिर सृष्टी की वार्ता ही क्या ? जब उस समय प्रपंच
अविद्यमान हो , तभी सृष्टि का प्रसंग उठता है फिर उसके किसी कारण की भी
आवश्यकता अनिवार्य हो जाती है । यदि कालाधीन नित्य निरवयव परमाणुओं के
संयोग - वियोग से सृष्टि एवं प्रलय को स्वीकार कर लिया जाय , तो जब काल में
यह स्वतन्त्र माना गया तो नामान्तर से ईश्वर का ही अस्तित्व स्वीकार कर
लिया गया ।
क्योंकि परमेश्वर का सर्वप्रथम लक्षण स्वतन्त्रता ही है ।
सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान के बिना अन्यत्र स्वतन्त्रा बन ही नहीं सकती । जो
सर्वज्ञ एवं सर्वबोधक है , वही शासत्र को कह सकता है । उसी का नित्य वचन
हमारे वेद - शास्त्र हैं ।
काल भगवान् का स्वरूप है , अनुचर या आदेशपाल है और काल जिसके वश में हो वही सर्वशासक है । जो
इच्छावान् , ज्ञानवान् एवं क्रियावान् है वही अनन्तानन्त ब्रह्माण्डों का
निर्माण कर्त्ता ईश्वर है वही सत् चित् आनन्दघन है जो स्वयं वेदवेद्य है
उसकी ही सत्ता सदा - सर्वदा - सर्वत्र रहती है , यथा - भयादस्याग्निस्तपति
भयातपति सूर्यं ।
भयादिन्द्रश्च वायुश्च मृत्युर्धावति पञ्चम् ।। "
{ कठोपनिषद् }
इससे निश्चित हो गया है कि काल को मान लेने पर भगवान् को ही मानना हो गया
है और उन भगवान् को मानने - जानने एवं पाने के लिए अनादि अपौरुषेय
अनन्तशब्दराशि वेद को मानना ही पड़ेगा , जब बिना वेद के भगवान् स्वयं ही
नहीं रह सकते या उनका भी काम बिना वेदों के नहीं चलता , तो अन्य साधारण की
बात ही क्या । और वेद ही भगवान की भगवत्ता प्रतिपादित करते है वेद -
शास्त्र की प्रमाणिकता से ही ईश्वर सर्वशासक प्रमाणित होता है , अतः अनादि
अपौरुषेय वेदों का स्वतः प्रमाण है ।...!
श्री नारायण हरिः ।
नोट -
वेद क्या है ? वेदों का स्वरूप , वेदों का सही अर्थ एवं वैदिक विषयों की
वास्तविक जानकारी के लिये - विश्ववन्द्य ब्रह्मस्वरूप यतिचक्र चूडामणी
धर्मसम्राट परमपूज्य प्रातःस्मरणीय श्री स्वामी हरिरानन्द सरस्वतीजी { श्री
करपात्र स्वामिन } विरचित - " वेदस्वरूप विमर्श " एवं " वेदार्थपारीजात "
का गहन स्वाध्याय करें । समाप्त !
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