Saturday, June 2, 2012

वेद किस प्रकार अपौरुषेय हे?

स्वामी विवेकानंद जी के इस विषय पर विचार...

हिंदू मानते हे की हमारा यह धर्म और वेद अपौरुषेय हे. अपौरुषेय अर्थात अनादी. लेकिन किसी भी तत्वचिंतक को यह बात हास्यास्पद लगेगी.लेकिन हमें यह समजना होगा की जब हम "वेद" शब्द बोलते हे तब वह केवल एक ग्रन्थ विशेष नहीं बन जाता.वेद का अर्थ हे की मंत्रद्रष्टा ऋषियो द्वारा समय-समय पर खोजे गए महत्वपूर्ण आध्यात्मिक विचारों/नियमों का संग्रह.उसको इस उदाहरण द्वारा समजे.जब गुरुत्वाकर्षण के नियम की खोज हुई उसके पहले भी वह नियम तो अस्तित्व में था ही. खोज से पूर्व भी सेब जमीन पर ही गिरता था.केवल उसकी जानकारी जनसामान्य को नही थी.और जब हर व्यक्ति वह गुरुत्वाकर्षण के नियम को भूल जायेंगे तब भी वह नियम स्वतः अस्तित्व में तो रहेगा ही.उसी तरह वेद में दर्शाए गए विचार यह सनातन सत्य हे जो अनादी से अस्तित्व में हे. ऋषियो ने केवल उसको ग्रंथित किया. उसको शब्द दिए. न की उसकी रचना की.और यह नियमों को शाब्दिक रूप देने वाले मंत्रद्रष्टाओ को हम ऋषि कहते हे.लेकिन वह ऋषि उस वेद के कर्ता नहीं हे अपितु केवल मंत्रद्रष्टा हे. और इसी लिए वेद अपौरुषेय हे. उस महान ऋषियो में कुछ तो स्त्री ऋषिका भी थी. यह कहते हुए मुझे गौरव होता हे. हमारे लिए ऋषि इसी लिए पूज्य हे की उन्होंने वह अशाब्दिक नियमों/विचारों/सिद्धांतों को शब्द रूप देकर मानव सभ्यता पर उपकार किया.

[हिंदू धर्म पर निबंध - १९ सितम्बर १८९३ में विश्व धर्म परिषद में यह पढ़ा गया और श्री राम कृष्ण आश्रम, राजकोट. द्वारा "स्वामी विवेकानंद भाषण और लेख" वोल्यूम- ३ नामक पुस्तक पृष्ठ - ६ में प्रकाशित हुआ. ]
 --- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी

प्रकृति के प्रसार और अन्त के साथ परमात्मा की अनुभूति का नाम "वेद" है| यह अनुभूति ईश्वर प्रदत्त है, इसलिये वेद अपौरुषेय कहा जाता है।महापुरुष अपौरुषेय होता है ,उसके माध्यम से परमात्मा ही बोलता है। केवल शब्द ज्ञान के आधार पर उनकी वाणी मे निहित यथार्थ को परखा नही जा सकता।उन्हे वही जान पाता है,जिसने क्रियात्मक पथ से चलकर इस अपौरुषेय(NON-PERSON)) स्थिति को पाया हो ,जिसका पुरुष(अहं) परमात्मा मे विलीन हो चुका हो । वस्तुतः वेद अपौरुषेय है;किन्तु बोलने वाले सौ-डेढ़ सौ महापुरुष ही थे। उन्ही की वाणी का संकलन "वेद" कहलाता है।किन्तु शास्त्र जब लिखने मे आ जाता है,तो सामाजिक व्यवस्था के नियम भी उसके साथ लिख दिये जाते है।महापुरुष के नाम पर जनता उनका भी पालन करने लगती है,जब कि धर्म से उनका दूर का भी सम्बन्ध नही रहता।आधुनिक युग मे मंत्रियों के आगे-पीछे घूमकर साधारण नेता भी अधिकारियों से अपना काम करा लेते है,जब कि मंत्री ऐसे नेताओं को जानते भी नहीं|इसी प्रकार सामाजिक व्यवस्थाकार महापुरुष की ओट मे जीने खाने की व्यवस्था भी ग्रन्थों मे लिपिबध्द कर देते हैं।उनका सामाजिक उपयोग तत्सामयिक ही होता है। वेदों के सम्बन्ध मे भी यही है।उनके चिरन्तन सत्य उपनिषदों मे संग्रहीत होते हैं।उन्ही उपनिषदों का सारांश योगेश्वर श्रीकृष्ण की वाणी गीता है।
सारांशतः गीता अपौरुषेय"वेद"-रसार्णव से समुद्भूत उपनिषद सुधा का सार -सर्वस्व है ।
---- श्री पंकज उपाध्याय 

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