जो बाहर है वह आनंद नहीं है, और जो भीतर है उसे खोजने कहां जाऊं? मैंने तो सब खोज छोड़ कर ही उसे पा लिया है।
मैं एक कथा कहता हूं। उस कथा में ही आपका उत्तर है।
एक दिन संसार के लोग सोकर उठे ही थे कि उन्हें एक अदभुत घोषणा सुनाई पड़ी।
ऐसी घोषणा इसके पूर्व कभी भी नहीं सुनी गई थी। किंतु वह अभूतपूर्व घोषणा
कहां से आ रही है, यह समझ में नहीं आता था। उसके शब्द जरूर स्पष्ट थे। शायद
वे आकाश से आ रहे थे, या यह भी हो सकता है कि अंतस से ही आ रहे हों। उनके
आविर्भाव का स्रोत मनुष्य के समक्ष नहीं था।
‘‘संसार के लोगों,
परमात्मा की ओर से सुखों की निर्मूल्य भेंट! दुखों से मुक्त होने का अचूक
अवसर! आज अर्धरात्रि में, जो भी अपने दुखों से मुक्त होना चाहता है, वह
उन्हें कल्पना की गठरी में बांध कर गांव के बाहर फेंक आवे और लौटते समय वह
जिन सुखों की कामना करता हो, उन्हें उसी गठरी में बांध कर सूर्योदय के
पूर्व घर लौट आवे। उसके दुखों की जगह सुख आ जाएंगे। जो इस अवसर से चूकेगा,
वह सदा के लिए ही चूक जाएगा। यह एक रात्रि के लिए पृथ्वी पर कल्पवृक्ष का
अवतरण है। विश्वास करो और फल लो। विश्वास फलदायी है।’’
सूर्यास्त
तक उस दिन यह घोषणा बार-बार दुहराई गई थी। जैसे-जैसे रात्रि करीब आने लगी,
अविश्वासी भी विश्वासी होने लगे। कौन ऐसा मूढ़ था, जो इस अवसर से चूकता?
फिर कौन ऐसा था जो दुखी नहीं था और कौन ऐसा था, जिसे सुखों की कामना न थी?
सभी अपने दुखों की गठरियां बांधने में लग गए। सभी को एक ही चिंता थी कि कहीं कोई दुख बांधने से छूट न जाए।
आधी रात होते-होते संसार के सभी घर खाली हो गए थे और असंख्य जन चींटियों
की कतारों की भांति अपने-अपने दुखों की गठरियां लिए गांव के बाहर जा रहे
थे। उन्होंने दूर-दूर जाकर अपने दुख फेंके कि कहीं वे पुनः न लौट आवें और
आधी रात बीतने पर वे सब पागलों की भांति जल्दी-जल्दी सुखों को बांधने में
लग गए। सभी जल्दी में थे कि कहीं सुबह न हो जाए और कोई सुख उनकी गठरी में
अनबंधा न रह जाए। सुख तो हैं असंख्य और समय था कितना अल्प? फिर भी किसी तरह
सभी संभव सुखों को बांध कर लोग भागते-भागते सूर्योदय के करीब-करीब
अपने-अपने घरों को लौटे। घर पहुंच कर जो देखा तो स्वयं की ही आंखों पर
विश्वास नहीं आता था! झोपड़ों की जगह गगनचुंबी महल खड़े थे। सब कुछ
स्वर्णिम हो गया था। सुखों की वर्षा हो रही थी। जिसने जो चाहा था, वही उसे
मिल गया था।
यह तो आश्चर्य था ही, लेकिन एक और महाआश्चर्य था! यह
सब पाकर भी लोगों के चेहरों पर कोई आनंद नहीं था। पड़ोसियों का सुख सभी को
दुख दे रहा था। पुराने दुख चले गए थे--लेकिन उनकी जगह बिलकुल ही अभिनव दुख
और चिंताएं साथ में आ गई थीं। दुख बदल गए थे, लेकिन चित्त अब भी वही थे और
इसलिए दुखी थे। संसार नया हो गया था, लेकिन व्यक्ति तो वही थे और इसलिए
वस्तुतः सब कुछ वही था।
एक व्यक्ति जरूर ऐसा था जिसने दुख छोड़ने
और सुख पाने के आमंत्रण को नहीं माना था। वह एक नंगा वृद्ध फकरी था। उसके
पास तो अभाव ही अभाव थे और उसकी नासमझी पर दया खाकर सभी ने उसे चलने को
बहुत समझाया था। जब सम्राट भी स्वयं जा रहे थे तो उस दरिद्र को तो जाना ही
था।
लेकिन उसने हंसते हुए कहा था: ‘‘जो बाहर है वह आनंद नहीं है,
और जो भीतर है उसे खोजने कहां जाऊं? मैंने तो सब खोज छोड़ कर ही उसे पा
लिया है।’’
लोग उसके पागलपन पर हंसे थे और दुखी भी हुए थे।
उन्होंने उसे वज्रमूर्ख ही समझा था। और जब उनके झोपड़े महल हो गए थे और
मणि-माणिक्य कंकड़-पत्थरों की भांति उनके घरों के सामने पड़े थे, तब
उन्होंने फिर उस फकीर को कहा था: ‘‘क्या अब भी अपनी भूल समझ में नहीं आई?’’
लेकिन फकीर फिर हंसा था और बोला था: ‘‘मैं भी यही प्रश्न आप लोगों से
पूछने की सोच रहा था।’’
-ओशो
मिट्टी के दीये
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