हिन्दू धार्मिक मान्यताओं में संपूर्ण प्रकृति शिव का ही स्वरूप मानी गई है। विशेष रूप
से वेद भगवान शिव की विराटता, व्यापकता, शक्तियों और महिमा का रहस्य बताते
हैं। जिसमें शिव को अनादि, अनंत, जगत की हर रचना का कारण, स्थिति और
विनाशक मानकर स्तुति की गई है। वेदों में भी प्रकृति पूजा का ही महत्व व
गुणगान है। इसलिए माना भी गया है कि वेद ही शिव है और शिव ही वेद है। इस
तरह वेद प्रकृति प्रेम के रूप में शिव भक्ति का ज्ञान भी देते हैं।
वैसे शिव शब्द का अर्थ भी कल्याण ही है और व्यावहारिक नजरिए से विचार करें
तो जगत के जीवों का कल्याण प्रकृति से जुड़े बिना संभव नहीं है। प्रकृति
और जगत का मूल पंचतत्व जल, वायु, आकाश, अग्नि, पृथ्वी माने गए हैं। इन
तत्वों में किसी भी रूप और स्तर पर आया दोष संसार के लिए घातक होते हैं।
यही कारण है कि शिव के बिना हर जीव शव के समान भी माना गया है। इसलिए मंगल
की कामना से ही शिव की साकार और निराकार दोनों ही रूप में उपासना का महत्व
भी है।
दूसरी ओर धर्मग्रंथों और पौराणिक मान्यताओं में बताए शिव
के प्रसंगों, शक्ति, स्वरूप, भक्ति और उपासना के उपायों पर विचार करें तो
यह साफ हो जाता है ैकि प्रकृति और शिव एक-दूसरे की ही पर्याय हैं। मसलन
शिव और उनके परिवार के अन्य सदस्यों के वाहनों में चूहे, शेर, सर्प, मयूर,
नंदी कमजोर से लेकर शक्तिशाली और खूबसूरत से लेकर जहरीले जीव प्राकृतिक
शत्रुता के बाद भी कल्याणकारी शिव कृपा से जगत के लिए पूजनीय है। यह
प्रकृति मे रहने वाले जीवों के प्रति प्रेम का संदेश है।
इसी तरह
शिव का निवास कैलास पर्वत, गंगा को जटा में धारण करना, शिव उपासना में
खासतौर पर वनस्पतियों, फूल, पत्तों, जल यहां तक कि नशीले या विषैले
फल-फूलों का चढ़ावा प्रकृति से जुड़ी हर रचना पर्वत, सागर, वन, वृक्ष, जल,
वायु आदि को सहेजने और प्रेम का संदेश है। यहीं नहीं शिव भक्ति का महत्व
सावन माह के उस विशेष काल में है, जबकि वर्षा ऋतु में प्रकृति की सुंदरता
चरम पर होती है।
सार यही है कि मात्र व्यक्तिगत कामनाओं की पूर्ति
से शिव भक्ति के धार्मिक उपायों को अपना लेना ही सच्ची शिव उपासना नहीं,
बल्कि शिव शब्द के ही मूल भाव कल्याण को जीवन में उतारकर नि:स्वार्थ बन
प्रकृति और पर्यावरण की रक्षा द्वारा प्रकृति और प्राणियों के बीच अटूट
संबंध और संतुलन को कायम रखना ही सच्ची शिव भक्ति होगी।
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