ईश्वर
ईश्वर शब्द से सभी परिचित हैं परंतु बहुत कम लोग ही
ईश्वर को समझ पाते हैं। ईश्वर के बारे में आम आदमी की घारणा है कि पूजा
अर्चना करने एवं मंदिर आदि में जाकर प्रसाद एवं चढ़ावा चढ़ाने से ईश्वर उन
पर प्रसन्न हो जाएगा एवं उनकी सभी मनोकामनाएं पूर्ण कर देगा या उन्हें कोई
जादू की छड़ी पकड़ा देगा जिससे वे मालामाल हो जाऐंगे, या उनके सब पाप नष्ट
हो जाएंगे, परंतु यह बिलकुल ही मूर्खतापूर्ण एवं अंध विश्वास से ग्रस्त
धारणा है। ईश्वर न तो कभी किसी से कुछ लेता है न ही कभी किसी को कुछ देता
है, लेना देना पूर्णतः मनुष्य के कर्म के उपर निर्भर करता है। कर्म से ही
मनुष्य जीवन में सुख दुख का अनुभव करता है, कर्म से ही उसके भविष्य का
निर्माण होता है, कर्म से ही उसके वंशानुगत जीन्स का निर्माण होता है एवं
कर्म से ही उसके जन्मों का निर्धारण होता है, इसलिए कहा जाता है कि मनुष्य
स्वयं अपने भविष्य का निर्माता होता है। कहा जाता है कि अमुक स्थान या अमुक
व्यक्ति के पास जाने से मनुष्य की मनोकामनाऐं पूर्ण हो जाती हैं, यह सिर्फ
मनुष्य की श्रद्धा एवं विश्वास पर निर्भर करता है। जब कोई रोगी किसी
डाक्टर के पास इलाज कराने जाता है और यदि डाक्टर को उसका रोग समझ में नहीं
आता तब डाक्टर उसे ऐसी दवा दे देता है जिसमें कोई औषधीय गुण नहीं होता
परंतु इस दवा को खाकर भी मरीज ठीक हो जाता है, अतः शक्ति मनुष्य के श्रद्धा
एवं विश्वास में होती है न कि किसी मूर्ति मंदिर या व्यक्ति विशेष में,
मंदिरों को आध्यात्म की प्राथमिक पाठशाला कहा जाता है जहां हम श्रृद्धा एवं
विश्वास सीखते हैं।
वैज्ञानिक आधार पर ई्श्वर को समझने के लिए हम एक ठोस धातु का
टुकड़ा लेते हैं इसे हम जिस स्थान पर रख देते हैं यह उसी स्थान पर रखा रहता
है जब तक कि इसे उस स्थान से किसी के द्वारा हटाया न जाए या इसमें जब तक
कोई वल न लगाया जाए, अर्थात यह स्वयं कुछ भी नहीं कर सकता। अब हम इस टुकड़े
को इतना गर्म करें कि यह द्रव रूप में बदल जाए अब यह द्रव रूप धरातल के
अनुरूप अपना आकार बदलने में सक्षम हो जाता है अर्थात इसे अब जिस पात्र में
रखा जाए यह उसी के अनुरूप अपना आकर बना लेता है। अब हम इस द्रव रूप को इतना
गर्म करें कि यह वाष्प रूप में बदल जाए यह वाष्प रूप सारे वायुमंडल में
फैलने में सक्षम हो जाता है एवं वायु की गति प्राप्त कर लेता है। इस वाष्प
रूप को और गर्म करने पर इसके परमाणु प्रकाशित हो जाते हैं अब यह प्रकाश,
उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है। ( यहां यह ध्यान रखने योग्य
है कि जलने से परमाणु कभी नष्ट नहीं होता न ही इसकी संरचना बदलती है सिर्फ
यह प्रकाश, उर्जा एवं तरंगों को उत्सर्जित करने लगता है )। अब यह सारे
ब्रह्मांड में फैलने में सक्षम हो जाता है एवं प्रकाश की गति अर्थात तीन
लाख किलोमीटर प्रति सेकेंड की गति प्राप्त कर लेता है तथा कोई भी क्रिया
करने में सक्षम हो जाता है। यह उर्जारूप अपने चरम बिंदु पर पहुंचकर तरंग
रूप में बदल जाता है और अंत में यह तरंग रूप निराकार रूप में बदलता रहता है
इस निराकार रूप को हम ईश्वर कहते हैं। धार्मिक ग्रथों में इसे ईश्वर का
तत्व रूप कहा गया है, गीता के नौवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने स्पष्ट
कहा है कि जो व्यक्ति मेरे तत्व रूप को जान लेता है वही मुझ तक पहुंच पाता
है।
द्रव्य के
तरंग रूप से निराकार रूप में बदलने की क्रिया सिर्फ ब्लेक होल (कृष्ण बिवर)
बन गए सूर्य के केन्द्र में ही होती है अन्य किसी जगह यह क्रिया संभव नहीं
है। ब्लेक होल असीमित घनत्व वाली तरंगों का समूह है यहां सारा सौरमंडल का
द्रव्य तरंग रूप में रहता है यही कारण है कि इनको देखा नहीं जा सकता यहां
गुरुत्वाकर्षण, घनत्व एवं दवाव इतना अधिक होता है कि यह तरंग रूप द्रव्य
शून्य में विलीन होता जाता है या इस प्रकार कह सकते हैं कि इस तरंग रूप
द्रव्य को यहां इतना पीस दिया जाता है कि कुछ भी शेष नहीं बचता। ब्लेक होल
का जीवन काल अनंत होता है क्योंकि ब्रहृाड से जो भी प्रकाश या तरंगें इन तक
पहुंचतीं है उनको ये अपने में समाहित करते जाते हैं यहां से प्रकाश या
तरंगें परावर्तित होकर वापस नहीं लौट सकते अतः इनमें तरंगों को निराकार रूप
में बदलने की प्रक्रिया हमेशा चलती रहती है। कालान्तर में यह ब्लेक होल
पूरी तरह निराकार (ईश्वर) रूप में बदलकर समाप्त हो जाते हैं अर्थात एक सौर
मंडल का अंत हो जाता है या सौर मंडल में स्थित पूरे द्रव्य का विनाश हो
जाता है। आध्यात्म की भाषा में इसे द्रव्य का ब्रह्म में लीन हो जाना कहते
हैं,। इसी आधार पर पूरा ब्रह्मांड ईश्वर में लीन हो जाता है। धार्मिक
ग्रथों में ब्लेक होल को महाकाल ( अर्थात समय का अंत करने वाला ) कहा गया
है। पृथ्वी एवं सौरमंडल का अंत करने वाली शक्ति को शिव कहते है इसके बाद
शिव महाकाल का रूप धारण कर ब्रहृांड का अंत करते हैं ब्रहृांड का अंत होने
पर समय का भी अंत हो जाता है। मनुष्य भी आघ्यात्म के माघ्यम से ज्ञान
प्राप्त कर अपने शरीर में स्थित आत्मा को गुण रहित बनाकर ईश्वर रूप में बदल
सकता है। उपरोक्त आधार पर आध्यात्म या किसी भी धर्म एवं विज्ञान के अनुसार
ईश्वर एक ही है अलग नहीं अतः आध्यात्म एवं विज्ञान एक दूसरे के पूरक हैं
अलग नहीं। चूंकि विज्ञान अभी यह प्रमाणित नहीं कर पाया है कि ब्लेक होल में
क्या क्रिया होती है।
ब्रह्मांड में जो कुछ भी है इस सब को हम द्रव्य कहते हैं, इस द्रव्य को दो भागों में विभक्त किया गया है।
1. जड़ 2. चेतन ।
चेतन स्वतः क्रिया करने में सक्षम होते हैं जबकि जड़
स्वतः क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती
है। जड़ का सबसे छोटा कण परमाणु होता है, एवं चेतन द्रव्य का सबसे छोटा
रूप आत्मा होती हैं। जड़ परमाणु के भीतर ही चेतन रूप स्थित होता है एवं अलग
से स्वतंत्र अवश्था में भी रह सकता है।
इसमें जड़ द्रव्य के तीन रूप होते हैं।
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप।
चेतन द्रव्य के दो रूप होते हैं।
1. उर्जा 2. तरंग,
इस तरह दोनों को मिलाकर द्रव्य के पांच रूप होते हैं।
1. ठोस 2. द्रव 3. वायुरूप 4. उर्जा 5. तरंग।
विज्ञान भी द्रव्य के इन पांच रूपों को प्रमाणित कर चुका है। धार्मिक ग्रथों में इन्हें पंच तत्व क्रमशः
1.पृथ्वी 2.जल, 3.वायु, 4.अग्नि एवं 5.आकाश कहते है।
पृथ्वी का मतलब ठोस, जल का द्रव, वायु का वायु या गैस
रूप, अग्नि का उर्जा एवं आकाश का मतलब कंपन या तरंग होता है। यहां यह
स्पष्ट करना चाहूंगा कि उर्जा सिर्फ अग्नि या अधिक तापमान को ही नहीं कहते
है शक्ति एवं प्रकाश भी उर्जा का रूप है इनका तापमान ऋणात्मक भी हो सकता
है। चूंकि ठोस एवं द्रव शब्द विदेशी भाषा से आए हैं संस्कृत भाषा में
इन्हें पृथ्वी एवं जल कहा जाता है। ब्रहृांड में जहां ठोस रूप मौजूद है
वहां सभी पांच रूप मौजूद होंगे, जहां ठोस नहीं है वहां शेष चार रूप होंगे,
जहां ठोस एवं द्रव नहीं हैं वहां शेष तीन रूप होंगे, जहां ठोस द्रव एवं
वायु नहीं हैं वहां शेष दो रूप होंगे, जहां ठोस द्रव वायु एवं उर्जा रूप
नहीं हैं वहां सिर्फ एक रूप ही होगा और जहां ये पांचों रूप नहीं हैं वहां
सिर्फ ईश्वर होगा। गृह एवं उपगृहों पर द्रव्य पांच या कुछ गृहों पर ठोस को
छोड़कर चार रूपों में पाया जाता है, सूर्य एवं तारों में द्रव्य उर्जा एवं
तरंग रूप में पाया जाता है, एवं ब्लेकहोल में द्रव्य सिर्फ तरंग रूप में
रहता है। ईश्वर सहित द्रव्य का प्रत्येक रूप स्वतंत्र अवश्था में भी रह
सकता है। हम एक समय में द्रव्य के एक रूप को ही देख सकते हैं इसके शेष चार
रूप इसमें छिपे होते हैं एवं अनुकूल वातावरण मिलने पर प्रगट हो जाते हैं।
जब द्रव्य ठोस रूप में होता है तब हम इसके द्रव, वायु, उर्जा एवं तरंग रूप
को नहीं देख सकते जब अन्य रूप में होता है तब शेष चार रूप नहीं देख सकते।
द्रव्य चाहे किसी भी रूप में रहे एक समय में इसके अंदर सूक्ष्म रूप से
पांचों रूप रहते हैं तथा प्रत्येक रूप में उस तत्व के गुण मौजूद रहते हैं,
जैसे सोना उपरोक्त पांच रूपों में से किसी भी रूप में रहे प्रत्येक रूप में
सोने के गुण मौजूद रहेंगे इसी आधार पर वैज्ञानिक प्रकाश के वर्ण विन्यास
से यह पता कर लेते हैं कि प्रकाश किस तत्व से निकल रहा है इसी कारण आगे आने
वाली पीड़ी में वंशानुगत गुण मौजूद रहते हैं। निराकार अर्थात ईश्वर रूप
में बदलने के बाद द्रव्य के सभी गुण नष्ट हो जाते हैं ईश्वर किसी भी तत्व
के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न ही किसी क्रिया में भाग लेता है।
द्रव्य जितने सूक्ष्म रूप में बदलता जाता है उतना ही अधिक शक्तिशाली एवं
क्रियाशील होता जाता है द्रव्य का तरंग रूप सबसे अधिक शक्तिशाली एवं
क्रियाशील होता है होम्योपैथिक दवाएं इसी सिद्धांत पर काम करतीं है इनमें
द्रव्य के तरंग रूप का प्रयोग किया जाता है। तरंग रूप ही सभी भौतिक,
रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक क्रियाओं का माध्यम होता है एवं इसका प्रभाव
स्थाई होता है। विद्युत तरंगों से सभी परिचित हैं ये हमें दिखाई नहीं
देतीं परंतु तार को छूने से पता चल जाता है कि इनमें कितनी शक्ति है, जब तक
द्रव्य में तरंग उत्पन्न न हो तब तक किसी भी प्रकार की क्रिया संभव नहीं
है।
आज विज्ञान ने
कुछ स्थूल तरंगों जैसे ध्वनि तरंग, विद्युत चुंबकीय तरंग, प्रकाश एवं
विद्युत तरंगों पर नियंत्रण प्राप्त कर दुनिया का नक्शा ही बदल दिया है
इन्हीं के कारण आज मनुष्य रेडियो टेलीविजन इंटरनेट टेलीफोन फोटोग्राफी
विद्युत जैसी सैकड़ों सुविधाओं का उपयोग कर बड़े से बड़े कार्य कर लेता
है। आध्यात्म में मन एवं आत्मा को सबसे सूक्ष्म तरंग कहा गया है इन पर
नियंत्रण प्राप्त कर ब्रहृांड की सभी शक्तियों को प्राप्त किया जा सकता है
हमारे पूर्वज मन पर नियंत्रण प्राप्त कर इनका प्रयोग करना जानते थे,
धार्मिक ग्रन्थों में ऐसे हजारों उदाहरण मिलते हैं। मन पर नियंत्रण प्राप्त
कर उपरोक्त सभी कार्य मात्र तरंग विज्ञान की शक्ति से किए जा सकते हैं
जिन्हें करने के लिए विज्ञान को कीमती यंत्रों की आवश्यकता होती है।
धार्मिक ग्रंथों में आकाश मार्ग अर्थात तरंगों के माध्यम से यात्रा करने के
भी उदाहरण मिलते हैं, विज्ञान भी आने वाले समय में यह तकनीक विकसित कर
लेगा। नैनो तकनीक के आने बाद तरंग विज्ञान और विकसित हो जाएगा।
उपरोक्त आधार पर ईश्वर को सर्व शक्तिमान माना गया है,
क्योंकि यह तरंग से भी सूक्ष्म अर्थात निराकार रूप है। धार्मिक ग्रथों के
अनुसार जो मा़त्र इच्छा शक्ति से उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में सक्षम है
उसे ईश्वर कहते है। अंग्रेजी में ईश्वर को गॉड कहते हैं यहां भी ‘जी‘ का
मतलब जनरेशन अर्थात उत्पत्ति ‘ओ‘ का मतलब आपरेशन अर्थात पालन एवं ‘डी‘ का
मतलब डिस्ट्राय अर्थात अंत, इस प्रकार जो उत्पत्ति पालन एवं अंत करने में
सक्षम है उसे गॉड कहते हैं अतः दोनों भाषाओं में ईश्वर की परिभाषा एक ही
है। ईश्वर सर्वव्यापी है क्योंकि यह द्रव्य के प्रत्येक सूक्ष्मतम कण में
भी आधार के रूप में उपस्थित रहता है अर्थात ब्रह्मांड में ऐसी कोई जगह नहीं
जहां ईश्वर न हो या हम इस प्रकार भी कह सकते हैं कि ईश्वर ही ब्रह्मांड
है एवं ब्रह्मांड ही ईश्वर है। इस धरती पर या आसमान में हम जो कुछ भी देखते
हैं वह ईश्वर ही हमें विभिन्न रूपों में दिखाई देता है या ब्रह्मांड में
जड़ एवं चेतन के रूप में हम जो कुछ भी देखते हैं इन सब का मूल रूप ईश्वर ही
है। यदि हम ईश्वर से श्रृद्धा रखते हैं तब सभी जड़ एवं चेतन को ईश्वर का
रूप मानते हुए श्रृद्धा पूर्वक व्यवहार करना होगा। ईश्वर निर्लिप्त एवं
निर्विकार है क्योंकि यह किसी भी तत्व के कोई भी गुणों को धारण नहीं करता न
ही किसी प्रकार की क्रिया में भाग लेता है। धार्मिक ग्रन्थों में ईश्वर
को द्रव्य का रूप न मानकर द्रव्य को ईश्वर का रूप माना गया है एवं ईश्वर को
स्वतंत्र एवं निरपेक्ष माना गया है क्योंकि सब कुछ इसी से उत्पन्न होता है
एवं इसी में लीन हो जाता है। गुणों को धारण करने वाली प्रत्येक चीज साकार
एवं नश्वर होती है, चाहे वह कितनी ही सूक्ष्म क्यों न हो सिर्फ ईश्वर ही
निराकार अमर एवं अजन्मा है। ईश्वर ने संसार की रचना कुछ इस प्रकार की है कि
यहां क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया होती रहती है एवं प्रतिक्रिया से
परिणाम प्राप्त होते रहते हैं इसमें ईश्वर को कुछ भी नहीं करना होता वह तो
हर जगह द्रष्टा एवं आधार के रूप में उपस्थित रहता है। चूंकि हम सूक्ष्म
क्रियाओं को देख नहीं सकते परंतु हम अपने जीवन चक्र से इसे समझ सकते हैं।
प्राणी (सजीव) जगत को हम तीन भागों में बांट सकते हैं
पहला प्राणी जगत दूसरा वनस्पिति जगत तीसरा कीट जगत। इसमें वनस्पिति जगत जो
त्याग करता है ( फल फूल औषधि आक्सीजन आदि के रूप में) उससे प्राणी जगत एवं
कीट जगत का पोषण होता है, प्राणी जगत जो त्याग करता है (मल मूत्र कार्वन
डाईआक्साइड आदि) इससे कीट जगत एवं वनस्पिति जगत का पोषण होता है एवं कीट
जगत खाद आदि के रूप में जो त्याग करता है उससे वनस्पिति जगत एवं प्राणी जगत
का पोषण होता है। अतः तीनों आपस में एक दूसरे का अस्तित्व बनाए रखते हैं
एवं कोई भी चीज कचरा या प्रदूषण के रूप में शेष नहीं रहती। इसी प्रकार जल
एवं वायु चक्र भी अपना काम करते रहते है। आज विज्ञान के माध्यम से जिन खनिज
तत्वों का उपयोग किया जाता है उनसे निकले अवशेषों को बिना मूल रूप में
बदले पृथ्वी जल एवं वायुमंडल में छोड़ दिया जाता है जो कि हमारी पृथ्वी जल
एवं वायु को प्रदूषित करते रहते हैं जो कि सभी के अस्तित्व के लिए खतरा है,
खनिज तत्वों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल प्रदूषित होता है
जबकि वनस्पतियों एवं इनके उत्पादों को जलाने से वायुमंडल शुद्ध होता है इसी
कारण धार्मिक गंरथों में यज्ञ को आवश्यक एवं महत्वपूर्ण माना गया है। यज्ञ
से निकली सूक्ष्म तरंगें वायुमंडल की प्रक्रिया में सुधार कर आवश्यक
तत्वों की पूर्ति करतीं है यह तरंगें भी होम्योपैथी के सिद्धांत पर ही काम
करती हैं। आज अज्ञान के कारण मनुष्य प्राणियों वनस्पतिओं को अपनी स्वार्थ
पूर्ति के लिए नष्ट करता रहता है परंतु वह यह नही समझ पाता है कि इनको नष्ट
करके वह अपने अस्तित्व को भी विनाश की ओर ले जा रहा है।
हम ईश्वर को गणित की संखया शून्य से भी समझ सकते हैं,
गणित में शून्य एक ऐसी संखया है जिसके बिना गणित की कल्पना करना संभव नहीं
इसमें अकेले शून्य का कोई महत्व नहीं होता परंतु यह किसी संखया के साथ
कितनी भी बड़ी संखया का निर्माण कर सकता है। शून्य में चाहे कितने भी शून्य
का जोड़ धटाना गुणा भाग कुछ भी किया जाय परिणाम हमेशा शून्य ही आता है इसी
प्रकार निराकार (ईश्वर) में चाहे कितने भी निराकार मिल जाएं यह हमेशा
निराकार ही रहेगा। इसी आघार पर सारा ब्रह्मांड निराकार अर्थात शून्य में
विलीन हो जाता है एवं सिर्फ एक ईश्वर शेष बच जाता है जिसमें निराकार रूप
में पूरा ब्रह्मांड स्थित होता है। यहां एक का मतलब संख्या से नहीं है, जिस
प्रकार वायु एक होते हुए सारे वायुमंडल में व्याप्त है इसी प्रकार ईश्वर
सारे ब्रह्द्मांड में व्याप्त है। ईश्वर के निराकार अर्थात मूल रूप को कभी
देखा नहीं जा सकता न ही किसी ने देखा है न ही कोई किसी भी साधन द्वारा कभी
देख सकेगा क्योंकि वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है। इसके अलावा किसी भी
रूप में ईश्वर के दरशन किए जा सकते हैं। इस आधार पर यह प्रश्न उठ सकता है
कि जब वह भौतिक रूप से उपस्थित नहीं है तब ईश्वर को मानने की क्या
आवश्यकता, इसकी व्याखया भी धर्मिक ग्रथों में उपलव्ध है। इस संसार का लगभग
चालीस प्रतिशत भाग ही हम देख पाते हैं बाकी साठ प्रतिशत भाग हम नहीं देख
सकते। हम द्रव्य के ठोस द्रव एवं उर्जा रूप को देख सकते है (उर्जा रूप का
भी एक भाग प्रकाश या अग्नि को ही देख पाते हैं) परंतु वायु एवं तरंग रूप को
हम नहीं देख सकते इसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। इसी प्रकार ईश्वर के
मूल रूप को हमारी भौतिक आखों से नहीं देखा जा सकता इसे सिर्फ ज्ञान के
द्वारा ही जाना जा सकता है। ईशावास्योपनिषद् के प्रथम श्लोक में ईश्वर का
वर्णन इस प्रकार किया गया है।
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवाशिष्यते।।
अर्थ:-
ईश्वर सब प्रकार से सदा सर्वथा परिपूर्ण है, यह जगत भी उस ईश्वर से पूर्ण
ही है क्योंकि यह पूर्ण (जगत) उस पूर्ण पुरुसोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है,
इस प्रकार ईश्वर की पूर्णता से जगत पूर्ण होने पर भी वह (ईश्वर) पूर्ण है,
उस (ईश्वर) पूर्ण में से इस (जगत) पूर्ण को निकाल देने पर भी वह (ईश्वर)
पूर्ण ही बच जाता है।
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