आत्मा
आत्मा द्रव्य का प्रथम साकार कण है यह ईश्वर के चारों
ओर प्रभामंडल के रूप में स्थित होता है हम इसे द्रव्य का सबसे छोटा रूप कह
सकते है यह द्रव्य का तरंग रूप होता है। इसका आकार पखिर्तनीय होता है यह
द्रव्य के सभी गुणों को घारण कर सकती है एवं छोड़ भी सकती है जब यह गुणों
को छोड़ देती है तब निराकार अथवा ईश्वर रूप में बदल जाती है एवं जब गुणों
को घारण करती है तब संसार की रचना करती है गुणों को घारण करने एवं छोड़ने
के कारण ही इसका आकार बदलता रहता है एक बार निराकार रूप में बदल जाने के
बाद इसका पुनर्जन्म नहीं होता, आध्यात्म की भाषा में इसे मोक्ष कहते हैं,
परंतु यह काम आत्मा स्वयं नहीं कर सकती इसके लिए यह मन के उपर निर्भर है।
आत्मा सिर्फ क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करती है एवं प्रतिक्रिया से
परिणाम प्राप्त होता है। ब्रह्मांड में जड़ या चेतन जो कुछ भी है उन सभी का
मूल आधार आत्मा है यह परमाणु के भीतर स्थित छोटे से छोटे कण में भी आधार
के रूप मे स्थित रहती है। यदि हम परमाणु को एक पानी से भरा घड़ा मान लें तब
आत्मा का आकार इसकी एक बूंद के बराबर होगा परमाणु का आकार इतना छोटा होता
है कि एक सुई की नोंक पर हजारों परमाणुओं को रखा जा सकता है परमाणु किसी
तत्व का सबसे छोटा कण है जबकि आत्मा द्रव्य का सबसे सूक्ष्म रूप है इससे
सूक्ष्म ब्रह्मांड में कुछ भी नहीं है इसके बाद सिर्फ ईश्वर है जो कि
निराकार है। आत्मा तब तक अमर रहती है जब तक कि हमारा सौर मंडल है सौरमंडल
का अंत होने पर इसका भी अंत हो जाता है। आत्मा जब तक जीवित रहती है तब तक
यह हमेशा सौर मंडल में इधर से उधर भटकती ही रहती है अर्थात एक तत्व से
दूसरे तत्व में एक प्राणी से दूसरे प्राणी में भटकती ही रहती है एवं हर जगह
इसे क्रिया के विपरीत प्रतिक्रिया करनी ही होती है इस प्रकार अनंत काल तक
इसे कभी आराम नहीं मिलता है इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए ईश्वर ने आत्मा
को मोक्ष की सुविधा प्रदान की है जो कि यह मनुष्य के माध्यम से ही प्राप्त
कर सकती है। आत्मा की प्रतिक्रिया निश्चित होती है इसमें कोई अपवाद नहीं
होते, जैसे हम किसी पत्थर पर चोट मारें तो प्रतिक्रिया स्वरूप पत्थर टूटेगा
इसके अलावा और कोई क्रिया नहीं हो सकती यह द्रव्य के सभी भौतिक,
रासायनिक, जैविक एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाओं के लिए जबावदार होती है
क्रिया हमेशा बाहरी आवरण से शुरु होती है तभी आत्मा प्रतिक्रिया करती है
अर्थात जब कही से पत्थर को चोट मारी जायगी तभी यह टूटेगा अपने आप नहीं,
अर्थात आत्मा स्वयं कोई क्रिया नहीं करती, इसी प्रकार मनुष्य द्वारा किए गए
कर्म रहन सहन खानपान एवं उसके विचारों की शरीर में प्रतिक्रिया के आधार पर
ही वह अपने जीवन में सुख दुख भोगता एवं अपने भविष्य का निर्माण करता है।
धार्मिक ग्रंथों में द्रव्य के गुणों को देवी देवता एवं
राक्षस कहा गया है सद्गुणों को देवी देवता एवं दुर्गुणों को राक्षस कहा गया
है। इनकी संख्या 33 करोड़ बताई गई है यह सभी गुण आत्मा में स्थित होते हैं
ये आत्मा में बीज रूप में स्थित होते हैं जिस प्रकार एक छोटे से बीज में
विशालकाय वृक्ष स्थित होता है ठीक इसी तरह आत्मा में गुण स्थित होते हैं
एवं परिस्थिति के अनुसार उसी प्रकार के गुण क्रियाशील हो जाते हैं। यदि हम
किसी वृक्ष के बीज को जमीन में दवाकर उसे खाद पानी आदि देते हैं तो वह उसी
प्रकार के वृक्ष के रूप में बढ़ने लगता है ठीक इसी प्रकार मनुष्य अपनी
ज्ञानेद्रियों के माध्यम से जो देखता सुनता एवं समझता है वह वैसा ही बनता
जाता है मनुष्य जिस प्रकार के कार्य करता है उसी प्रकार के गुणों की वृद्धि
उसमें होती जाती है जिस प्रकार कि खाद पानी देने से एक वृक्ष वृद्धि करता
रहता है अर्थात किसी भी कार्य में दक्षता प्राप्त करने के लिए निरंतर
अभ्यास जरूरी होता है। यदि हम वृक्ष के बीज को जला दें तब फिर चाहे इसको
कितना ही खाद पानी दिया जाय यह बीज वृक्ष उतपन्ऩ नहीं कर सकता इसी प्रकार
आत्मा में स्थित गुणों को यदि नष्ट कर दिया जाए तो कितना भी साधन उपलब्ध
होने पर मनुष्य में उसके उपभोग की इच्छा जागृत नहीं होगी। धर्म या आध्यात्म
का यही मूल उद्देश्य है, इन गुणों को कैसे नष्ट किया जाय इसे दूसरे भाग
में समझेंगे। जिस प्रकार एक बीज से वृक्ष उतपन्न किया जा सकता है उसी
प्रकार आत्मा से जड़ या चेतन किसी को भी उतपन्न किया जा सकता है क्योंकि यह
सबका मूल बीज है परंतु इसके लिए सही वैज्ञानिक प्रकिया एवं आवश्यक
परिस्थिति पैदा करने का ज्ञान होना आवश्यक है विज्ञान अभी आत्मा को देख भी
नहीं सका है नेनो तकनीक के विकसित होने के बाद शायद विज्ञान आत्मा तक पहुंच
जाएगा अभी विज्ञान द्वारा क्लोन पद्यति से जीवों को उतपन्न करने का प्रयास
किया जा रहा है जिसमें विकृतियां होना संभव है। रामायण महाभारत एवं गीता
में अलग अलग विधियों द्वारा मनुष्य को पैदा करने के उदाहरण मिलते हैं राम
एवं सीता इसके प्रमुख उदाहरण हैं राम को कृत्रिम विधि द्वारा माता के
गर्भाशय से पैदा किया गया था जबकि सीता को माता के गर्भाशय के बाहर ही पैदा
किया गया था।
आत्मा में तीन
गुण प्रमुख हैं पहला उत्पत्ति से संबंधित अर्थात ब्रहृा दूसरा पालन से
संबंधित अर्थात विष्णु तीसरा अंत से संबंधित अर्थात शिव यह तीनों गुण आत्मा
में हमेशा उपस्थित रहते हैं चाहे वह आत्मा कहीं भी हो, क्योंकि ब्रहृांड
में उत्पन्न होने वाली प्रत्येक वस्तु इन तीन चरणों से गुजरती है, इनमें
प्रत्येक की करोड़ों शाखाऐं होती है। ईश्वर ने सर्वप्रथम आत्मा को ब्रह्मा
अर्थात उतपत्ति के गुण सहित उत्पन्न किया फिर ब्रह्मा द्वारा अपनी ऋणात्मक
शक्ति जिसे धार्मिक ग्रंथों में सावित्री कहा गया है को उत्पन्न किया
इन्हें ब्रह्मा की पुत्री एवं पत्नि के रूप में जाना जाता है, पुत्री इसलिए
कहा जाता है क्योंकि ब्रह्मा ने स्वयं इसे उतपन्न किया पत्नि इसलिए कहा
जाता है क्योंकि इनके संयोग से ही विष्णु शिव एवं इनकी ऋणात्मक शक्तियां
लक्ष्मी एवं पार्वती सहित करोड़ों देवी देवताओं (गुणों) को उत्पन्न कर
संसार की रचना की। आदिकाल में हमारे ऋषि मुनियों द्वारा द्रव्य के गुणों को
जो नाम दिए एवं शरीर में इनकी क्रियाप्रणाली एवं गुणों की व्याखया के आधार
पर जो चित्र बनाए वे प्रायः मनुष्य की आकृति से मिलते जुलते दिखते हैं
इससे यह समझा जाने लगा कि देवता मनुष्य की आकृति जैसे कोई अदृश्य प्राणी
हैं जो हमें दिखाई नहीं देते परंतु यह बिलकुल ही गलत धारणा है। हम इन देवी
देवताओं की जो आकृतियां देखते हैं ये हमारे शरीर में इनकी क्रिया प्रणाली
एवं गुणों की व्याखया के आधार पर बनाई गई हैं इस प्रकार की आकृति वाला कहीं
कोई होता नहीं है न ही इनके माता पिता होते हैं, महर्षि महेश योगी द्वारा
इन देवताओं की संपूर्ण वैज्ञानिकव्याख्या की गई है। श्री राम और श्रीकृष्ण
को भी हिन्दू धर्म में देवता के रूप में पूजा जाता है परंतु इनका जन्म
मनुष्य रूप में हुआ था अतः ये इतिहास पुरुष एवं धर्म संस्थापक हैं जबकि
ब्रहृा विष्णु एवं शिव सहित लाखों देवी देवता विशेष गुणों के नाम हैं। जैसा
कि पहिले लिखा जा चुका है कि देवता आत्मा में स्थित होते हैं एवं आत्मा
हमारे शरीर में स्थित है अतः सभी देवता एवं राक्षस भी हमारे शरीर में ही
स्थित हैं। मनुष्य में जैसे भी देवत्व के या राक्षसी गुण उभरे होते हैं वह
उसी प्रकार सज्जनता या दुष्टता का व्यवहार करता है। इसी कारण धार्मिक
ग्रंथों में देवी देवताओं की आराधना का विघान है, हम जिस देवता की आराधना
करते हैं उस देवता से संबंधित गुणों की वृद्धि हमारे शरीर में होने लगती है
परंतु हमें इसकी सही विधि ज्ञात होना आवश्यक है सिर्फ भौतिक रूप से पूजा
करने का कोई महत्व नहीं है क्योंकि यह मानसिक प्रक्रिया है। चूंकि प्रत्येक
उपासना के साथ पूजन की विधि जुड़ी होती है जिसका उद्देश्य साधना या उपासना
के लिए वातावरण को अनुकूल बनाने का होता है इसी प्रकार राक्षसी शक्तियों
को प्राप्त करने के लिए राक्षसों की भी साधना एवं उपासना की जाती है। किसी
की भी उपासना के लिए सही विधि एवं उस देवी देवता के गुणों की व्याख्या एवं
क्रिया प्रणाली का ज्ञान होना आवश्यक है अन्यथा बिना जानकारी के कोई भी
उपासना करने से धर्मान्धता या विक्षिप्तावश्था उतपन्न होती है, इसके लिए
योग्य गुरु का होना आवश्यक है।
आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहा गया है
अर्थात आत्मा सभी जड़ एवं चेतन के जीवन की इकाई है, आध्यात्म की भाषा में
जीवन उसे कहते हैं जिसका उतपत्ति एवं अंत होता है ब्रह्मांड में ईश्वर को
छोड़कर ऐसी कोई भी वस्तु नहीं है जिसका उतपत्ति या अंत न होता हो अतः
ब्रह्मांड में हर जगह जीवन मौजूद है, क्योंकि जीवन की इकाई आत्मा है और वह
प्रत्येक छोटे से छोटे कण में भी मौजूद है। विज्ञान शायद चलते फिरते
प्राणियों को ही जीवन मानती है जो कि बिलकुल गलत है क्योंकि प्राणी भी
द्रव्य के इन छोटे छोटे कणों अर्थात जड़ परमाणुओं से बने हुए हैं मनुष्य को
यह हमेशा याद रखना चाहिए कि द्रव्य ने मनुष्य को पैदा किया है मनुष्य ने
द्रव्य को नहीं, ज्ञान द्रव्य अर्थात आत्मा में होता है मनुष्य में नहीं,
मनुष्य इस ज्ञान को व्यक्त करने का सिर्फ एक माध्यम मात्र है, आत्मा में
स्थित इस ज्ञान को प्राप्त करने का एक निश्चित तरीका होता है जिसका वर्णन
दूसरे भाग में करेंगे मनुष्य एवं सौर मंडल का अंत हो जाने पर भी कभी ज्ञान
का अंत नहीं होता क्योंकि ज्ञान की उतपत्ति ईश्वर से होती है।
आध्यात्म में आत्मा को जीव एवं ज्ञान भी कहते हैं, एवं
प्राण के माध्यम से स्वतः क्रिया करने एवं वंश वृद्धि करने वालों को प्राणी
कहते हैं इसमें मनुष्य सहित सभी प्राणी जगत कीट जगत शामिल है वनस्पति जगत
भी प्राण के माध्यम से ही वंशवृद्धि एवं क्रिया करता है परंतु प्राणी जगत
एवं वनस्पति जगत की क्रिया प्रणाली में थोड़ा अन्तर होता है। जड़ वस्तुओं
में मन प्राण ज्ञानेन्द्रियां एवं कर्मेन्द्रियां नहीं होती जबकि प्राणियों
में ये चारों चीजें होतीं हैं प्राण द्रव्य का उर्जा रूप है इसकी क्रिया
प्रणाली के संबंध में आगे बताऐंगे। चेतन उसे कहते हैं जो स्वयं क्रिया करने
में सक्षम होते हैं तथा जड़ स्वयं कोई क्रिया नहीं कर सकते इन्हें क्रिया
करने हेतु उर्जा की आवश्यकता होती है। द्रव्य ठोस रूप से उर्जा एवं तरंग
रूप में बदलने पर चेतन हो जाता है ये दोनों रूप कोई भी क्रिया करने में
सक्षम होते हैं।
मनुष्य सहित सभी प्राणियों का शरीर द्रव्य के पांच रूपों ठोस, द्रव,
वायु, उर्जा और तरंग से बना होता है जिन्हें धार्मिक ग्रथों में पंच तत्व
पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि एवं आकाश कहा गया है ये पांचों रूप प्राणियों में
अपने निम्नतम एवं उच्चतम स्तर के साथ क्रियाशील अवश्था में मौजूद होते हैं।
जड़ पदार्थ ठोस, द्रव या वायु रूप में से किसी एक रूप में ही होते हैं एवं
यह रूप एक ही स्तर का होता है एवं निष्क्रिय अवश्था में होता है या हम कह
सकते हैं कि इनमें क्रिया की गति बहुत धीमी होती है इनमें सैकड़ों वर्षों
बाद कुछ पखिर्तन दिखाई देता है प्रत्येक वस्तु को क्रिया करने हेतु उर्जा
की आवश्यकता होती है प्राणियों में स्थित उर्जा को हम प्राण कहते हैं।
हमारे शरीर में ईश्वर निराकार रूप है, आत्मा और मन तरंग रूप है, प्राण
उर्जा रूप है, आक्सीजन अन्य गैस आदि वायु रूप हैं, रक्त रस जल आदि द्रव रूप
हैं, मांस हड्डी आदि ठोस रूप हैं। इस प्रकार हमारा शरीर द्रव्य के पांच
रूपों से बना हुआ है और जब तक हमारे शरीर में प्राण रहते हैं तब तक ये
पांचों रूप क्रियाशील बने रहते हैं।
किसी तत्व का परमाणु कई गुणों का समूह होता है यह गुण
परमाणु में स्थित हजारों आत्माओं से उत्सर्जित होते हैं इन गुणों को
निश्क्रिय एवं क्रियाशील कर एक तत्व के परमाणु को दूसरे तत्व के परमाणु में
बिना संलयन एवं विखंडन किए बदला जा सकता है हमारे पूर्वज इस क्रिया
प्रणाली को जानते थे। पृथ्वी पर विज्ञान ने अब तक लगभग 101 तत्वों की खोज
की है यह सभी तत्व हमारी पृथ्वी एवं वायुमंडल में पाए जाते हैं पृथ्वी के
गर्भ में दबे इन तत्वों को पृथ्वी वनस्पतियों के माध्यम से उपर भेजती रहती
है जो फल फूल, अन्न, जल, वायु एवं औषधियों के माध्यम से हमारे शरीर में
पहुंचते हैं। इन सभी तत्वों के परमाणुओं के मेल से हमारा शरीर बना हुआ है
अर्थात हमारे शरीर का एक एक कण इस घरती का अंश है एवं प्राण सूर्य का अंश
है, अतः धरती सबकी मूल माता एवं सूर्य सबके मूल पिता हैं। मनुष्य को हमेशा
याद रखना चाहिए कि धरती ही हमें भौतिक सुख सुविधा सहित जीवन जीने के लिए
भोजन, हवा, पानी आदि सभी आवश्यक चीजें उपलब्घ कराती है अतः धरती की रक्षा
करना मनुष्य का पहला कर्तव्य है। सभी तत्व हमारे शरीर में संतुलित अवश्था
में मौजूद होते हैं इन्हें हम हवा पानी व भोजन के माध्यम से प्राप्त करते
हैं। शरीर के भीतर ये तत्व पाचन के माध्यम से द्रव, वायु, उर्जा और तरंग
रूप में बदलकर हमारे स्वास्थ मन एवं बुद्धि पर प्रभाव डालते हैं इनकी कमी
या अधिकता का हमारे स्वास्थ पर तुरंत प्रभाव पड़ता है इनकी कमी या अधिकता
से हम बीमार होने लगते हैं बीमार होने पर औषधि के रूप में इन तत्वों को
लेकर इनकी कमी या अधिकता को दूर कर हम स्वस्थ हो जाते हैं। प्रत्येक तत्व
का शरीर के अलग अलग भाग पर प्रभाव होता है जैसे सोना बुद्धि पर असर करता है
इसकी कमी से मनुष्य निराशा या डिप्रेशन का शिकार हो जाता है भय एवं निराशा
के कारण यह बीमारी उत्पन्न होती है मनुष्य में सबसे अधिक मृत्यु का भय
होता है परंतु जब निराशा बढ़कर मृत्यु भय को गौड़ कर देती है तब मनुष्य
आत्महत्या कर लेता है। इस बीमारी का इलाज एलोपेथी आर्युवेद या होम्योपेथी
आदि किसी भी पद्यति से किया जाय बीमारी को दूर करने के लिए सोने से निर्मित
दवा का ही प्रयोग किया जाएगा। तीनों पद्यति में दवा एक ही होगी परंतु दवा
बनाने के तरीके एवं शरीर में इनके द्वारा क्रिया करने के तरीके अलग अलग
होते हैं। इसी प्रकार प्रत्येक तत्व हमारे शरीर के विभिन्न भागों पर प्रभाव
डालते हैं। शरीर की सामान्य क्रियाप्रणाली में बदलाव आ जाने को हम असाध्य
रोग कहते हैं इन्हें दवाओं से ठीक नहीं किया जा सकता, संसार में अत्याधिक
आसक्ति, तृष्णा अपनी परस्थिति से संतुष्ट न रहना, राग द्वेष, चिंता, भय आदि
असाध्य रोगों के मुखय कारण हैं विज्ञान खान पान एवं जीवन शैली को असाध्य
रोगों का प्रमुख कारण मानती है परंतु खान पान एवं जीवन शैली से कोई खास
फर्क नहीं पड़ता, फर्क पड़ता है मनुष्य की विकृत मानसिकता और उसके विचारों
से, क्योंकि आधुनिक जीवन शैली एवं शिक्षा पद्यति मनुष्य की मानसिकता को
विकृत कर रही है। जो व्यक्ति संसार में जितना अधिक आसक्त होगा वह उतनी ही
जल्दी असाध्य रोगों का शिकार हो जाता है फिर भले ही उसका खानपान सात्विक हो
एवं व्यक्ति निर्व्यसन हो। जो व्यक्ति संसार मे आसक्त नहीं है उन्हें कोई
असाघ्य रोग नही होते फिर भले ही उनका खानपान एवं जीवन शैली सात्विक न हो।
(संसार में आसक्ति का मतलब होता है कि, प्रकृति, वनस्पिति, जीव जन्तु, एवं
मानवीय संबंधों की अपेक्षा स्वार्थ, भौतिक सुख सुविधा, धन एवं संपत्ति को
ज्यादा महत्व देना।)
हमारा शरीर विभिन्न माध्यमों से द्रव्य के पांचों रूप ग्रहण करता है
जैसे भोजन के माध्यम से ठोस रूप, पेय एवं जल के माध्यम से द्रव रूप, श्वांस
के माध्यम से वायु रूप, सूर्य के माध्यम से उर्जारूप एवं ज्ञान के माध्यम
से तरंग रूप को ग्रहण करता है। इसमे ज्ञान अर्थात तरंग रूप सबसे महत्वपूर्ण
होता है क्योंकि यही मनुष्य के जीवन पर स्थाई प्रभाव डालता है वह जैसा
ज्ञान प्राप्त करता है वैसा ही बनता जाता है। प्रथम चार रूपों को ग्रहण
करने के लिए हमारे शरीर में तीन ही अवयय होते हैं अर्थात मुंह, नाक एवं
त्वचा परंतु तरंग रूप अर्थात ज्ञान को ग्रहण करने के लिए हमारे शरीर में
पांच अवयय होते हैं जिन्हें हम ज्ञानेद्रियां कहते हैं।
ईश्वर द्वारा 33 करोड़ गुणों को 84 लाख योनियों में
विभक्त किया गया है जिसके अनुसार एक गुणसूत्र से लेकर संपूर्ण अर्थात 33
करोड़ गुणसूत्र तक के प्राणी उत्पन्न किए हैं। ( पहली योनि में एक गुणसूत्र
होगा एवं दूसरी योनि में तीन गुण सूत्र होंगे अर्थात दूसरी योनि के दो
गुणसूत्र एवं पहली योनि का एक, इसी प्रकार तीसरी योनि में छः गुण सूत्र
होंगें अर्थात तीसरी योनि के स्वयं के तीन एवं पिछली योनियों के तीन ) इस
तरह 33 करोड़ गुणसूत्र को चौरासी लाख योनियों में बांटा गया है। मनुष्य
संपूर्ण गुणसूत्र वाला प्राणी है इसकी उतपत्ति सबसे अंत में हुई। प्रत्येक
प्राणी की निकटतम प्रजाति होती है मनुष्य की निकटतम प्रजाति बानर है परंतु
बानर कभी विकास करके मनुष्य नहीं बन सकता क्योंकि जो प्राणी जितने गुणसूत्र
वाला है वह उतने ही गुणसूत्र वाली संतान उतपन्न कर सकता है कम या अधिक गुण
सूत्र वाली नहीं हम यह अवश्य कह सकते हैं कि बानर के बाद पृथ्वी पर मनुष्य
की उतपत्ति हुई अर्थात मनुष्य की उतपत्ति सबसे अंत में हुई। मनुष्य के
अलावा ईश्वर के द्वारा उतपन्न किए गए सभी प्राणी ईश्वर द्वारा निश्चित कर्म
ही कर सकते हैं जबकि मनुष्य सभी कर्म करने हेतु स्वतंत्र है। मनुष्य को
छोड़कर सभी प्राणियों की योनि कर्म प्रधान होती है जबकि मनुष्य की योनि
ज्ञान प्रधान होती है। प्रकृति के संतुलन को बनाए रखने के लिए ईश्वर द्वारा
मनुष्य को छोड़कर सभी प्राणियों को निश्चित कर्म सौंपे गए हैं एवं ज्ञान
के माध्यम से इन सबकी रक्षा करना मनुष्य का कार्य है।
पृथ्वी के केन्द्र से सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को
चौदह भागों में बांटा गया है इन्हें लोक कहते हैं इनमें तीन लोक प्रमुख
हैं।
1. मृत्यु लोक 2. स्वर्ग लोक 3. नर्क।
पृथ्वी की सतह से जहां तक आक्सीजन है उतनी दूरी को
मृत्यु लोक कहते हैं इसके बाद सूर्य के केन्द्र तक की दूरी को स्वर्ग लोक
कहते हैं इसके बीच में भी पितृ लोक जन लोक तप लोक मह लोक आदि होते हैं,
पृथ्वी की सतह से पृथ्वी के भीतर केन्द्र तक की दूरी को नर्क कहते हैं इनके
भी कई स्तर होते हैं।
धार्मिक ग्रन्थों के अनुसार हमारे शरीर में आत्मा का आयतन शरीर की
तुलना में अंगूंठे के बरावर होता है (यदि शरीर में स्थित सभी आत्माओं को
एकत्रित किया जाय तब इनका आयतन शरीर की तुलना में अंगूठे के बरावर होगा)
आत्मा प्रत्येक सूक्ष्मतम कण के केन्द्र में आधार के रूप में उपस्थित रहती
है अर्थात यह हमारे पूरे शरीर में व्याप्त है, यह शरीर के बाहर भी कुछ
दूरी तक प्रभामंडल के रूप में रहती है । मृत्यु के समय प्राण के साथ कुछ
स्वतंत्र आत्माऐं शरीर से बाहर निकल जाती हैं ये आत्माऐं ही कहीं अन्य जन्म
लेती हैं। मृत शरीर में भी आत्मा होती है परंतु यह उसी प्रकार रहती है
जिस प्रकार कि एक जड़ पदार्थ में। समान गुण वाली आत्माऐं हमेशा समूह में
रहती हैं। मृत्यु के समय जो आत्माएं शरीर से बाहर जातीं हैं यह कहां जाऐंगी
इस बात पर निर्भर करता है कि उनका घनत्व (भार) कितना कम या अधिक है, कम
घनत्व वाली आत्माऐं हमेशा उपर (स्वर्ग) की ओर जातीं हैं एवं अधिक घनत्व
वाली आत्माऐं हमेशा नीचे (नर्क) की ओर जातीं है ठीक उसी प्रकार जिस प्रकार
कि हल्की गैस उपर की ओर जाती है एवं भारी गैस नीचे की ओर। मनुष्य के शरीर
में आत्मा का घनत्व कम या ज्यादा होना इस बात पर निर्भर करता है कि वह अपने
जीवन में संसार में कितना अधिक आसक्त रहा एवं कितनी इच्छाओं को लेकर उसकी
मृत्यु हुई। मृत्युलोक में भटकने वाली आत्माऐं ही दूसरा जन्म लेतीं हैं
इसके उपर या नीचे रहने वाली आत्माऐं तब तक दूसरा जन्म नहीं ले सकती जब तक
कि वह अपने घनत्व को कम या अधिक कर मृत्यु लोक में न आ जाएं। मृत्यु लोक
में रहने वाली आत्माएं किस योनि में जाएंगी यह मनुष्य जीवन में किए गए कर्म
के उपर निर्भर करता है।
यहां यह प्रश्न उठ सकता है कि जब आत्मा प्रत्येक सूक्ष्म से
सूक्ष्म कण में स्थित है इस प्रकार मुत्यु लोक या अन्य किसी भी जगह इसकी
कोई कमी नहीं है फिर प्राणियों की आत्माएं ही क्यों जन्म लेतीं हैं कोई
अन्य आत्मा क्यों नहीं। चूंकि मुत्यु के समय प्राणियों के शरीर से बाहर
जाने वाली आत्माएं ही स्वतंत्र अवश्था में विचरण करतीं हैं, बाकी आत्माएं
द्रव्य के किसी न किसी तत्व के परमाणु या अन्य कणों में आधार के रूप में
स्थित होतीं हैं ये इनसे बाहर नहीं निकल सकतीं, इसी प्रकार मृत शरीर में जो
आत्माएं होती हैं वे भी किसी न किसी तत्व के कण का हिस्सा होतीं हैं एवं
उससे बाहर कहीं नहीं जा सकतीं। तत्व के कणों में स्थित आत्माएं हवा भोजन
एवं पानी के माध्यम से हमारे शरीर में पहुंचती रहती हैं एवं पाचन के माध्यम
से द्रव्य के सूक्ष्म रूपों में विभक्त होकर स्वतंत्र अवश्था में भी पहुंच
जातीं है।
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