नारायण । आप महामाक्य श्रवण करते है - " अहं ब्रह्मास्मि " ।
यदि हम इतना ही बोलेँ कि " अहं ब्रह्मास्मि " तो यह महावाक्य हुआ कि नहीँ
हुआ ? नहीँ हुआ । अहं अस्मि अर्थात् मैँ हूँ । तो भगवन् , " मैँ हूँ " यह
बात चीँटीको मालुम है कि नहीँ ? मच्छर को मालुम है कि नही ? नारायण , कोई
छुता है तो क्योँ भागता है , कोई उड़ाता है तो क्योँ उड़ता है ? " मैँ हूँ "
यस बात तो माथे के बालमेँ ( केशमेँ ) जो जुँए होती है उसे भी मालूम है ,
मच्छरको भी मालूम है , पागलको भी मालूम है , बेवकुफको मालूम है - " मैँ हूँ
" यह तो सबको मालूम है । " अहं अस्मि " - यह वाक्य है कि नहीँ ? कि वाक्य
तो है " यह मैँ हूँ " । अगर आपको इतनेसे ही संतोष हो जाये कि " मैँ हूँ "
तो आपको यह कहना पड़ेगा कि जन्म होते हुए भी आप हैँ , मरण होते हुए भी आप
हैँ । राग - द्वेष करते हुए भी आप हैँ।
" वेदान्त " यह नहीँ कहता है कि
" मैँ हूँ " । यह वेदान्त - महावाक्य - जन्य अनुभवका उल्लेख नहीँ है।
हमारे दिलमेँ यह अगर हो गया कि " मैँ हूँ " तो वेदान्त बोध हो गया ऐसा
समझना गलत है । महावाक्य बोलता है - " अहं ब्रह्म अस्मि " । अब देखेँ ,
इसमेँ एक बात और आ गयी , " मैँ ब्रह्म हूँ " । कि आपका नाम एक तो पहले था "
मैँ " और अब दूसरा नाम रख रहे हैँ - " ब्रह्म " , तो यह दूसरा नाम काहे को
रख रहे हैँ " ब्रह्म " पहले तो ब्रह्म शब्दका अर्थ समझ ले मेरे - भाई ।
यदि " ब्रह्म " शब्दका अर्थ नहीँ समझेँगे तो - " मैँ का ब्रह्म समझना "
व्यर्थ हो जायेगा ।
" ब्रह्म " शब्दका अर्थ - सत्य , ज्ञान , अनन्त "
सत्य ज्ञानमनन्तं ब्रह्म " - यह ब्रह्म शब्दका अर्थ होता है । ब्रह्म किसे
कहते है ? कि जो सत्य होवे अथात् जिसको कभी , कहीँ , कोई , किसी भी
वस्तुमेँ " ना " ना बोल सके , उसका नाम हुआ सत्य , कभी अर्थात् किसी कालमेँ
, कहीँ अर्थात् किसी स्थानमेँ , किसी अवस्थामेँ , कोई भी मनुष्य चाहे "
आस्तिक " हो चाहे " नास्तिक " , चाहे वैदिक हो चाहे अवैदिक किसी भी
प्रकारसे ना न कर सके , न समाधिसे , न विवेकसे , न उपासना से जिसे ना न कर
सके , उसका नाम सत्य है । सत्य अर्थात् अबाध्य जिसके मिथ्यात्वका निश्चय न
हो सके उसको सत्य बोलते है ।
" ज्ञान " का अर्थ है जो स्वयं प्रकाश है
- सत्य होवे और जड़ होवे तो बोले कि नहीँ चैतन्य होना चाहिए। चैतन्य होवे
और बाधित होवे , क्षणिक होवे तो ? कि नहीँ वह भी नही होना चाहिए , सत्य
होना चाहिए।
" अनन्तं " अर्थात् देश - काल - वस्तुसे अपरिच्छन्न , परिपूर्ण , अविनाशी , अद्वय - ऐसी वस्तुका नाम " ब्रह्म " है ।
" अस्मि " कि जिसको आप मैं बोल रहे हैँ सो और जिसको आप ब्रह्म समझ रहे हो सो , " वह दोनोँ दो नहीँ एक है " , नारायण !
उपासकोँने इसमेँ क्या झगड़ा लगाया कि यह " महावाक्य " तो है - ही - है , (
परन्तु इसका अर्थ दूसरा है ) कि जैसे " शालग्राम " कि शिला या " नर्मदा -
शिला ( नर्मदेश्वर - शिला ) शंकर देखनेमेँ तो छोटे से हैँ या गोल - मटोल
हैँ या लम्बे हैँ परन्तु वे नारायण है अथवा शिव हैँ तो यह हम शास्त्र -
जन्य प्रज्ञासे श्रीशालग्रामजी मेँ " नारायणत्व " और नर्मदा - शिला (
नर्मदेश्वरजी ) मेँ " श्रीशिवत्व " आरोपित करके उपासना करते हैँ , वैसे ही "
अहं " मैँ मेँ " ब्रह्मत्व " का आरोप करके उपासनाकी जाती है कि " मैँ
ब्रह्म हूँ " ! पहले " अहं " को जाने , ब्रह्मको जाने , अहं मेँ
ब्रह्मत्वका आरोप करेँ और फिर अहं मेँ ब्रह्मकी उपासना करेँ । उपासक
लोगोँने कहा कि यह भी एक वैसी उपासना है कैसी ? कि जैसी देखनेमेँ गोल -
मटोल शालग्राम - शिला या लम्बी - लम्बी - सी नर्मदा शिला - वह जड़ है , वह
पाषाण है , वह अल्पदेश . अल्पकाल और अल्प - रूपमेँ है लेकिन जैसे उसमेँ
ईश्वरत्वका आरोप करके हम उसकी उपासना करते हैँ वैसे ही यह अपना " मै " भी
देह देशमेँ है , अमुक कालमेँ वर्तमान कालमेँ है - ऐसे समझेँ और अहं - अहं -
अहं जो शब्द है इसके अर्थ - रूपमेँ है , तो जैसे शालग्राम - शिलामेँ
ब्रह्म बुद्धि करते हैँ , उपासना करते हैँ वैसे ही इस नन्हे - मुन्ने " अहं
" मेँ भी ब्रह्म - बुद्धि करके इसकी उपासना करनी चाहिए । " अहं
ब्रह्मास्मि " जो है वह क्या है कि उपासनाका ही अंग यह वाक्य ही है । यह
बात उपासक लोग कहते हैँ - नाम नहीँ लेते हैँ क्योँकि आचार्योँका नाम लेनेसे
फिर बहुतोँका नाम लेना पड़ेगा और बहुतोँका नाम लेने से क्या फायदा ?
उपासकोँके मतमेँ जैसे " इदं " मेँ ब्रह्म - बुद्धि आरोपित है वैसे ही अहं
मेँ भी ब्रह्म - बुद्धि आरोपित है । अद्वैत - वेदान्ती कहते हैँ कि इदंमेँ
जो ब्रह्म - बुद्धि है वह तो आरोपित है और अहंमेँ जो ब्रह्मबुद्धि है वह
वास्तविक है क्योँकि इदं पदका जो भी अर्थ होता है वह अहं के आश्रित होता
है ।
अद्वैत - वेदान्ती कहते हैँ कि इदंमेँ जो ब्रह्म - बुद्धि है वह
तो आरोपित है और अहंमेँ जो ब्रह्मबुद्धि है वह वास्तविक है क्योँकी इदं
पदका जो भी अर्थ होता है वहं अहं के आश्रित होता है । यह कैसे होता है कि ,
आप जब किसीको " यह " बोलेँगे जैसे यह घड़ी तो " मैँ " होगा तब यह घड़ी
बोलेँगे - यह घड़ी मालूम तब पड़ेगी जब " अहं " होगा - अहं के बिना " इदं " की
उपलब्धि नहीँ होती । इसलिए एक व्यक्ति वस्तुओँमेँ जो सुषुप्ति कालमेँ
भासती नहीँ ऐसी " शालग्राम " - शिलामेँ या ऐसी " नर्मदा " - शिलामेँ जो
ब्रह्म बुद्धि है वह तो अहंकी अपेक्षासे दृश्यमान पदार्थमेँ आरोपित ब्रह्म
- बुद्धि है , क्योँकि वह एक देशमेँ है , एक कालमेँ है , एक द्रव्यके
रूपमेँ है और अहंके आश्रित है - पहले अहं वृत्ति भासे तब इदं वृत्ति भासती
है । इदं - वृत्ति , अहं - वृत्तिपूर्वक होती है । तो अहंवृतिके आश्रित
होने से इदं मेँ जो ब्रह्म - वुद्धि है वह तो आरोपित है लेकिन अहंमेँ जो
ब्रह्म - बुद्धि है वह वास्तविक है । कि वह कैसे अहं तो शरीर है ? वस बोले
यही गलती है , अहं माने शरीर नहीँ - " य एष सुप्तेषु जागर्ति स अहं " जो
जाग्रत अवस्था न होनेपर भी , सुषुप्ति अवस्थामेँ रहकर सुषुप्तिको प्रकाशता
है , उसका नाम अहं है , अहं माने द्रष्टा , स्वं ज्योति जो जाग्रत -
अवस्थामेँ पाप - पूण्य कमा सकता है , वह कमाऊ बेटा विश्व जो स्वप्नावस्थाकी
प्रयोगशालामेँ सारी सृष्टिका " मॉडल " तैयार कर सकता है वह प्रयोगशालामेँ
विद्यमान तैजस - तैजस्वी - सारी सृष्टिके निर्माणमेँ समर्थ , तेजस कहेँ या
स्वयं ज्योति कहेँ उसमेँ कोई फर्क नहीँ है भला , और जो प्रज्ञाका घनीभाव
होनेपर उसके लीन हो जानेपर भी सुषुप्तिमेँ जो जागता है सो , ऐसा जो
जाग्रतमेँ विश्व , स्वप्नमेँ तैजस और सुषुप्तिमेँ प्राज्ञ संज्ञा धारण करता
है और वस्तुतः तीनो अवस्थाओँमेँ एक होनेसे तीनोँसे न्यारा है। ऐसा है यह "
मै " । यह मै आत्मा है ।
अब एक दूसरी बात - जाग्रतमेँ स्वप्न -
सुषुप्ती नहीँ , स्वप्नमेँ जाग्रत सुषुप्ती नहीँ और सुषुप्तीमेँ जाग्रत -
स्वप्न नहीँ और आत्मा तीनोँ मेँ विद्यमान । तो जाग्रत - देश , जाग्रत -
काल , जाग्रत - द्रव्य तीनोँसे जो न्यारा है , स्वप्न - देश , स्वप्नकाल ,
स्वप्न - द्रव्य - तीनोँसे जोरा है , और और सुषुप्तीमेँ धनीभूत देश ,
घनीभूत - काल , और घनीभूत द्रव्य जो कि दृष्टीमेँ , वृत्तिमेँ लीन हो गये
है उनमेँ अलीन जो आत्मवस्तु है वह असलमेँ वस्तुतः देश - काल - वस्तुसे
अपरिच्छिन्न है और ब्रह्म भी देश - काल वस्तुसे अपरिछिन्न है । यह " मैँ "
स्वयं प्रकाश है और ब्रह्म भी स्वयं प्रकाश है और मैँ परम - प्यारा है और
अनन्तता भी परम प्यारी है कि इसलिए वस्तुतः द्रष्टा ब्रह्म ही है - हम
द्रष्टाको ब्रह्म नहीँ जानते , " यही अज्ञान है " ।
द्रष्टा ब्रह्म है
तो दुनिया है , एक दुनिया है जिसका द्रष्टा मै , तो मैँ तो हो गया ब्रह्म
और जिसका मैँ द्रष्टा था उस दुनियाका क्या हुआ ? वही कष्ट देती है । दृश्य
अर्थात् देह और कुछ नही समझेँ , दृश्य माने हाथी - घोड़ा नहीँ , दृश्य माने
देह ( काय ) - बारम्बार द्रष्टा देहसे एक होकर , सूक्ष्म देहसे एक होकर
स्थूल - देहसे एक होकर अपनेको परिच्छिन्न देखता है और सृष्टिको अपने से
न्यारी देखता है । यदि द्रष्टा अपनेको द्रष्टा जाने तो दृश्य उससे न्यारा
हो ही नहीँ सकता ।
" येन यत् दृश्ते तत् ततः पृथक न भवति " ।
" येन
यत् सिद्धयति येन यत् दृश्यते " - अर्थात् जिस वस्तुकी सिद्धि होती है
माने जिसके रहनेपर जो चीज मालूम पड़े वह चीज उससे जुदा नहीँ होती यह
वेदान्त - शास्त्र का नियम है एक । क्या नियम है - रोशनी रहे तब तो लाल और
पीलेका भेद मालूम पड़े और रोशनी न रहे तो लाल और पीलेका भेद न मालूम पड़े ,
इसलिए लालपना और पीलापना रोशनी ही है , यह बात ध्यान मेँ आयी न । लाल और
पीला कब मालूम पड़ेगा कि जब रोशनी होगी और रोशनी नहीँ होगी तो लाल - पीलेका
भेद नहीँ होगा , इसलिए लाल और पीला दोनो रोशनी से जुदा नहीँ है , रोशनी ही
है ।
यह राम है और यह श्याम है - दोनोँका दो नाम है - एकका नाम राम और
एकका नाम श्याम ! परन्तु शब्द है , ध्वनी है तब तो राम शब्द है और श्याम
शब्द है और यदि ध्वनि नहीँ है तौ न राम शब्द है और न श्याम शब्द है , इसलिए
राम शब्द और श्याम शब्द दोनो ध्वनिसे भिन्न नहीँ है - यह नियम देखेँ- "
येन विना यत् न दृश्यते , येन विना यन् न सिद्धयति तत् तेन स्व साधकेन
स्वप्रकाशकेन पृथङ् न भवति ।
अब देखे , सम्पूर्ण दृश्य प्रपञ्च
द्रष्टाके बिना दिख ही नहीँ सकता । इसलिए द्रष्टासे भिन्न दृश्य नहीँ है । "
यत् कार्य तत् कारणात् न भिद्यते " - दूसरा नियम लेँ जो कार्य होता है वह
अपने कारण - द्रव्यसे पृथक नहीँ होता । " यथा मृदो घटः " - जैसे मिट्टी से
घड़ा । मिट्टी कारण - द्रव्य है और घट कार्य द्रव्य है , द्रव्य तो दोनोँ
मिट्टी है - एक जगह शकल बनी हुई है घड़ेकी और एक जगह नहीँ बनी हुई है इतना
ही भेद है । शकल जो है वह मिट्टीमेँ आरोपित है , आकृति जो है वह मिट्टीमेँ
आरोपित है - मिट्टीके बिना घड़ेकी आकृति किसमेँ बनायु जाये ? इसलिए मिट्टीसे
भिन्न घड़ा नहीँ है , तो कारणसे कार्य भिन्न नहीँ होता ।
नारायण । अब
देखेँ ; जिस सर्व परमात्माने अपने स्वरूप मेँ अपने संकल्पसे स्वप्नवत् इस
सृष्टिकी रचना की है , उस ईश्वरसे ( परमात्मा ) अलग यह सृष्टि नहीँ है । और
जो द्रष्टा अपनी दृष्टिसे इस सृष्टिको देख रहा है , उस द्रष्टासे भिन्न यह
सृष्टि नहीँ है । यह तो बाबा , बड़ा टेढ़ा हुआ कि द्रष्टासे भिन्न भिन्न भी
यह सृष्टि नहीँ है और ईश्वर , परमेश्वर , परमात्मासे भिन्न भी सृष्टि नहीँ
है । देखेँ , द्रष्टाको द्रष्टा आप बोलते हो परिच्छिन्न " अहं " की उपाधि
से युक्त करके , और ईश्वरको ईश्वर आप बोलते हो कारणकी उपाधिसे चैतन्यको
युक्त करके इसलिए परिच्छिन्न अहमर्थको और पूर्ण अहमर्थको , सर्वज्ञको ,
ईश्वरको जीव पदका अर्थ और ईश्वर - पदका अर्थ दोनोँको व्यवहारमेँ रहने देँ ।
जैसे द्रष्टाके बिना दृश्यकी सिद्धि नहीँ हो सकती वैसे ईश्वरके बिना भी
दृश्यकी सिद्ध नहीँ हो सकती । जो दृश्य - सृष्टिका कारण है , जो दृश्य -
सृष्टिका द्रष्टा है वो दोनोँ एक है जुदा - जुदा नहीँ है - कारणत्व
उपलक्षित चैतन्य और प्रमातृत्व उपलक्षित चैतन्य हमारे शरीरके भीतर जो
जानकार है उस जानकारसे जिस चैतन्यको सूचना होती है और सारी सृष्टिमेँ जो
सर्वज्ञ - सर्वशक्तिमान चैतन्यकी सूचना होती है उन दोनोँमेँ एक ही चैतन्य
ब्रह्म है । माने ईश्वर असलमेँ ब्रह्म है और हमारा " अहं " असलमेँ ब्रह्म
है और ब्रह्मसे भिन्न सृष्टि नहीँ है इसलिए मुझसे भिन्न सृष्टि नहीँ है ।
ऐसे बोलेँ कि सब ईश्वर है , सब मैँ हूँ , सब ब्रह्म है , " सर्वम ब्रह्मेति
" और चूँकि मैँ ब्रह्म हूँ इसलिए मेरे अतिरक्त सृष्टि नहीँ है । " यह
वेदान्तका डिण्डिम घोष " है ।
आप जल्दी मानो या न मानो यह आप जिसको
अपना दुश्मन समझते हो वह भी आप ही हैँ । मानले सपनेमेँ आपको अपना एक दुश्मन
मिल जाये और आपसे खुब गुथ्थम - गुथ्थी हो जाये और दोनो - दोनोपर तलबार
चला दे और दोनोँ के शरीरसे खुन बहने लगे तो आपका शत्रु कौन है ? आपही है न ।
यह जो घायल हुआ वह भी और जिसने घायल किया वह भी , आपका मैँ ही शत्रु और
मैँ के - रूपमेँ प्रकाशित हो रहा है । और वह तलबारके रूपमेँ कोन है ? आपका
मैँ है ।
नारायण । अध्यात्म - विद्या क्या कोई साधारण वस्तु है ? यह
जिसको आप महाराष्ट्री और गुजराती समझते हैँ , जिसको आप हिन्दू और मुसलमान
समझते हैँ , भारतीय और पाकिस्तानी समझते है . जिसको युरोपीय और ऐशियाई
समझते हैँ और जिसको मंगल - ग्रहका , शुक्र - ग्रहका और चन्द्रमा - ग्रहका
और अपने पृथिवी - ग्रहका अलग - अलग समझते है , जिसको ब्रह्मलोकका और नरकका
समझते हैँ वह ब्रह्मलोकके रूपमेँ आपही प्रकाशित हो रहे हो । नरक के रूपमेँ
आपही प्रकाशित हो रहे हो अनन्तकोटी ब्रह्माण्डके रूपमेँ आपही प्रकाशित हो
रहे हो , आप । जब इस देहकी ओर से उठना होता है तब यह साधना की जाती है कि
मैँ देह से न्यारा हूँ और जब अपने " मैँ " को ब्रह्मके साथ मिला दिया जाता
है तब स्पष्टम्- स्पष्टम् मालूम होता पड़ता है कि सब " मैँ " हूँ । जड़ा अपने
मैँ को , ब्रह्मसे मिलाकर के तो देखें!
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