" अग्निर्यत्राभिमथ्यते वायुर्यत्राधिरुध्यते ।
सोमो यत्रातिरिच्यते तत्र संजायते मनः ।। "
( श्वेताश्वतरोपनिषद् )
" अग्निर्यत्राभिमथ्यते " - नारायण । यह जब हम जुबानसे शब्द बोलते हैँ तो
भीतरसे जब अग्निमंथन होता है तब यह बाणी बोलती है । पहले बुद्धसे क्या कहना
है यह बात बिल्कुल पक्की हो जाती है , फिर बुद्धि मनको आज्ञा देती है कि
अब तुम बोलो , और फिर मन जो है सो शरीरमेँ जो गर्मी है उसको खोल देता है ,
उससे वायु प्रेरित होता है और वायु जब शरीरमेँ प्राण - संचार करता है तब
वही जीभको हिलाता है और उससे बाणीकी उत्पत्ति होती है । नारायण , अगर हम
घड़ीसे यदि कहेँ कि बोलो , तो हमारे कहनेसे घड़ी तो बोलती नहीँ है और
ग्रामोफोनसे कहेँ कि बोलो , तो हमारे कहने से वह नही बोलता है , उसको चलाना
पड़ता है , परन्तु यह जीभ जो है , यह हमारे मनमेँ जैसे ही बात आती है कि यह
बोले और यह बोल पड़ती है । यह बाणीके मूलमेँ जो उष्णता है , गर्मी है ,
जिससे यह जीभ संचालित होती है वह अग्नि कहाँ रहती है ? वह गर्मी कहाँ है
जिस गर्मीके संचालित होनेपर हमारी जीभ बोलती है ? नारायण , "
अग्निर्यत्राभिमथ्यते " - जहाँ अग्निका मन्थन होता है बहाँ अपने मनको ले
चलेँ ।
बोले - भाई कि अभी ठीक पता नही चला कि वह कौन - सी जगह है जहाँ
ध्यान करना चाहिए । बोले कि जीभमेँ जो बोलनेकी शक्ति आती है वह कहाँ से आती
है , इसकी खोज करो ! जहाँसे मनमेँ बोलने की शक्ति आती है वहाँ ध्यान करो
कि उस शक्तिको जाननेवाला कौन है ? वह जो उस शक्तिको जाननेवाली इच्छा है उस
इच्छाको जगानेवाला कौन है ?
कहाँ ध्यान करेँ इस विषयमेँ दूसरी बात
हमारे मन्त्रद्रष्टा बताते है - " वायुर्यत्राधिरुध्यते " । नारायण , यह जो
हम साँस लेते हैँ न , तो वह कौन - सी जगह है जहाँ जाकर वायु रुक जाती है ,
और निचे नही जाती है , और लौटकर उपर आ जाती है ? वह कौन - जगह है जहाँसे
प्राण - वायु और अपानवायुका भेद हो जाता है ? अपानवायु नीचेसे निकलती है और
प्राणवायु उपरसे आती है । नीचे वाली वायु जो है वह उपरके रास्ते नही
निकलती कहीँ एक जगह ऐसी लकीर खीँची हुई है , एक ऐसा विन्दु है जहाँसे ऊपर
साँस चलती है और जहाँसे नीचे अपानवायु जाती है और दोनोँ यदि एक हो जायेँ तो
आदमी मर जाता है । मनुष्यको जीवन - दान करनेके लिए प्राण और अपान - वायुका
भेद एक स्थानपर बैठा हुआ है । नारायण , " कठोपनिषद् " मेँ इस बातको ऐसे
कहा गया है -
" उर्ध्वँ प्राणंमुन्नयत्यपानं प्रत्यगस्याति ।
मध्ये वाममासीनं विश्वेदेवा उपासते ।। "
प्राणको तो उपर फेँक देता है और अपानवायुको नीचे फेक देता है और दोनोँके
बीचमेँ बैठा हुआ है " वामन " । नारायण , वामन भगवान् का नाम तो जग जानता है
" नन्हा - सा ईश्वर बैठा हुआ है वहाँ " । उस नन्हेको जबतक हम अपनी बलि
नहीँ दे देते - बलिदान नहीँ कर देते - तबतक तो वह नन्हा - मुन्ना वावन बनकर
बैठा रहता है , और जब बलिदान हो जाता है तब वह विराट् हो जाता है - ऐसा
वामन है जो ब्रह्म हो जाता है । जबतक हम अपने अन्नमय , प्राणमय , मनोमय ,
विज्ञानमय , आनन्दमय कोष - को उसके प्रति अर्पित नही किया , जबतक हम तीन -
पाद अर्पित नही करेँगे - तीन - पाद अर्पित करना पड़ता है , चतुर्थ - पाद वह
स्वयं है । स्थूल -शरीर प्रथम् पाद , सूक्ष्म - शरीर द्वितीय पाद और कारण -
शरीर तो नारायण , अविद्यात्मक ही है , पाद - वाद नहीँ है , वह तो तुरीयके -
ज्यान - मात्रसे ही पहचान लने मात्रसे ही तृतीय पाद मिट जाता है और चतुर्थ
- पादकी प्राप्ती होती है । नारायण , यह " वामनमे " जो मन है , वा + मन =
मन । यह मनकी उपाधिसे ही ब्रह वामन बना हुआ है , अगर मनकी उपाधि न हो तो
ब्रह्म वामन न हो । वह कहाँ बैठा हुआ है ? कि प्राण और अपानकी सन्धिमेँ ।
जहाँसे बाणीको प्रेरणा मिलती है यानि अग्नि - मंथन होता है और जहाँ प्राण
और अपानका पृथक्करण होता है , नारायण , वहाँ ध्यान करेँ ।
" सोमो
यत्रातिरिच्यते " - सोमो = सोमरस - चन्द्रमा - परमात्माकी आह्लादिनी शक्ति ,
मनका अधिदेवता । मनका जो अधिदेवता है उसको चन्द्र बोलते हैँ , यही चाँदनी
है , यही चन्द्रिका है , यही सोम है जिसको शिवजी अपने सिरपर धारण करते हैँ ।
इसको हृदयमेँ नही धारण करते , इसको सिरपर धारण करते हैँ । शिवजी ने इस
मनको हृदय - से उठाकर अपने सिरपर धारण कर लिया । क्योँकि वहाँ भगवान् के
चरणका जो धोवन गंगाजी है उसको जटामेँ रखते है । अपने हृदयस्थ मनको निकाल कर
वहीँ लगाते है , वहीँ रखते हैँ । सोम माने सोमरस - जहाँ स्वाद आता है ,
जहाँ आनन्दकी अनुभूति होती है । " अग्निर्यत्राभिमथ्यते " का अर्थ है कि
वाक् का प्रयोग मत करो , मौन हो जाओ और जहाँसे वाणीको प्रेरणा मिलती है उस
अभिमन्थनके स्थानपर चलेँ और , " वायुर्यत्राधिरुध्यते " का अर्थ है नारायण ,
प्राण और अपानवायुके चक्करमेँ न पड़कर इनकी अपेक्षा कर देँ , यानि इनको
मन्द हो जाने देँ ।
" प्राणापानौ समौ कृत्वा नासाभ्यन्तरचारिणौ । "
प्राण - अपानकी गतिको मन्द हो जाने दे और वाक् मेँ , जीभमेँ बिलकुल मत
आयेँ यानि शब्दकी कल्पना मत करे , किसी भी शब्दका आधार मत लेँ और " सोमो
यत्रातिरिच्यते " सोमरसका अनुभव करे , आनन्द ले , वहाँ परमात्माकी अनुभूति
करेँ ।
--- सर्वज्ञ शङ्कर
सोमरस का पान करा दिया मित्र! प्रणाम स्वीकारें!
ReplyDelete