Monday, August 13, 2012

ग्रन्थ पूजा के गुण एवँ दोष

"पुस्तकों से लाभ की अपेक्षा हानि अधिक हुई है ये पुस्तकें के भ्रमात्मक सिद्धांतों के लिए उत्तरदायी हैं ..भिन्न भिन्न मत पुस्तकों से ही निकलते हैं और पुस्तकों पर ही दुनिया के धार्मिक अत्याचारों की की जिम्मेदारी भी है , आधुनिक काल मे ये ग्रन्थ सर्वत्र मिथ्यावादीयों को उत्पन्न कर रहे हैं . प्रत्येक देश मे असत्यावादियों की जो संख्या फैली है , उसे देख कर तो मै अवाक् रह जाता हूँ "
................स्वामी विवेकानन्द ( पुस्तक 'प्रेम योग' से )


दो शब्दों से सनातनी भली भाँति परिचित हैं ..प्रतीक एवँ प्रतिमा
एक प्रश्न उत्पन्न होता है क्या प्रतीको ( जिसका अर्थ होता है 'ओर आना ' या 'समीप पहुचना' ) की पूजा हमें मोक्ष या मुक्ति प्रदान कर सकती है ?
( यह प्रश्न इस वजह से उठा क्योकि ९९% संभावना इस बात की हमेशा रहती है कि हम सारा जीवन इन्ही प्रतीकों से ही चिपके ना रह जाएँ )
मंदिर जाना बहुत ही श्रेष्ठ बात है परन्तु कोई बचपन से मंदिर जाने वाला जिस प्रकार बचपन मे मंदिर जाता था और जो उपलब्धि रखता था ..वह अपनी वृद्धावस्था मे भी उसी प्रकार मंदिर जाता है और उसकी आध्यात्मिक उपलब्धियों मे वृद्धि नहीं हुई ..
तो ऐसे मे यह स्पष्ट हो जाना चाहिए सभी के लिए कि प्रतीक उस परम तत्व के समीप ले जाने वाले हैं ..और एक अवस्था विशेष मे छूटने भी वाले हैं .अगर यह उस प्रतीक से नहीं हो पा रहा है तो जरूर प्रतीकोपासना मे प्रतीक के साथ साथ जिन और बातों की आवश्यकता है (जिसका सम्बन्ध चेतन के साथ है) उसका अभाव है ...और उसपर विचार अत्यंत आवश्यक है

मात्र ग्रन्थ पूजा के दोष :
ग्रन्थ पूजा इसी प्रतीक का एक जबरदस्त बल्कि सबसे बढ़कर नमूना है .प्रत्येक देश मे / धर्म मे / सम्प्रदाय मे हम देखते हैं कि ग्रन्थ ने ईश्वर का स्थान ले रखा है ..भारत देश मे ऐसे सम्प्रदाय हैं , जिनका विश्वास है कि ईश्वर अवतार लेकर मनुष्य बनता है , पर ईश्वर को भी अवतारी पुरुष बनकर वेदों के अनुसार ही चलना चाहिए .अगर इनके उपदेश वेदों से असंगत हैं तो उन उपदेशों को नहीं मानेगे . बौद्धों के अतिरिक्त अन्य सम्प्रदाय वाले भी बुद्ध की पूजा करते हैं पर यदि उन से कहा जाए कि आप उनके उपदेशों को क्यों नहीं मानते तो उत्तर मिलेगा कि वो वेदों को नहीं मानते थे . कोई लाख अपने समझ की प्रमाणिकता दे नहीं माना जायेगा पर अगर किसी तरह तोड़ मरोड़ कर दिखा दे कि वह वेदों मे है तो सहर्ष मान लिया जायेगा .और मूर्ख झुण्ड के झुण्ड बना कर पीछे पर जायेंगे . और यह नहीं समझ पायेंगे कि वह उन्हें मूर्ख बना रहा है अपनी स्वार्थ पूर्ती के लिए .
यह श्रेष्ठ बात है कि नयी बातों को पुरानी ( शास्वत कहना ज्यादा योग्य है ) लीको के पास ही जाकर कसने की कोशिश की जाती है ...यह हिकमत तो अच्छी है पर नीति बुरी है .
छान्दोग्योपनिषद ( ६-२-१) मे आया है 'सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं'
'केवल सत् का अस्तित्व था हे सोम्य ! आदि मे और कुछ नहीं था'
इस वाक्य मे सत् शब्द के कई अर्थ लगाये जाते हैं ..
परमाणुवादी के अनुसार सत् शब्द का अर्थ परमाणु ही है ..इन्ही परमाणुओं से श्रेष्ठी उत्पन्न हुआ
प्रकृतिवादियों के अनुसार उस शब्द का अर्थ प्रकृति है और प्रकृति से ही सब कुछ उत्पन्न हुआ है
शून्यवादियों के अनुसार उसका अर्थ है 'कुछ नहीं '..शून्य ..और इसी से सब कुछ आया है
आस्तिक कहते हैं उसका अर्थ ईश्वर है
अदवैतवादी कहते हैं उसका अर्थ है ब्रम्ह
और इसप्रकार की व्याख्याओं मे मन उलझे बिना नहीं रह सकता ..
विवेकचूडामणि ( श्लोक ६०) मे आद्य शंकराचार्य जी कहते हैं ..
वाग्वैखरी शब्द्झरी शास्त्रव्याख्यान कौशलम
वैदुष्यम विदुषां तद्वद भुक्तये न तु मुक्तये
शब्दयोजना की विभिन्न रीतियाँ , सुन्दर भाषा बोलने की विभिन्न शैलियाँ , शास्त्रों के अर्थ समझने के विभिन्न रूप ---ये सब विद्वानों के आनन्दभोग की वस्तुएं हैं . इनसे किसी को मुक्ति नहीं मिल सकती .
मात्र गुरु ही ..यथार्थ ज्ञान अपरोक्षानुभूति के माध्यम से दे कर इस उलझन को सुलझाने का काम कर सकता है ..क्योकि गुरु ही शास्त्रों के मर्म को जानने वाला होता है . गुरु के पास ही पवित्र उद्येश्य और शुद्ध अंतःकरण होता है .

ग्रन्थ पूजा के गुण :
ग्रन्थ सभी बातों को एक निश्चित रूप देकर बुद्धिग्राह्य और सहजगम्य बना देती है . प्रतिमा और अन्य प्रतीकों की अपेक्षा आसानी से उपयोग मे लाई जा सकती हैं . अच्छी पुस्तकों को सभी लोग आदर करते ही हैं . महापुरुषों के चरित्रों से लेकर छंद बद्ध अपरोक्ष अनुभूतियाँ भी ग्रंथों मे सुरक्षित हैं .
एक और चीज देखने मे आयी है जिन जिन धर्मों/ संप्रदायों के ग्रन्थ थे उन उन धर्मों/ संप्रदायों को छोड़ कर शेष का आज लोप हो चूका है . ऐसा प्रतीत होता है कि ग्रन्थ वालों का कोई नाश नहीं कर सकता . पारसी पुराने इरान के निवासी थे कहा जाता है कि उनकी संख्या एक समय एक अरब थी अरबो ने उन्हें जीता और आधुनिक पारसी अपने ही घर मे मुसलमान हो गए ..उनमे से जो मुट्ठी भर पारसी वहाँ से भागे उनको उनके ग्रन्थ ने आज तक कायम रखा है . इसी प्रकार यहूदियों के पास उनका ग्रन्थ ना होता तो वे कब के मिट गए होते .
पुनः वही बात आ जाती है
ग्रन्थ जीवनी शक्ति को बनाये रखने वाले और उत्तरोत्तर परम कल्याण के साधन हो सकते हैं ..अगर उनका उपयोग सही तत्व के सान्निध्य मे किया जाए ..जिसे उसकी अनुभूति हो ..जिसने उस ज्ञान को पचाया हो ..जिसके आचरण मे वह ज्ञान हो ...और वह है ..'गुरु'
श्री गुरुवे नमः
--- श्री पुण्डरीकाक्ष पांडे

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