Friday, August 3, 2012

धर्म -- मजहब या रीलेजन का समानार्थी शब्द नहीं है. धर्म केवल धर्म है

विदेशी शब्दों के पर्यायवाची के रूप में हमारे जिन देशी शब्दों का चलन हुआ, उनमें ‘धर्म’ शब्द की सबसे अधिक दुर्गति हुई है। वैसे भारतीय चिंतन में अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष के रूप में चर्चित चार पुरुषार्थों में धर्म भी काफी समादृत रहा और इसके अभिप्राय को लेकर किसी ने कभी इसके प्रति वितृष्णा नहीं प्रकट की। लेकिन जब से इसका प्रयोग ‘रिलिजन’ या ‘मजहब’ के समानार्थी रूप में होने लगा तब से इसका अनेकार्थी चरित्र ओझल होता गया और यह एक पंथ या मत विशेष के अर्थ में सिमट कर वैज्ञानिक और वामपंथी चिंतन के कायल बौद्धिकों के लिए वितृष्णा का विषय बनता गया।
खेद के साथ कहना पड़ता है कि ‘रिलिजन’ या ‘मजहब’ की तर्ज पर धर्म का प्रयोग करने वाले बुद्धिजीवियों से यह तथ्य अनदेखा रहा कि यहूदी, ईसाइयत और इस्लाम के लिए प्रयुक्त होने वाले रिलिजन और मजहब के अनुयायियों के लिए एक ईश्वर की सत्ता, एक दैवी ग्रंथ (ओल्ड टेस्टामेंट, बाइबिल या कुरान) और एक मत-प्रतिपादक (मूसा, ईसा या हजरत मुहम्मद) में अडिग आस्था रखना यहूदी, ईसाई या मुसलमान होने के लिए बुनियादी शर्त है। इनसे इतर बातों में यकीन करने वाला न ईसाई हो सकता है, न मुसलमान। इसके विपरीत ‘धर्म’ के लिए एक ईश्वर, एक ग्रंथ, एक व्यक्तिमें आस्था रखना कभी बुनियादी शर्त नहीं रही। हमारे यहां बौद्ध धर्म, जैन धर्म इसके उदाहरण हैं जो अनीश्वरवादी धर्म के रूप में ख्यात रहे।
वास्तव में धर्म का प्रयोग भारतीय चिंतन-परंपरा में कई अर्थों में होता रहा है। इसे स्पष्ट करने के लिए चंद्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के निबंध ‘धर्म और समाज’ का कुछ अंश प्रस्तुत करना अत्यंत उपयोगी प्रतीत होता है। गुलेरी जी इस निबंध में लिखते हैं- ‘‘हम यहां पर कह देना चाहते हैं कि मत या संप्रदाय के अर्थ में धर्म शब्द का प्रयोग करना भी हमने अधिकतर विदेशियों से सीखा है। जब विदेशी भाषाओं के ‘मजहब’, ‘रिलिजन’ शब्द यहां प्रचलित हुए, तब भूल या स्पर्धा से हम उनके स्थान पर ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग करने लगे। पर हमारे प्राचीन ग्रंथों में, जो विदेशियों के आने से पूर्व रचे गए थे, कहीं पर भी ‘धर्म’ शब्द मत, विश्वास या संप्रदाय के अर्थ में प्रयुक्त नहीं हुआ, प्रत्युत उनमें सर्वत्र स्वभाव और कर्तव्य इन दो ही अर्थों में इसका प्रयोग पाया जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उसकी जो सत्ता है, जिसको ‘स्वभाव’ भी कहते हैं, वही उसका धर्म। जैसे वृक्ष का धर्म ‘जड़ता’ और पशु का धर्म ‘पशुता’ कहलाता है, ऐसे ही मनुष्य का धर्म ‘मनुष्यता’ है।... यह तो हुआ सामान्य धर्म, अब रहा विशेष धर्म, इसी का दूसरा नाम कर्तव्य भी है।
मनुष्य चाहे किसी दशा में हो, उसका कुछ न कुछ कर्तव्य होता है। गीता में भी ‘श्रेयान स्वधर्मों विगुण: परधर्मात्स्वनुष्ठिनात’ आदि वाक्यों में धर्म शब्द कर्तव्य का ही सूचक है, क्योंकि मनुष्य के लिए प्रत्येक दशा में अपने कर्तव्य का पालन करना ही सर्वोपरि धर्म है। जब मनुष्य के आचार या कर्तव्य का नाम धर्म है, तब अगर हमारे पूर्वजों ने मनुष्य की प्रत्येक दशा से संबद्ध किया तो इससे उनका यह अभिप्राय कदापि नहीं हो सकता था कि उन्होंने हमको मतवाद के जाल में फंसाने के लिए धर्म की टट््टी खड़ी की। उन्होंने तो हमारे मनुष्यत्व की रक्षा के लिए प्रत्येक कार्य में इसका आयोजन किया था।’’
स्वभाव और कर्तव्य के अर्थ में धर्म के प्रयुक्त होने की जिस परंपरा की ओर गुलेरी ने ध्यान आकृष्ट किया है, उसके प्रमाण अनेक ग्रंथों और लोक-व्यवहार में देखे जा सकते हैं। मसलन, ‘महाभारत’ के वन पर्व में राजा उशीनर की कथा आती है, जिनकी धर्मपरायणता की परीक्षा लेने इंद्रदेव और अग्निदेव क्रमश: बाज और कबूतर का रूप धारण कर पहुंचते हैं। दोनों एक स्वांग रचते हैं, जिसमें कबूतर बाज से अपनी जान बचाने के लिए राजा उशीनर की गोद में जा बैठता है। उसका पीछा करते हुए बाज भी वहां आ पहुंचता है।
बाज निवेदन करता है कि वह स्वभावत: मांसाहारी है, इसलिए कबूतर जैसे जीव का आहार बनाना उसका धर्म है। इसके प्रतिवाद में राजा का तर्क है कि राजा होने के नाते शरण में आए जीव की रक्षा करना उसका धर्म है। दोनों अपने-अपने धर्म के पालन पर अटल हैं। आखिरकार राजा बाज को कबूतर के वजन के बराबर अपने शरीर का मांस देना स्वीकार कर लेता है। इस कथा में जहां बाज के कथन द्वारा धर्म का स्वभावगत अर्थ उद्घाटित होता है, वहां राजा के कथन द्वारा धर्म का कर्तव्यनिष्ठ अर्थ स्पष्ट होता है। ‘गीता’ में श्रीकृष्ण द्वारा ‘स्वधर्म निधनं श्रेय:’ की बात कह कर धर्म के कर्तव्यनिष्ठ अर्थ को व्यंजित किया गया है।
आज भी वे हिंदू जो आधुनिकतावाद, मार्क्सवाद, वामपंथ आदि के कायल नहीं हैं, सहजता से धर्म शब्द का प्रयोग स्वभाव और कर्तव्य के अर्थ में करते रहते हैं। ऐसे लोग अक्सर यह कहते सुने जाते हैं कि हम तो बेटा-बेटी के प्रति अपना धर्म निभा रहे हैं या संतान का पालन-पोषण मां-बाप का धर्म
है, मां-बाप की सेवा करना संतान का धर्म है। स्पष्टत: ये सब धर्म शब्द का प्रयोग ईश्वर में या किसी ‘ग्रंथ’ या ‘मत’ विशेष में आस्था रखने के अर्थ में नहीं, बल्कि कर्तव्य पालन के अर्थ में करते हैं।
इसी तरह अब भी गांवों में अधिकतर स्त्री-पुरुष किसी स्त्री की सेहत को लेकर यह चिंता प्रकट करते देखे जाते हैं- उसके मासिक धर्म में गड़बड़ी है। यहां माहवारी को ‘मासिक धर्म’ बताना स्त्री-स्वभाव या प्रकृति के अर्थ में है। संकट के समय वर्जित कार्य को करने की विवशता को भी यहां आपद््धर्म की संज्ञा दी गई है। ऐसे संदर्भों में कोई भी ईसाई या मुसलिम रिलिजन या मजहब शब्द का प्रयोग नहीं करता।
इन अर्थों में धर्म के प्रयुक्त होते रहने की परंपरा का और अधिक संवर्द्धन किया है तुलसीदास ने जिनका ‘मानस’ इसके विभिन्न अर्थों का मानो कोश ही है। मसलन, पार्वती की माता का यह कथन- ‘‘करेहु सदा शंकर पद पूजा, नारि धरमु पति देउ न दूजा’’। यहां ‘नारि धरमु’ का मतलब एक पत्नी का पति के प्रति अनन्य निष्ठा रखना है। लेकिन ‘धरम’ का यही अर्थ तब नहीं रह जाता जब राम के वनवास की खबर सुन कर कौशल्या किंकर्तव्यविमूढ़ हो जाती हैं- ‘धरम सनेह उभय मति घेरी, भइ गति सांप छुछुंदरि केरी। राखऊं सुतहिं करउं अनुरोधू, धरमु जाइ अरु बंधु विरोधु’। पुत्र प्रेम के वशीभूत मां पुत्र को वन जाने की अनुमति देने में संकोच करती है, तो दूसरी तरफ धर्म की मर्यादा है, जिसके अनुसार पिता के आदेश का पालन करना पुत्र का कर्तव्य है।
यही द्वंद्व है, स्पष्टत: यहां धर्म का मतलब पिता के आदेश-पालन की कर्तव्य भावना है। फिर ‘धर्म’ का अर्थ तब दूसरा हो जाता है जब राम द्वारा मारे जाने पर बालि कहता है- ‘धर्म हेतु अवतरेहु गोसार्इं, मारेहु मोहिं व्याध की नार्इं।’ यहां ‘धर्म’ का मतलब छल-कपट रहित आचरण हो जाता है। व्याध छल से शिकार करता है, राम ने भी छल का सहारा लेकर उसका वध किया यानी छल-कपट का निषेध करने वाले धर्म का उल्लंघन किया, यही मतलब है बालि के इस कथन का। और जब राम भरत को यह उपदेश देते हैं कि ‘परहित सरिस धर्म नहिं भाई, पर पीड़ा सम नहिं अधमाई’ तब स्पष्टत: धर्म परोपकार का पर्याय बन जाता है।
वैसे तुलसी ने जितने विविध अर्थों में ‘धर्म’ शब्द का प्रयोग किया है उन सबका उल्लेख यहां संभव नहीं, फिर भी अपने राम के मुख से वे ‘धर्ममय रथ’ का जो रूपक रचते हैं वह धर्म के सांगोपांग स्वरूप को समझने की दृष्टि से अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। राम विभीषण को बताते हैं कि उनकी विजय जिस रथ के सहारे होगी उसे निर्मित करने वाले नियामक तत्त्व हैं-
सौरज धीरज तेहिरथ चाका, सत्य सील दृढ़ ध्वाजा पताका।/ बल विवेक दम परहित घोरे, छमा कृपा समता रजु जोरे।/ इस भजनु सारथी सुजाना, विरति चर्म संतोष कृपाना।/ दान परसु बुधि सक्ति प्रचंडा, बर बिग्यान कठिन कोदंडा।/ अमल अचल मन त्रोन समाना, सम जम नियम सिलीमुख नाना।/ सखा धर्ममय अस रथ जाकें, जीतन कहं न कतहुं रिपु ताकें।
गौरतलब है कि तुलसी जिस ‘धर्ममय रथ’ का रूपक रचते हैं, वह शौर्य, धैर्य, सत्य, शील, बल, विवेक, इंद्रिय-दमन, परहित, क्षमा, दया, समता, संतोष, बुद्धि, श्रेष्ठ विज्ञान, संयम आदि समस्त सद्गुणों का समन्वित रूप है- इसमें किसी मत, संप्रदाय या व्यक्ति विशेष के प्रति अंधश्रद्धा रखना या किसी पूजा, उपासना पद्धति से बंधे रहना आवश्यक नहीं। स्पष्टत: ऐसे ‘धर्ममय रथ’ की जरूरत हर व्यक्ति और हर समाज को है। आधुनिक युग में ऐसे ही ‘धर्ममय रथ’ को लेकर गांधी राजनीतिक-सामाजिक संग्राम में उतरते हैं।
अपने को हिंदू कहते हुए ‘हिंदू धर्म’ के नाम पर उन्होंने छुआछूत, ऊंच-नीच का विभाजन, स्त्री-पुरुष की असमानता जैसी चली आ रही अमानवीय रूढ़ियों का तिरस्कार किया, उनके लिए हिंदू धर्म का मतलब रहा दूसरे मतावलंबियों का समान रूप से आदर करना, सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अस्तेय, इंद्रिय-संयम, सेवा, क्षमा आदि को जीवन-शैली का अभिन्न अंग बनाना। उनके धर्म में ‘सत्य ही ईश्वर है’।
इन सारी बातों से साफ है कि धर्म के अंतर्गत स्वभाव और कर्तव्य पालन से लेकर सेवा, त्याग, उपकार, समानता, क्षमा आदि समस्त सद्गुण समाहित रहे हैं, इसलिए ऐसे व्यापक धर्म को एक पंथ, मत या संप्रदाय विशेष का बोध कराने वाले ‘रिलिजन’ या ‘मजहब’ का समानार्थी बना कर हमारे बुद्धिजीवी अब तक इसके साथ कितना अतिचार करते रहे हैं, कहने की आवश्यकता नहीं।
इसे देखते हुए मानना पड़ता है कि यूरोप में चर्च पोषित रिलिजन के वर्चस्व से राजनीति को मुक्तकरने के लिए जो सेक्युलर शब्द चला, उसके लिए धर्मनिरपेक्ष शब्द का चलन उचित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि परहित, त्याग, सेवा, क्षमा, कर्तव्यपालन आदि से संयुक्तधर्म से मनुष्य और समाज को निरपेक्ष करना मनुष्यता विरोधी कृत्य ही कहा जाएगा। इसलिए अब जरूरत है कि धर्म संबंधी भारतीय चिंतन की परंपरा को ध्यान में रखते हुए ‘सेक्युलरिज्म’ के लिए पंथ या संप्रदाय निरपेक्षता जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया जाए और पूरे विश्व मानव को धर्म-सापेक्ष बनने को प्रेरित किया जाए।
---जनसत्ता हिंदी दैनिक में यह लेख अगस्त ३ को प्रकाशित हुया है
 

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