Wednesday, August 29, 2012

ब्रह्मप्रतिपादन

रामजी ने पूछा, हे भगवन् ये जो जीव हैं वे ब्रह्म से कैसे उत्पन्न हुए और कितने हुए हैं, मुझसे विस्तारपूर्वक कहिये? वसिष्ठजी बोले, हे महाबाहो! जैसी विचित्रता से ये उपजते, नाश होते, बढ़ते और स्थित होते हैं वह क्रम सुनो । हे निष्पाप राम! शुद्ध ब्रह्मत्व की वृत्ति जो चेतनशक्ति है सो निर्मल है, जब वह स्फुरणरूप होती है तब कलनारूप घनभाव को प्राप्त होती और संकल्परूप धारण करती है, और फिर तन्मय होकर मनरूप होती है । यह मन संकल्पमात्र से जगत् को रचता है और विस्तारभाव को प्राप्त करता है, जैसे गन्धर्व नगर विस्तार को, प्राप्त होता है तैसे ही मन से जगत् का विस्तार होता है । ब्रह्मदृष्टि को त्याग के जो जगत् रचता है सो सब आत्मसत्ता का चमत्कार है । हमको तो सब आकाशरूप भासता है पर दूरदर्शी को जगत् भासता है । जैसे चित्तसंवित् में संकल्प फुरता है तैसा ही रूप होता है । प्रथम ब्रह्मा का संकल्प फुरा है इसलिये उस चित्त संवित् ने आपको ब्रह्मारूप देखा और ब्रह्मारूप होकर जब जगत् को कल्पा तब प्रजापति होकर चतुर्दश प्रकार के भूतजात उत्पन्न किये, वास्तव में सब ज्ञप्तिरूप हैं । उसके फुरने से जो जगत् भासता है सो चित्तमात्र शून्य आकाशरूप है । वास्तव में शरीर कुछ नहीं संकल्पमात्र है स्वप्ननगर भ्रान्ति से भासते हैं । उस भ्रान्तिरूप जगत् में जो जीव हुए हैं और कोई मोह से संयुक्त है, कोई अज्ञानी है, कोई मध्यस्थित हैं और कोई ज्ञानी उपदेष्टा है, जो कुछ भूतजात हैं वे सब आधिव्याधि दुःख से दीन हुए हैं । उनमें कोई ज्ञानवान् सात्त्विकी हैं और कोई राजसी सात्विकी हैं । जो शान्तात्मा पुरुष हैं उनको संसार के दुःख कदाचित् स्पर्श नहीं करते वे सदा ब्रह्म में स्थित हैं । हे रामजी! यह जो मैंने तुमसे भूतजात कहे हैं सो ब्रह्म, शान्त, अमृतरूप, सर्व व्यापी निरामय, चैतन्यरूप, अनन्तात्मा रूप और आधिव्याधि दुःख से रहित निर्भ्रम है । जैसे अनन्त सोमजल के किसी स्थान में तरंग फुरते हैं तैसे ही परमब्रह्म सत्ता के किसी स्थान में जगत्प्रपञ्च फुरता है । फिर रामजी ने पूछा, हे भगवन्! ब्रह्मत्त्व तो अनन्त, निराकार, निरवयवक्रम है उसका एक अंश स्थान कैसे हुआ? निरवयव में अवयवक्रम कैसे होता है? वशिष्ठजी बोले, हे रामजी! उस करके उपजे हैं अथवा उससे उपजे हैं यह जो कारण और उपादान है वह भ्रान्तिमात्र है । यह शास्त्र रचना व्यवहार के निमित्त कही है परमार्थ में कुछ नहीं है अवयव से जो देशादिक कल्पना है वह क्रम से नहीं उपजी, उदय और अस्त पर्यन्त दृष्टिमात्र भी होती है पर कल्पनामात्र है । वह कल्पनामात्र है । वह कल्पना भी आत्मारूप है आत्मा से रहित कल्पना भी न कुछ वस्तु है न हुई है और न कुछ होगी । उसमें जो शब्द अर्थ आदिक युक्ति है वह व्यवहार के निमित्त है परमार्थ में कुछ नहीं । शब्द अर्थमात्र जगत्कलना उस करके उपजी है और उससे उपजी है यह द्वितीय कल्पना भी नहीं यह तो तन्मय शान्तरूप आत्मा ही है और कुछ नहीं । जैसे अग्नि से अग्नि की लपटें फुरती हैं सो अग्निरूप हैं और ‘उससे उपजी’ और ‘उस करके उपजी’ यह कल्पना अग्नि में कोई नहीं, अग्नि ही अग्नि है, तैसे ही जन और जनक अर्थात् कार्य और कारणभेद आत्मा में कोई नहीं । कोई कारणभाव कल्पनामात्र है, जहाँ अधिकता और न्यूनता होती है वहाँ कारण कार्यभाव होता है कि यह अधिक कारण है और वह कार्य है । भिन्न-भिन्न कारण कार्य भाव बनता भी है और जहाँ भेद होता है वहाँ भेद कल्पना भी हो पर एक अद्वैत में शब्द कैसे हो और शब्द का अर्थ कैसे हो? जैसे अग्नि और अग्नि की लपट में भेद नहीं होता तैसे ही कारण कार्यभाव आत्मा में कोई नहीं-शब्द अर्थ कल्पना मात्र है । जहाँ प्रतियोगी, व्यवच्छेद और संख्या भ्रम होता है वहाँ द्वैत और नाना त्व होता है जैसे चेतन का प्रतियोगी जड़ और जड़ का प्रतियोगी चेतन है, व्यवहार अर्थात् परिच्छिन्न वह है जैसे घट में आकाश होता है और संख्या यह है कि जैसे जीव और ईश्वर । यह शब्द अर्थ द्वैतकल्पना में होते हैं और जहाँ एक अद्वैत आत्मा ही है वहाँ शब्द अर्थ कोई नहीं । जैसे समुद्र में तरंग बुद्बुदे सब ही जल हैं और जल से कुछ भिन्न नहीं, तैसे ही शब्द और अर्थकल्पना वास्तव से ब्रह्म है । जो बोधवान् पुरुष हैं उनको सब ब्रह्म ही भासता है, चित्त भी ब्रह्म है, मन भी ब्रह्म है और ज्ञान, शब्द, अर्थ ब्रह्म ही है, ब्रह्म से कुछ भिन्न नहीं और उससे जो भिन्न भासता है वह मिथ्याज्ञान है जैसे अग्नि और अग्नि की लपटों की कल्पना भ्रान्तिमात्र है तैसे ही आत्मा में जगत् की भिन्न कल्पना असत्‌रूप है । जो ज्ञान से रहित है उसको दृष्टिदोष से सत्य हो भासता है । इससे सर्व ब्रह्म है ब्रह्म से भिन्न कुछ नहीं । निश्चय करके परमार्थ ब्रह्म से सब ब्रह्म ही है । सिद्धान्तकाल में तुमको यही दृष्टि उपजेगी । यह जो सिद्धान्त पिञ्जर मैंने तुमसे कहा है उस पर उदाहरण कहूँगा कि यह क्रम अविद्या का कुछ भी नहीं, अज्ञान के नाश हुए अत्यन्त असत् जअनोगे । जैसे तम से रस्सी में सर्प भासता है और जब प्रकाश उदय होता है तब ज्यों का त्यों भासता है और सर्पभ्रम नष्ट हो जाता है, तैसे ही अज्ञान दृष्टि से जगत् भासता है । जब शुद्ध विचार से भ्रान्ति नष्ट होगी तब निर्मल प्रकाश सत्ता तुमको भासेगी इसमें संशय नहीं यह निश्चितार्थ है ।

इति श्रीयोगवाशिष्ठे स्थितिप्रकरणे ब्रह्मप्रतिपादनन्नाम चत्वारिंशतमस्सर्गः ॥40॥
--- श्री अमित कुमार 

No comments:

Post a Comment