Monday, August 13, 2012

सारा विश्व नाम व रूप से बना है।

सारा विश्व नाम व रूप से बना है। नाम व रूप के अतिरिक्त दृश्य जगत मे कुछ नहीं है । हम सब यही विश्वास करते हैं कि ईश्वर के ना ही नाम है और ना ही रूप, पर ज्यों ही हम उसके विषय मे सोचने लगते हैं उसे नाम व रूप दे देते हैं ।
चित्त एक शांत जलाशय के समान है और विचार उस चित्त पर तरंग के सदृश है । नाम व रूप इन तरंगों के उठने के सामान्य तरीके हैं। नाम व रूप के बिना कोई तरंग उठ नहीं सकती है । एकरूपता व एकरसता का चिंतन नहीं किया जा सकता है । वह चिंतन के परे है...ज्यों ही वह विचार या विचार्य वस्तु बन जाती है.त्यों ही उसका नाम व रूप होना ही चाहिए।
एक मान्यता है कि ईश्वर ने सृष्टि और उसमे अनेक वस्तुओं , की रचना 'शब्द' से की इसके पीछे गूढ़ अर्थ प्रतीत होता है । सृष्टि जिसका अर्थ होता है 'विस्तार' 'रचना' या 'उत्पत्ति करना'। स्वयं ईश्वर निराकार है अतः रूपों के अर्थात सृष्टि के विस्तार का वर्णन करने का यह सुन्
दर तरीका है । 'ईश्वर ने कुछ नहीं या शून्य से सब कुछ बनाया' ऐसा नहीं है । विश्व या संसार का विस्तार ईश्वर से हुआ है ।
ईश्वर ही विश्व या संसार बन जाता है और उसी मे यह संसार पुनः समा जाता है और फिर से वहीँ से बाहर निकलता है । सदैव यही क्रम चलता रहता है ।
मन मे किसी वस्तु का विचार नाम व रूप के बिना शक्य नहीं है । अगर मन बिल्कुल शांत है उसमे कोई विचार या भावना नहीं है ; यद्यपि कोई विचार मन मे उठते ही तुरंत वह नाम व रूप धारण कर लेता है । प्रत्येक विचार का कोई ना कोई नाम और एक ना एक रूप हुआ ही करता है । इस तरह सृष्टि या विस्तार वस्तु ही ऐसी है कि उसका नाम व रूप से नित्य सम्बन्ध है । अतः हमारा शरीर भी हमारे मानसिक विचार का परिणाम या विकास है - मनो हमारा विचार ही स्थूल रूप धारण करके वापस आ गया हो । उसी तरह इस संसार को भी मन से ही उत्पन्न हुआ या मन का ही विकास मानना बिल्कुल स्वाभाविक है । और यदि यह सत्य है कि संसार एक ही पैमाने पर बनाया गया है तो जो भी पिण्ड मे है वही ब्रम्हांड मे है ..।
हमारे शरीर की बात अगर की जाये तो ...बाहरी शरीर से हमारा स्थूल रूप बना हुआ है और विचारों से उसके भीतर का सूक्ष्मतर अंश , तथा दोनो का शास्वत अटूट अविच्छेद सम्बन्ध भी है । जड़ पदार्थ और मन दो भिन्न वस्तुएं हैं ही नहीं। जैसे वायु के दीर्घ विस्तार मे उसी वायु तत्व के विभिन्न घनत्व पाए जाते हैं , उसका घनत्व उत्तरोत्तर कम होता जाता है , उसी तरह शरीर को भी जानिए । यहाँ से वहाँ तक सम्पूर्ण वस्तु एक ही है . केवल एक तः या परत दूसरी से सूक्ष्मतर होती गयी है । पुनश्च यह शरीर उंगली के नखों के समान है । जैसे हम् अपने नखों को काटते हैं और पुनः वे नख बढ़ जाते हैं , उसी प्रकार हमारे सूक्ष्म विचारों से ही एक के बाद दूसरा शरीर उत्पन्न हुआ करता है । जो वस्तु जितनी सूक्ष्म होती है वह वस्तु उतनी ही अधिक स्थायी होती है और जितनी स्थूलतर उतनी ही कम स्थायी ..
इस प्रकार हम देखते हैं कि उसी एक अभिव्यक्त करने वाली शक्ति , 'भाव' या 'विचार' की स्थूल अवस्था रूप है और नाम उसकी सूक्ष्म अवस्था ।
 --- श्री पुन्दरिकाक्ष पांडे

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