Friday, August 17, 2012

धर्म की रक्षा

स्वकर्मणा तमभ्यर्च सिद्धिं विन्दति मानवाः

कंस की दुष्प्रवृतियों का नष् करने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने अक्रूर का सहयोग लिया था . धर्म के नाम पर फैले अनाचार को रोकने के लिए बौद्ध धर्म खड़ा हुआ तो उसके पावँ महाराज अशोक ने मजबूत किये . यवन आक्रमणकारियों से भारतीय संस्कृति के रक्षा की समस्या आयी तब समर्थ गुरु रामदास को क्षत्रपति शिवा जी ने साथ दिया . महाराणाप्रताप देश के लिए सर्वस्व न्योछावर करके भी जब स्वतंत्रता की रक्षा न कर सके तब भामा शाह ने उन्हें धन , जन और आजादी की प्रेरणा दी. महान कार्यों के लिए महान प्रयत्नों और सहयोगों की सदैव आवश्यकता हुई है .


जगद्गुरु शंकराचार्य जी द्वारा चार मठों की स्थापना और वैदिक धर्म के प्रसार के लिए ब्रम्ह विद्यालय , गुरुकुल , ज्ञान दीक्षा के पुस्तकालय , साहित्य सृजन और ज्योतिपीथों की स्थापना यह ऐसे बड़े कार्य थे जो स्वयं उनकी आध्यात्मिक शक्ति से भी परे थे . उधर प्रतिक्रियावादियों के आघात भी हो रहे थे , वैदिक धर्म को गिराने का भी पूरा प्रयत्न किया जा रहा था . ऐसे समय मे एक बार तो शंकराचार्य जी भी निराश हो उठे कि , य
ह आवश्यकताएं कैसे संपन्न होंगी ?? देश के सांस्कृतिक पुनारुत्त्थान की यह योजनाएं कैसे पूरी होंगी ?? भगवान शंकराचार्य का महान कार्य फिर भला अधूरा कैसे रहता ?? उन महापुरुष के संकल्पों की पूर्ती के लिए दक्षिण के महाराज मान्धाता भामाशाह की तरह आगे आये . उन्होंने जगद्गुरु शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण किया और धर्म के लिए अपना राज्य कोश , जन बल और निजी व्यक्तित्व सब कुछ उनके चरणों मे सौप दिया . फिर क्या था रुके हुए कार्य चल पड़े . जगतगुरु के आध्यात्मिक और रचनात्मक कार्यक्रम सभी योजना बद्ध रूप से बड़ी ही सफलता पूर्वक चलने लगे .शंकराचार्य जी के प्रचार अभियान मे मान्धाता की सेवा बड़ी ही सहायक सिद्ध हुई . सुरक्षा के लिए सेना , यात्रा के लिए धन , रचनात्मक कार्यों के लिए कुशल विशेषज्ञ मिल जाने से सारी व्यवस्था सरल बन गयी . जो कार्य वर्षों की प्रतीक्षा के बाद संपन्न हो सकता था वह इन् साधनों के जुट जाने से बहुत सरल हो गया .

हम भी किन्ही कारणों बस अगर किसी विशिष्ट क्षेत्र मे ऊचाई प्राप्त नहीं कर सके हैं ..तो कम से कम उचाई प्राप्त लोगों का यथोचित सम्मान और उनके द्वारा किये गए कार्य मे श्रद्धा पूर्वक मन और बुद्धि की विनम्रता के साथ अपनी विशिष्टता को अर्पित कर अपने जीवन को सफल बना सकते हैं .

अपनी बुद्धि की मर्यादा को पहचानना और श्रेष्ठ के पास उसे उद्दात्त बनाने के लिए समर्पित होना ही हमारी संस्कृति मे समाहित है .
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी

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