Friday, June 1, 2012

गायत्री साधना से प्राण ऊर्जा का अभिवर्धन


मनुष्य शरीर में विद्यमान चेतना का केन्द्र मस्तिष्क माना जाता है । शरीर का पोषण देने वाला रक्त संस्थान हृदय कहा गया है । हृदय को पेट से पोषण मिलता है । पेट में मुँह से खाना पहुँचता है और मुँह तक खाना पहुँचाने के साधन हाथ जुटाते हैं । इस प्रकार देखते हैं कि शरीर का प्रत्येक अंग अवयव लय-ताल से बँधे हुए होते हैं और यह भी सिद्ध हो जाता है कि पूरा शरीर ही शक्ति का भण्डार है । यह शक्ति असामान्य विद्युत स्तर की है ।

जिस विद्युत शक्ति से हमारा परिचय है, वह तो अच्छी दौड़ लगाती है, और जो भी कोई उसके सम्पर्क में आता है, उसे बिना कुछ सोचे-समझे गर्माती, तपाती और जलाती रहती है । लेकिन मनुष्य शरीर में विद्यमान विद्युत शक्ति को इसीलिए असामान्य कहा गया है कि वह शरीर की परिस्थितियों को देख कर ही अपनी गतिविधियाँ फैलाती और सिकोड़ती है ।

मानवी विद्युत हर व्यक्ति की अपनी विशिष्ट सम्पत्ति है । वह इसी के आधार पर ऐसे अनुदान देता है, ऐसे आदान-प्रदान करता है जो पैसे या किसी वस्तु के आधार पर उपलब्ध नहीं हो सकते । एक व्यक्ति से दूसरा प्रभाव ग्रहण करता है, यह तथ्य सर्वविदित है, संगति की महिमा गाई गई है । कुसंग के दुष्परिणाम और सत्संग के सत्परिणामों को सिद्ध करने वाले उदाहरण हर जगह पाये जाते हैं । यह प्रभाव मात्र वार्त्तालाप व्यवहार, लोभ या दबाव से उतना नहीं पड़ता जितना मनुष्य के शरीर में रहने वाली बिजली के आदान-प्रदान से सम्भव होता है ।

ताप और बिजली का गुण है कि जहाँ अनुकूलता होती है, वह वहाँ अपना विस्तार करती और प्रभाव क्षेत्र बढ़ाती है । प्राणवान् शक्तिशाली व्यक्तित्व अपने से दुर्बलों को प्रभावित करते हैं । यों दुर्बल भी अपनी न्यूनता के कारण समर्थों में सहज करुणा उत्पन्न करते हैं, और उन्हें कुछ देने के लिए विवश करते हैं । बच्चे को देखकर माता की छाती से दूध उतरने लगता है मन हुलसने लगता है ।

इस प्रकार शक्तिवान अपने से दुर्बलों को अनुदान देकर घाटे में नहीं रहते । उदारता-जन्य आत्म-संतोष से उनकी क्षति-पूर्ति भी हो जाती है । दूध पिलाने में माता को प्रत्यक्षता घाटा ही है, पर वात्सल्य-जन्य तृप्ति से उसकी भावनात्मक पूर्ति हो जाती है ।

मनुष्य को एक अच्छा खासा चुम्बक कहें तो कुछ अत्युक्ति न होगी । चुम्बक का कार्य है आकर्षण । वह अपनी कला द्वारा अन्य लोहे के पदार्थों को आकर्षित करता है । उनको अपना जैसा बनाने का प्रयत्न करता है । एक और विशेषता चुम्बक की है कि उसे यदि टुकड़ों-टुकड़ों में भी विभक्त कर दिया जाय तो हर टुकड़े की वही विशेषता बनी रहेगी ।

एक टुकड़े को एक धागे में बाँधकर यदि अधर में लटकाया जाय तो इसके दोनों सिरे क्रमशः उत्तर-दक्षिण की तरफ ही रहेंगे । चाहे जैसी परिस्थिति आ जाय अपनी दिशा नहीं बदलेंगे । स्थिरता आ जाय अपनी दिशा नहीं बदलेंगे । स्थिरता का सहज गुण चुम्बक में है । इसलिए जलयानों या वायुयानों में 'कम्पास' के सहारे ही दिशा-ज्ञान का बोध होता है ।

यह सारे लक्षण मनुष्य में भी पाये जाते हैं, यदि मन की प्रवृत्तियाँ सही ढंग से कार्य कर रही हों तो एक महान् व्यक्ति बना जा सकता है । ठीक चुम्बक की तरह की सारी विशेषताएँ विकसित भी की जा सकती हैं । महान् व्यक्तित्त्व में इतना आकर्षण होता है कि वे जिस स्थान पर खड़े हो जाते हैं लोग अपने आप उनके चारों ओर एकत्रित हो जाते हैं
चुम्बक की दूसरी विशेषता ''एक रसता'' की है । वह चाहे कितना विखंडित क्यों न हो जाय, उसकी आकर्षण शक्ति कम नहीं होती । महान् मनुष्य ऐसे ही होते हैं । वे बाह्य रूप से चाहे जितने छोटे हो जाएँ, परन्तु उनकी महानता में कोई अन्तर नहीं आता है । उनका व्यक्तित्व खण्डित नहीं होता है । वे अनेकों लोगों से एक साथ सम्बंध रखते हैं, परन्तु उनके व्यक्तित्व में अपने पराये का पक्षपात का कोई अन्तर नहीं आता । एक सूर्य अनेक घड़ों के जल में एक रूप ही दिखाई देता है ।

चुम्बक की तीसरी विशेषता है दिशा के प्रति स्थिरता । इसके द्वारा सदैव ही उत्तर एवं दक्षिण दिशा का ज्ञान होता रहेगा, आप चाहे जहाँ चले जायें आकाश में या समुद्र में कम्पास आपको दिशा ज्ञान अवश्यक ही करायेगा । वही स्थिति विकसित व्यक्ति की भी होती है । यदि सद्प्रवृत्तियाँ जगा ली गई है, भावना एवं व्यक्तित्व का परिष्कार कर लिया गया है तथा उद्देश्य को गम्भीरता से ग्रहण करने की शक्ति पैदा कर ली गई है तो यह निश्चित है कि मनुष्य अपनी दिशा से कभी हिल नहीं सकता है । दूसरों को सही प्रेरणा प्रदान करने का काम भी तो चुम्बक के गुण की तरह ही है ।

बड़ी से बड़ी विशेषताओं एवं महान् गुणों से युक्त मनुष्य भी पतित क्रियाओं एवं विचारणाओं को अपनाने से गर्त में गिर जाता है और अपनी समस्त विशेषताएँ धीरे-धीरे खो देता है । ठीक इसी तरह जैसे चुम्बक को बार-बार पटकने तथा ऊपर नीचे करने से उसकी आकर्षण शक्ति लुप्त हो जाती है, महान् पुरुषों की भी पुण्य की पूँजी एवं प्रभाव उनके पतन के गर्त में गिरने से नष्ट हो जाते हैं ।

धरती की चुम्बकीय शक्ति की तरह मनुष्य में भी एक सहज आकर्षण शक्ति विद्यमान है, उसका प्रयोग करके समर्थता एवं साधन सम्पन्नता प्राप्त की जा सकती है । मनुष्य यदि अपने चुम्बकत्व का प्रयोग करे तो उसे भी वैसे ही पुराण-वर्णित चमत्कार प्रस्तुत करने का अधिकार मिल सकता है । यदि तप, साधन के द्वारा आत्मबल को बढ़ा लिया जाय तो हम आज से हजारों वर्ष पहले घटित घटनाओं को भी यथार्थ रूप से आकाश मण्डल में सुन या देख सकते हैं । विज्ञान से तो अब यह सिद्ध हो चुका है कि जो भी ध्वनियाँ निसृत होती हैं वे कभी भी नष्ट नहीं होती ।

अपनी इस पृथ्वी के चतुर्दिक एक चुम्बकीय क्षेत्र व्याप्त है, उसी के सहारे वह समस्त ब्रह्माण्ड में फैली हुई तमाम आवश्यक विशेषताओं को इकट्ठी करती रहती है, यदि इस स्रोत से उसे यह अनुदान प्राप्त न होता तो उसका अक्षय भण्डार एक दिन अवश्यक समाप्त हो जाता है और साधन सम्पन्न कही जाने वाली धरती विपन्न एवं दीन की स्थिति में पहुँच जाती ।

मनुष्य की अतीन्द्रिय क्षमता में वह चुम्बकत्व विद्यमान है, जिसके द्वारा असम्भाव्य कार्यों को भी कर सकता है । आँखों से न देख पाने वाले स्थानों का वर्तमान में घटित होने वाली घटनाओं का सत्रिण वर्णन कर सकता है । एक स्थान से दूसरे स्थान को परस्पर सम्वादों का आदान-प्रदान कर सकता है । इसके अतिरिक्त यदि हमने तप, साधना द्वारा प्रेरक क्षमता अर्जित कर ली है तो किसी दूसरे को प्रेरित कर लाभ पहुँचाया जा सकता है ।

जड़ अणुओं की गति एक प्रकार की विधुत उत्पन्न करती है, उसमें जब चेतन सत्ता का समावेश होता है तो जीवन का जीवधारियों का आविर्भाव होता है । ध्रुवों के क्षेत्र में चुम्बकीय तूफान उठते रहते हैं, जिनका प्रकाश 'अरोरा बोरीलिस,' तेजोबलय के रूप में छाया रहता है । इसे पृथ्वी के साथ अन्य ग्रहों की सूक्ष्म हलचलों का मिलन स्पन्दन कह सकते हैं । यही है वह पृथ्वी के साथ प्रणय परिचय जिसके फलस्वरूप कुन्ती के पाँच पुत्रों की तरह पाँच विविध-विधि हलचले जन्म लेती हैं और उनके क्रिया-कलाप एक से एक बढ़ कर अद्भुत और शक्तिशाली बने हुए सामने आते रहते हैं ।

समुद्र का खारा जल जब धातु विनिर्मित नौकाओं तथा जलयानों से टकराता है तो उससे विद्युत तरंगे उत्पन्न होती हैं । नौका विज्ञानी इस अनायास होते रहने वाले विद्युत उत्पादन से परिचित रहते हैं और उसकी हानिकारक लाभदायक प्रतिक्रिया से सतर्क रहते हैं ।

शरीरगत जीवाणु भी इसी प्रकार ईथर एवं वायुमण्डल में भरे विद्युत प्रवाह से टकराते रहते हैं और विद्युत ऊर्जा उत्पन्न होते हैं । जीव कोषों में उन धातुओं तथा रसायनों की समुचित मात्रा रहती है जो आघातों से उत्तेजित होकर विद्युत प्रवाह उत्पन्न कर सकें । यही कारण है कि हर मनुष्य में गर्मी ही नहीं रहती, वरन् विद्युत प्रवाह की अनके धाराएँ भी बहती हैं । इन्हें यन्त्रों द्वारा भी भली-भाँति देखा, परखा और जाना सकता है ।
मानवीय चुम्बक अंतरिक्ष में बरसने वाले अनके भले-बुरे अनुदानों को अपनी आंतरिक स्थिति के अनुरूप स्वीकार या अस्वीकार करता है । वह जैसा कुछ स्वयं है उसी का चुम्बकत्व उसे इस विश्व ब्रह्माण्ड में अपनी जैसी सूक्ष्म धारा प्रवाह से अनायास ही सम्पन्न सज्जित करता रहता है ।

प्राणिज विद्युत का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों के अनुसार नैतिक विद्युत का आधार और क्रियाकलाप भौतिक बिजली से भिन्न है । वे प्रणिज विद्युत में इच्छा और बुद्धि का समिश्रण भी मानते हैं भले ही वह कितना ही झरना क्यों न हो? इसी प्रवाह के कारण प्राणिज विद्युत अपने-अपने क्षेत्र में विशेष परिस्थितियों एवं साधनों की संरचना करती है, प्रायः चुम्बकत्व पदार्थ में से अपने उपयोगी भाग खींचता है, उसे अपने ढाँचे में ढालता है और इस योग्य बनाता है कि चेतना के स्वर में अपना ताल बजा सके ।

किस प्राणी के डिम्ब से किस आकृति प्रकृति का जीव उत्पन्न हो, इसका निर्धारण माप रासायनिक संरचना के आधार पर नहीं हो जाता, वरन् यह निर्धारण रज और शुक्र कीटों के अन्दर भरी हुई चेतना के द्वारा होता है । इसी चुम्बकत्व में विशिष्ट स्तर के प्राणियों की आकृति एवं प्रकृति ढलना शुरु हो जाती है । यदि ऐसा न होता तो संसार में पाये जाने वाले समस्त प्राणी प्रायः एक ही जैसी आकृति के उत्पन्न होते क्योंकि अणुओं का स्तर प्रायः एक ही वर्ग का है । उनके जो रासायनिक अन्तर हैं इसके आधार पर कोटि-कोटि वर्ग के प्राणी उत्पन्न होने और उनकी वंश परम्परा चलते रहने की गुंजाइश नहीं है ।

अधिक से अधिक इतना हो सकता था जिक कुछ थोड़ी-सी कुछ थोड़े से अन्तर की जीव जातियाँ इस संसार में दिखाई पड़तीं । वंश परम्परा और जीव विज्ञान का जो स्वरूप सामने हैं उसमें प्राणि चुम्बकत्व की अपनी विशिष्ट भूमिका है ।

इसे दूसरे शब्दों में विद्युत भण्डार कह सकते हैं । भोजन, रक्त, माँस, अस्थि आदि से आगे बढ़ते-बढ़ते अंततःइसी संस्थान में जा कर ऊर्जा ही प्राण कहलाती है । कायकलेवर में इसका एकत्रीकरण महाप्राण कहलाता है और उसी का ब्रह्माण्ड व्यापी चेतना विश्व प्राण या विराट् प्राण के नाम से जानी जाती है ।
इन दोनों के बीच बिंदु-सिन्धु का अंतर रहते हुए भी ये दोनों अन्योन्याश्रित हैं । कोशिका के अन्तर्गत प्राणांश के घटक परस्पर संयुक्त न हों तो महाप्राण का अस्तित्व न बने । इसी प्रकार यदि विराट् प्राण की सत्ता को हो तो भोजन पाचन आदि का आधार का संचार भी सम्भव न हो ।

यदि मानवी विद्युत तेजस्विता, ओजस्विता, प्रभावशाली के रूप में विकसित होकर कितने ही महत्त्वपूर्ण कार्य कर सकती है । उर्ध्व रेता, संयमी, ब्रह्मचारी लोग अपने ओजस् को मस्तिष्क में केन्द्रिरत करके उसे ब्रह्मवर्चस के रूप में परिणत करते हैं । विद्वान दार्शनिक, नेता, वक्ता, योद्धा, योगी, तपस्वी, जैसी विशेषताओं से सम्पन्न व्यक्तियों के सम्बंध में यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अपने ओजस् का प्राण तत्त्व अभिवर्धन, नियन्त्रण एवं सदुपयोग किया है ।
योग-साधना का उद्देश्य इस चेतना विद्युत शक्ति का अभिवर्धन करना ही है । इसे मनोबल, प्राणबल और आत्मबल भी कहते हैं । संकल्प शक्ति और इच्छा शक्ति के रूप में इसी के चमत्कार देखे जाते हैं ।

गायत्री साधना इस मानवी विद्युत भण्डार को असाधारण रूप में उत्तेजित करती और उभारती है । यदि सही ढंग से साधना की जाय तो मनुष्य प्राणवान् और ओजस्वी बनता है तथा उपार्जित प्राण ऊर्जा की विद्युत के सहारे स्वयं कितनी भी सफलताएँ अर्जित करता है और अन्य दूसरों को भी लाभ पहुँचाता रह सकता है ।

 --- श्री अनुराग मिश्र

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