Sunday, September 30, 2012

वैदिकसंस्कृति

मित्रों कभी सम्पूर्ण विश्व में फैली वैदिकसंस्कृति के महान ऋषि महर्षियों ने अपने तप और ज्ञान द्वारा जीवन के रहस्यों को जान लिया था!उन्होंने जीवन और इसके बाद की अवस्था को ध्यान में रखकर कुछ कर्म निर्धारित किये थे,उनमें से ऐक कर्म है श्राद्ध!
श्राद्ध कर्म का मूल तत्व है श्रद्धा!इससे हम अपने पूर्वजों के प्रति कृतज्ञता और सम्मान अर्पित करते है!हमारी संस्कृति में इहलोक के साथ परलोक का भी चिंतन किया गया है।
ब्रह्म पुराण का कथन देखिए,''यो वा विधानत: श्राद्ध कुर्यात स्वविभवोचितम/आब्रह्मस्तम्बपर् यन्तं जगत प्रीणती मानव://अर्थात 'जो व्यक्ति विधानपूर्वक श्राद्ध करता है वह मात्र अपने पितरों को हीनहीं,वरन संपूर्ण ब्रह्मांड को तृप्त कर देता है!!
श्राद्ध क्या है?इस बारे में पुलस्त्य-स्मृतिका कथन देखें,''श्रद्धया क्रियते यस्माच्छा्रद्ध तेन प्रकीति्र्तं / यानि अत्यंत श्रद्धा से किये जाने के कारण इसे श्राद्ध कहते है!
हमारी संस्कृति और भारतीय दर्शन के अनुसार मृत्यु से मात्र स्थूल शरीर नष्ट होता है सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा नष्ट नहीं होती!इसबारे में श्रीमद्भगवद्गीता कहती है कि ''अजोनित्य: शाश्वतोयं पुराणों न हन्यते हन्यमाने शरीरे//यानि आत्मा नित्य अजन्मा अजर अमर है!तथा अन्य श्लोकों में कहा गया हैकि जैसे हम पुराने वस्त्र बदलकर नये वस्त्र पहिनते है उसी प्रकार ही जीवात्मा पुराने शरीर को त्यागकर नया शरीर धारण करता है!
इसीलिए उस सूक्ष्म शरीर यानि आत्मा की तृप्ति हेतु ये श्राद्ध कर्म होते है!
इसके लिए ऋषि मुनियों ने ऐक पक्ष पितरों को समर्पित किया है जिसे 'पितृपक्ष' कहा जाता है यह अश्विन मास के कृष्णपक्ष को पितरों केश्राद्ध और तर्पण हेतु नियत किया है!हमारे शास्त्रों के अनुसार इस मास में हमारे पितर अपने अपने लोकों से आकर इस भूमडंल पर विचरण करते है और अपने सूक्ष्म शरीर से पुत्रों आदि के घर द्वार पर अपने लिए सम्मान,स्मरण,पूजन आदि की अपेक्षा लिए आते है इस मास में जो गृहस्वामी उनके लिए श्राद्धआदि कर्म करते है उन्हें वे प्रसन्नहोकर आशीष देते हुए अपने लोक चले जाते है लेकिन जिन घरों में ये सब कर्म नहीं होते उनके पितृ निराश हो श्वास छोड़ते हुए जाते हैजिससे ऐसे घरों में सुख शान्ति नष्ट हो जातीहै!
इस वर्ष पित्रपक्ष का प्रथम दिन 30 सितंबर से आरम्भ होकर सोमवार,1 अक्टूबर को दोपहर तकपड़ रहा है!(कृपया पुष्टि कर लें)
पितृपक्ष के कृष्ण पक्ष में होने के कारण इसमें पूर्णिमा तिथि अनुपलब्ध होती है तो धर्मसिधुं का कहना है कि पूर्णिमा का श्राद्ध द्वादशी या अमावस्या को करना उचित रहता है कुछ विद्वान भाद्रपद की पूर्णिमा को भी करने को कहते है!जिन व्यक्ति को अपने पूर्वजों की निधन तिथि याद न हो वे उन सबका श्राद्ध पितृ विसर्जनी अमावस्या के दिन कर सकते है/
गरूड पुराण और अग्नि पुराण में लिखा है कि पितृपक्ष में श्राद्ध करने वाले को दीर्घायु,धन,संपत्ति,संतान,समृद्धि और स्वर्ग की प्राप्ति होती है!ये कर्म और श्लोक संपूर्ण विश्व के हित चिंतन के लिए है!
कूर्मपुराण में श्राद्ध कर्म यज्ञ के समान फल देने वाला बताया है!तथा विष्णुपुराण मेंलिखा है कि यदि किसी की वित्तीय स्थिति श्राद्ध कर्म को करने लायक न हो तो वो व्यक्ति केवल ये करे,किसी गौ के पास जाये और कुछ घास या आटे की लोई लेकर गौ माता के पास ये शब्द कहकर अर्पित कर दे,''हे माता मैं अपने पितरों की तृप्ति हेतु आपमें समस्त देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए आपको ये पदार्थ अर्पित करता हूँ,आप मेरे पितरों को तृप्ति प्रदान करें''!यदि ये भी सम्भव ना हो क्योंकि शहरों में अक्सर गौमाँता के दर्शन नहीं होते तो 'ऐक पात्र में जल लेकर काले तिलके सहित उसे 'तुलसी' देवी के पौधे को सूर्य की ओर मुख करके अर्पण कर दें और वही शब्द कहें परंतु ''हे गौ माँ'' के स्थान पर ''हे सूर्यदेव'' का उच्चारण करें!इस प्रकार भी श्राद्ध करने से आपके पितृ संतुष्ट होंगे इसमें संदेह नहीं,क्योंकि ये स्वम भगवान विष्णु का कथन है!

श्राद्ध पर्व

श्राद्ध पर्व पितृ पक्ष विशेष जहाँ पर भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम के हाथो किये गये
तर्पण से उनके पितरो एवं राजा दशरथ को मिली थी मुक्ति
सचित्र आलेख एवं प्रस्तुति :- रोहित - रामकिशोर पंवार
श्राद्ध पक्ष या पितृ पक्ष के बारे में रामायण में एक कथा पढऩे को मिलती है कि राजा दशरथ के शब्द भेदी से श्रवण कुमार की जल भरते समय अकाल मृत्यु हो गई थी. पुत्र की मौत से दुखी श्रवण कुमार के माता - पिता ने राजा दशरथ को श्राप दिया था कि उसकी भी मृत्यु पुत्र मोह में होगी. राम के वनवास के बाद राजा दशरथ भी पुत्र मोह में मृत्यु को प्राप्त कर गये लेकिन उन्हे जो हत्या का श्राप मिला था जिसके चलते उन्हे स्वर्ग की प्राप्ति नहीं हो सकी. एक अन्य कथा यह भी है कि ज्येष्ठ पुत्र के जीवित रहते अन्य पुत्र द्वारा किया अंतिम संस्कार एवं क्रियाक्रम भी शास्त्रो के अनुसार मान्य नहीं है. ऐसे में राजा दशरथ को मुक्ति नहीं प्राप्त हो सकी थी. राजा दशरथ द्वारा ताप्ती महात्म की बताई कथा का भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम को ज्ञान था. इसलिए उन्होने सूर्यपुत्री देव कन्या मां आदिगंगा ताप्ती के तट पर अपने अनुज लक्ष्मण एवं माता सीता की उपस्थिति में अपने पितरो एवं अपने पिता का तर्पण कार्य ताप्ती नदी में किया था. भगवान श्री राम ने बारहलिंग नामक स्थान पर रूक कर यहां पर भगवान विश्वकर्मा की मदद से बारह लिंगो की आकृति ताप्ती के तट पर स्थित चटटनो पर ऊकेर कर उनकी प्राण प्रतिष्ठा की थी. बारहलिंग में आज भी ताप्ती स्नानगार जैसे कई ऐसे स्थान है जो कि भगवान श्री राम एवं माता सीता के यहां पर मौजूदगी के प्रमाण देते है. एक अन्य कथा के अनुसार दुर्वशा ऋषि ने देवलघाट नामक स्थान पर बीच ताप्ती नदी में स्थित एक चटटन के नीचे से बने सुरंग द्वार से स्वर्ग को प्रस्थान किया था. शास्त्रो में कहा गया है कि यदि भूलवश या अनजाने से किसी भी मृत देह की हडड्ी ताप्ती के जल में प्रवाहित हो जाती है तो उस मृत आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. जिस प्रकार महाकाल के दर्शन करने से अकाल मौत नहीं होती ठीक उसी प्रकार किसी भी अकाल मौत के शिकार बनी देह की अस्थियां ताप्ती जल में प्रवाहित करने या उसका अनुसरण करके उसे ताप्ती जल में प्रवाहित किये जाने से अकाल मौत का शिकार बनी आत्मा को भी प्रेत योनी से मुक्ति मिल जाती है. ताप्ती नदी के बहते जल में बिना किसी विधि - विधान के यदि कोई भी व्यक्ति अतृप्त आत्मा को आमंत्रित करके उसे अपने दोनो हाथो में जल लेकर उसकी शांती एवं तृप्ति का संकल्प लेकर यदि उसे बहते जल में प्रवाहित कर देता है तो मृत व्यक्ति की आत्मा को मुक्ति मिल जाती है. सबसे चमत्कारिक तथ्य यह है कि ताप्ती के पावन जल में बारह माह किसी भी मृत व्यक्ति का तर्पण कार्य संपादित किया जा सकता है. इस तर्पण कार्य को ताप्ती जन्मस्थली मुलताई में गायत्री परिवार द्वारा नि:शुल्क संपादित किया जाता है . ताप्ती नदी के जल में मुलताई से लेकर सूरत गुजरात तक कोई भी व्यक्ति किसी भी धर्म - जाति - सम्प्रदाय - वर्ग का अपने किसी भी परिजन या परिचित व्यक्ति की मृत आत्मा का तर्पण कार्य संपादित कर सकता है.
सूर्यपुत्री मां ताप्ती भारत की पश्चिम दिशा में बहने वाली प्रमुख दो नदियो में से एक है. यह नाम ताप अर्थात उष्ण गर्मी से उत्पन्न हुआ है. वैसे भी ताप्ती ताप - पाप - श्राप और त्रास को हरने वाली आदीगंगा कही जाती है. स्वंय भगवान सूर्यनारायण ने स्वंय के ताप को कम करने के लिए ताप्ती को धरती पर भेजा था. यह सतपुड़ा पठार पर स्थित मुलताई के तालाब से उत्पन्न हुई है लेकिन इसका मुख्य जलस्त्रोत मुलताई के उत्तर में 21 अंक्षाश 48 अक्षंाश पूर्व में 78 अंक्षाश एवं 48 अंक्षाश में स्थित 790 मीटर ऊँची पहाड़ी है जिसे प्राचिनकाल में ऋषिगिरी पर्वत कहा जाता था जो बाद में नारद टेकड़ी कहा जाने लगा . इस स्थान पर स्वंय ऋषि नारद ने घोर तपस्या की थी तभी तो उन्हे ताप्ती पुराण चोरी करने के बाद उत्पन्न कोढ़ से मुक्ति का मार्ग ताप्ती नदी नदी में स्नान का महत्व बताया गया था. मुलताई का नारद कुण्ड वही स्थान है जहाँ पर नारद को स्नान के बाद कोढ़ से मुक्ति मिली थी. ताप्ती नदी सतपुड़ा की पहाडिय़ो एवं चिखलदरा की घाटियो को चीरती हुई महाखडड में बहती है. 201 किलोमीटर अपने मुख्य जलस्त्रोत से बहने के बाद ताप्ती पूर्वी निमाड़ में पहँुचती है. पूर्वी निमाड़ में भी 48 किलोमीटर सकरी घाटियो का सीना चीरती ताप्ती 242 किलोमीटर का सकरा रास्ता खानदेश का तय करने के बाद 129 किलोमीटर पहाड़ी जंगली रास्तो से कच्छ क्षेत्र में प्रवेश करती है. लगभग 701 किलोमीटर लम्बी ताप्ती नदी में सैकड़ो कुण्ड एवं जल प्रताप के साथ डोह है जिसकी लम्बी खाट में बुनी जाने वाली रस्सी को डालने के बाद भी नापी नही जा सकी है. इस नदी पर यूँ तो आज तक कोई भी बांध स्थाई रूप से टिक नही सका है मुलताई के पास बना चन्दोरा बांध इस बात का पर्याप्त आधार है कि कम जलधारा के बाद भी वह उसे दो बार तहस नहस कर चुकी है. सूरत को बदसूरत करने वाली ताप्ती वैसे तो मात्र स्मरण मात्र से ही अपने भक्त पर मेहरबान हो जाती है लेकिन किसी ने उसके अस्तित्व को नकारने की कुचेष्टïा की तो वह फिर शनिदेव की बहन है कब किसकी साढ़े साती कर दे कहा नही जा सकता. ताप्ती नदी के किनारे अनेक सभ्यताओं ने जन्म लिया और वे विलुप्त हो गई .भले ही आज ताप्ती घाटी की सभ्यता के पर्याप्त सबूत न मिल पाये हो लेकिन ताप्ती के तपबल को आज भी कोई नकारने की हिम्मत नही कर सका है. पुराणो में लिखा है कि भगवान जटाशंकर भोलेनाथ की जटा से निकली भागीरथी गंगा मैया में सौ बार स्नान का , देवाधिदेव महादेव के नेत्रो से निकली एक बुन्द से जन्मी शिव पुत्री कही जाने वाली माँ नर्मदा के दर्शन का तथा माँ ताप्ती के नाम का एक समान पूण्य एवं लाभ है . वैसे तो जबसे से इस सृष्टिï का निमार्ण हुआ है तबसे मूर्ति पूजक हिन्दू समाज नदियों को देवियों के रूप में सदियों से पूजता चला आ रहा है . हमारे धार्मिक गंथो एवं वेद तथा पुराणो में भारत की पवित्र नदियों में ताप्ती एवं पूर्णा का भी उल्लेख मिलता है . सूर्य पुत्री ताप्ती अखंड भारत के केन्द्र बिन्दु कहे जाने वाले मध्यप्रदेश के बैतूल जिले के प्राचीन मुलतापी जो कि वर्तमान में मुलताई कहा जाता है . इस मुलताई नगर स्थित तालाब से निकल कर समीप के गौ मुख से एक सुक्ष्म धार के रूप में बहती हुई गुजरात राज्य के सूरत के पास अरब सागर में समाहित हो जाती है . सूर्य देव की लाड़ली बेटी एवं शनिदेव की प्यारी बहना ताप्ती जो कि आदिगंगा के नाम से भी प्रख्यात है वह आदिकाल से लेकर अनंत काल तक मध्यप्रदेश ही नहीं बल्कि महाराष्टï्र एवं गुजरात के विभिन्न जिलों की पूज्य नदियों की तरह पूजी जाती रहेगी . जिसका एक कारण यह भी है कि सूर्यपुत्री ताप्ती मुक्ति का सबसे अच्छा माध्यम है . सबसे आश्चर्य जनक तथ्य यह है कि सूर्य पुत्री ताप्ती की सखी सहेली कोई और न होकर चन्द्रदेव की पुत्री पूर्णा है जो की उसकी सहायक नदी के रूप में जानी - पहचानी जाती है . पूर्णा नदी भैंसदेही नगर के पश्चिम दिशा में स्थित काशी तालाब से निकलती हैं. प्रतिवर्ष लाखों की संख्या में श्रद्घालु लोग अमावस्या और पूर्णिमा के समय इन नदियों में नहा कर पूर्ण लाभ कमाते हैं . एक किवदंती कथाओं के अनुसार सूर्य और चन्द्र दोनों ही आपस में एक दूसरे के विरोधी रहे हैं , तथा दोनों एक दूसरे को फूटी आँख नहीं सुहाते हैं. ऐसे में दोनों की पुत्रियों का अनोखा मिलन बैतूल जिले में आज भी लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बना हुआ हैं .
धरती पर ताप्ती के अवतरण की कथा
पौराणिक कथाओं में उल्लेखित वर्णन के अनुसार एक समय वह था जब कपिल मुनि से शापित जलकर नष्टï हो पाषाण बने अपने पूर्वजों का उद्धार करने इस पृथ्वी लोक पर, गंगा जी को लाने भागीरथ ने हजारों वर्ष घोर तपस्या की थी. उसके फलस्वरूप गंगा ने ब्रम्ह कमण्डल (ब्रम्हलोक से) धरती पर, भागीरथ के पूर्वजों का उद्धार करने आने का प्रयत्न तो किया परंतु वसुन्धरा पर उस सदी में मात्र ताप्ती नदी की ही सर्वत्र महिमा फैली हुई थी. ताप्ती नदी का महत्व समझकर श्री गंगा पृथ्वी लोक पर आने में संकुचित होने लगी, तदोउपरांत प्रजापिता ब्रम्हा विष्णु तथा कैलाश पति शंकर भगवान की सूझ से देवर्षिक नारद ने ताप्ती महिमा के सारे ग्रंथ लुप्त करवा दिये, तब ही गंगा धारा पर सूक्ष्म धारा में हिमालय से प्रगट हुई, ठीक उस समय से सूर्य पुत्री कहलाने वाली ताप्ती नदी का महत्व कुछ कम हो गया, कुछ ऐसी ही गाथाये मुनि ऋषियों से अक्सर सुनी जाती रही है, आज भी ताप्ती जल में एक विशेष प्रकार का वैज्ञानिक असर पड़ा है, जिसे प्रत्यक्ष रूप से स्वयं भी आजमाईश कर सकते है. ताप्ती जल में मनुष्य की अस्थियां एक सप्ताह के भीतर घुल जाती है. इस नदी में प्रतिदिन ब्रम्हामुहुर्त में स्नान करने में समस्त रोग एवं पापो का नाश होता है. तभी तो राजा रघु ने इस जल के प्रताप से कोढ़ जैसे चर्म रोग से मुक्ति पाई थी.
ताप्ती का पूर्णा से मिलन
पश्चिम दिशा की ओर तेज प्रभाव से बहने वाली ताप्ती नदी मध्यप्रदेश महाराष्टï्र व गुजरात में करीब 470 मील (सात सौ बावन किलोमीटर) बहती हुई अरब सागर में मिलती हैं. ताप्ती नदी बैतूल जिले में सतपुड़ा की पहाडिय़ों के बीच से निकलती हुई महाराष्टï्र के खान देश में 96 मील समतल तथा उपजाऊ भूमि के क्षेत्र से गुजरती हैं . खान देश में ताप्ती की चौड़ाई 250 से 400 गज तथा ऊंचाई 60 फीट है. इसी तरह गुजरात में 90 मील के बहाव में यह नदी अरब सागर में मिलती हैं . ताप्ती की सहायक नदी कहलाने वाली पूर्णा नदी भैंसदेही के काशी तालाब से निकलती हुई आगे चलकर महाराष्टï्र के भुसावल नगर के पास ताप्ती में मिल जाती हैं.
पुराणों में ताप्ती जी की जन्मकथा
इतिहास के पन्नों पर छपी कहानियों को पढऩे से पता चलता है कि बैतूल जिले की मुलताई तहसील मुख्यालय के पास स्थित ताप्ती तालाब से निकलने वाली सूर्य पुत्री ताप्ती की जन्मकथा महाभारत में आदि पर्व पर उल्लेखित है. पुराणों में सूर्य भगवान की पुत्री तापी जो ताप्ती कहलाई सूर्य भगवान के द्वारा उत्पन्न की गई. ऐसा कहा जाता है कि भगवान सूर्य ने स्वयं की गर्मी या ताप से अपनी रक्षा करने के लिए ताप्ती को धरती पर अवतरित किया था. भविष्य पुराणों में ताप्ती महिमा के बारे में लिखा है कि सूर्य ने विश्वकर्मा की पुत्री संजना से विवाह किया था. संजना से उनकी दो संताने हुई- कालिन्दनी और यम. उस समय सूर्य अपने वर्तमान रूप में नहीं वरन अण्डाकार रूप में थे. संजना को सूर्य का ताप सहन नहीं हुआ . अत: अपने पति की परिचर्चा अपनी दासी छाया को सौंपकर वह एक घोड़ी का रूप धारण कर मंदिर में तपस्या करने चली गई . छाया ने संजना का रूप धारण कर काफी समय तक सूर्य की सेवा की . सूर्य से छाया को शनिचर और ताप्ती नामक दो संतान हुई . इसके अलावा सूर्य की एक और पुत्री सावित्री भी थी . सूर्य ने अपनी पुत्री को यह आशीर्वाद दिया था कि वह विनय पर्वत से पश्चिम दिशा की ओर बहेगी.
यम चतुर्थी के दिन ताप्ती भाई-बहन के स्नान का महत्व
पुराणों में ताप्ती के विवाह की जानकारी पढऩे को मिलती है. वायु पुराण में लिखा है कि कृत युग में चन्द्रवंश में ऋष्य नामक एक प्रताप राजा राज्य करते थे . उनके एक सवरण को गुरू वशिष्ठï ने वेदों की शिक्षा दी. एक समय की बात है सवरण राजपाट का दायित्व गुरू वशिष्ठï के हाथों सौंपकर जंगल में तपस्या करने के लिए निकल गये . वैभराज जंगल में सवरण ने एक सरोवर में कुछ अप्सराओं को स्नाने करते हुए देखा जिनमें से एक ताप्ती भी थी. ताप्ती को देखकर सवरण मोहित हो गया और सवरण ने आगे चलकर ताप्ती से विवाह कर लिया . सूर्य पुत्री ताप्ती को उसके भाई शनिचर (शनिदेव) ने यह आशीर्वाद दिया कि जो भी भाई-बहन यम चतुर्थी के दिन ताप्ती और यमुना जी में स्नान करेगा उन्हें कभी भी अकाल मौत नहीं होगी. प्रतिवर्ष कार्तिक माह में सूर्य पुत्री ताप्ती के किनारे बसे धार्मिक स्थलों पर मेला लगता है जिसमें लाखों की संख्या में श्रद्घालु नर नारी कार्तिक अमावस्या पर स्नान करने के लिये आते हैं .

भगवान श्री राम द्घारा निर्मित बारह शिवलिंग
ऐसी पुरानी मान्यता है कि भगवान श्री राम, लखन, सीता समेत वन गमन के उपरांत इस स्थान पर ठहरे हुए थे. ठीक उसी समय स्वयं श्री राम के हाथों द्घारा निर्मित यह बारह शिवलिंग तथा सीता स्नानागार शुशुप्त रूप से आज भी विद्यमान है, जो पाषाण शिला पर अंकित पुराना इतिहास के गवाह है. ग्राम खेड़ी सांवलीगढ़ से ग्यारह किलोमीटर दूर त्रिवेणी भारती बाबा की तपोभूमि ताप्ती घाट जो इस क्षेत्र में तो क्या संपूर्ण बैतूल जिले में बहुधा जानी पहचानी जगह है. बारहलिंग नामक स्थान पर जो ताप्ती नदी के तट पर स्थित है, यहां कि प्राकृतिक छठा सुन्दर मनमोहक दृश्य आने-जाने वाले यात्रियों का मन मोह लेते है. घने हरियाले जंगलो से आच्छादित प्रकृति की अनुपम छटा बिखरेती हुई ताप्ती नदी शांत स्वरों में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर बहती है. यहां पर नदी के दूसरे तट पर ताप्ती माई का एक विशाल मंदिर दत्तात्रेय, रामलखन सीता तथा गैबीदास महाराज की समाधी स्थल मुख्य आकर्षण का केंद्र है. प्रतिवर्ष यहां कार्तिक पूर्णिमा को तीन दित तक चलने वाला मेला लगता है. यहां समूचे क्षेत्र की जनता अटूट श्रद्धा भक्ति के साथ मेले में तीन दिवस के विधिविधान के साथ भगवान सूर्य को अर्ध देकर स्नान कर पूजा अर्चना करते है और फिर मेले में खरीद फरोख्त करते है. रात्रि में आदिवासियों द्वारा डंडार, नौटंकी आदि कई प्रकार के आयोजन किए जाते है. किंतु विड़म्बना है कि प्रशासन की नाक के नीचे ऐसे प्राकृतिक स्थल कि ओर उनका जरा भी ध्यान नहीं है और आज यह स्थल दुव्र्यवस्थाओं का शिकार हो रहा है .
नदियों के आसपास सर्वाधिक शिवलिंग
बैतूल जिलेे मे सूर्य पुत्री और चन्द्रपुत्री में आज भी दर्जनों की संख्या में मिलने वाले पुराने मंदिरों के अवशेषों में शिवलिंगों की संख्या अधिक है. कहा तो यहां तक जाता है कि ताप्ती नदी के किनारे बसे 12 लिंग स्थान पर नदी में आज भी प्रकृति द्वारा बनाये गये 12 लिंग लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बने हुये हैं. बैतूल जिले की ये दोनों नदियां अपने अंचल में अनेकों शिवलिंगों को समाये हुये हैं. लाखों की संख्या में पहुंचाने वाले शिव भक्तों की श्रद्घा का केन्द्र बनी हुई सूर्य पुत्री ताप्ती और चन्द्रपुत्री पूर्णा बैतूल जैसे पिछड़े जिले का इतिहास के अनेक अनसुलझे रहस्यों को छुपाये हुयी है.
सदियो से बनता चला आ रहा है पत्थरो से बना रामसेतू
भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम द्घारा बनाये गये रामसेतू को लेकर भले ही विवाद छीड़ा हो लेकिन मध्यप्रदेश के बैतूल जिले में तो सदियो से भगवान श्री राम द्घारा स्थापित बारह शिवलिंगो की पूजा करने के लिए आसपास की जनजाति के लोग ताप्ती नदी के इस छोर से उस छोर पर जाने के लिए पत्थरो का पूल ठीक उसी तरह बनाते चले आ रहे है जैसा कि रामसेतू बना था. पूर्व से पश्चिम की ओर तेज प्रवाह से बहने वाली सूर्यपुत्री आदि गंगा कही जाने वाली ताप्ती नदी के एक छोर से दुसरे छोर कार्तिक माह की पूर्णिमा को लगने वाले बारहलिंग के मेले के लिए आने वाली हजारो श्रद्घालु जनता को आने - जाने के लिए इसी पत्थरो से बने अस्थायी पूल से आना - जाना करना पड़ता हैै.अपने पिता राजा दशरथ एवं माता कैकेई के आदेश का पालन करते हुये अपनी पत्नि सीता और अनुज लक्ष्मण के साथ 14 वर्ष का वनवास काटते हुये चित्रकुट से दण्डकारण क्षेत्र में प्रवेश करते समय भगवान मर्यादा पुरूषोत्तम श्री राम जिस पथ से रावण की लंका की ओर चले गये थे उस पथ में शामिल बैतूल जिले का पौराणिक इतिहास कई अनसुलझे रहस्यो को अपने आँचल में छुपाये हुये है . ऐसी पौराणिक कथाओ से जुड़ी एक कथा अनुसार राम से जुड़ी दंत एवं प्रचलित तथा पौराणिक कथाओं के अनुसार कार्तिक माह की पूर्णिमा के दिन भगवान श्रीराम ने ताप्ती नदी के किनारे बारह शिव लिंगो की स्थापना कर उनका पूजन किया था तथा इसी स्थान पर रात्री विश्राम करने की व$जह से आसपास की जनजाति के लोगा यहाँ पर तीन दिन की तीरथ यात्रा क लिए आकर रात्री मुकाम करते हैै. कथाओ एवं पुराणो के अनुसार श्री राम ने वनो में उगने वाले फलो में से एक को जब माता सीता को दिया तो उन्होने इसका नाम जानना चाहा तब भगवान श्री राम ने कहा कि हे सीते अगर तुम्हे यह फल यदि अति प्रिय है तो आज से यह सीताफल कहलायेगा. आज बैतूल जिले के जंगलो एवं आसपास की आबादी वाले क्षेत्रो में सर्वाधिक संख्या में सीताफल पाया जाता है. बारहलिंग नामक स्थान पर आज भी सीता स्नानागार एवं विलुप्त अवस्था में भगवान श्री राम द्घारा पत्थरो पर ऊकेरे गये बारह शिवलिंग स्प्ष्टï दिखाई पड़ते हैै.
सूरजमुखी - सूर्यमुखी ताप्ती
यँू तो भारत की पवित्र नदियो में उल्लेखीत माँ नर्मदा एवं माँ ताप्ती ही पश्चिम मुखी नदियाँ है . ताप्ती और नर्मदा ही एक स्थान पर पूर्व की ओर बही है . गंगा सागर को पवित्र स्थान इसलिए कहा जाता है कि उस स्थान पर गंगा जी पूर्व की ओर बहती है. ताप्ती जिस स्थान पर पूर्व की ओर बही है उस स्थान को सूर्यमुखी , सूरज मुखी , गंगा सागर जैसे कई नामो से पुकारा जाता है . अग्रितोड़ा नामक गांव के पास सूर्यपुत्री ताप्ती ने पश्चिम से पूर्व की ओर अपनी जलधारा को बदल दिया है इसलिए प्रतिवर्ष मकर संक्राति के दिन हजारो की संख्या में दूर - दराज और अन्य जिलो एवं प्रदेशो से श्रद्घालु भक्त माँ ताप्ती के जल में स्नान कर उस जल से उसके पिता सूर्यनारायण एवं भाई शनिदेव को जल अपर्ण कर उनकी पूजा अराधना करते है. मकर संक्राति के अवसर पर ताप्ती में स्नान और ध्यान को ज्योतिषी शास्त्र एवं पंडित तथा जानकार लोग सबसे शुभ अवसर मानते है क्योकि इस दिन आपस में एक दुसरे के घोर विरोधी पिता एवं पुत्र दोनो मां ताप्ती के जल में स्नान और ध्यान से प्रसन्नचित होकर इच्छानुसार मनोकामना पूर्ण करते है. इस स्थान पर रामकुण्ड है जिसके बारे में कहा जाता है कि इस कुण्ड में भगवान श्री राम ने स्नान ध्यान किया था.
जब मेघनाथ ने ताप्ती और नर्मदा की धारा उल्टी बहा दी
यूं तो यह आम धारणा है कि बैतूल जिला सदियों पहले रावण के अधीन राज्य का एक अंग था. इस क्षेत्र में रहने वाले आदिवासी इसी कारण सदियों से होलिका दहन के दूसरे दिन रावण के बलशाली पुत्र मेघनाथ की पूजा करते चले आ रहे है. जिले के हर गांव में जहां पर आदिवासी परिवार रहता है उस गांव में एक स्थान पर जैरी का खंबा गाड़ा होता है और इसी जैरी के खंबे पर चढ़कर पूजा अर्चना की जाती है. रावण संहिता में उल्लेखित कहानी के अनुसार नर्मदा और ताप्ती नदी के किनारे जब रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने अपने तप बल के बल पर नर्मदा और ताप्ती की धाराओं को उल्टी बहा दिया तो उसे देखकर आदिवासी लोग डर गए . उस समय से लेकर आज तक उक्त सभी डरे सहमे आदिवासियों के वंशज पीढ़ी दर पीढ़ी से रावण और उसके बलशाली पुत्र मेघनाथ को ही अपना राजा मानकर उसकी पूजा अर्चना करते चले आ रहे है. रावण संहिता में मेघनाथ को लेकर कई किवदंत कहानियां लिखी हुई है जिसके अनुसार भवगान शिव को प्रसन्न करने के लिए उनकी पुत्री कही जाने वाली माँ नर्मदा एवं सूर्य पुत्री माँ ताप्ती नदी के किनारे रावण और उसके पुत्र मेघनाथ ने काफी समय तक जटिल एवं कठिन तपस्याएं करके अपने तपबल के बल पर बहुत सारी सिद्घियां प्राप्त की थी.
धरातल के गर्त में छुपी हुई कहानियाँ
यँू तो भारत की पवित्र नदियो में उल्लेखीत माँ नर्मदा एवं माँ ताप्ती ही पश्चिम मुखी नदियाँ है . गंगा जी इलाहबाद में जिस दिशा से आती है वापस उसी दिशा में लौटती है. ठीक इसी प्रकार बैतूल जिला मुख्यालाय से मात्र छै किलो मीटर की दूरी पर स्थित बैतूल बाजार नामक शहर के किनारे से बहती सापना नदी जिस दिशा में आती है उसी दिशा में वापस बहती है . ऐसा उन्हीं स्थानों पर होता है जो धार्मिक दृष्टिï से लोगों की श्रद्घा का केन्द्र बने हुये है . नदियों और इंसानों का रिश्ता शायद सबसे पुराना रिश्ता है तभी तो नदियों के किनारे अनेक सभ्यताओं ने समय-समय पर जन्म लिया है . आज आवश्यकता है पुरातत्व विभाग की जो इन नदियों के आगोश में छुपे रहस्यों को खोज निकाले ताकि यह पता चल सके कि आज के बैतूल और भूतकाल के इस धार्मिक क्षेत्र का इतिहास क्या था? यहां यह उल्लेखनीय है कि बैतूल जिले में ही जैनियों की पवित्र मुक्तागिरी नामक तीर्थ स्थली हैं जहां पर आज भी केसर की वर्षा होती है . जिला मुख्यालय से लगे एक प्राचीन गांव बैतूल बाजार नामक पूरे देश दुनिया में एक मात्र मंदिरों का गाँव है, जहां पर बहुसंख्या में शिवमंदिर देखने को मिलते हैं. हिन्दू वेद एवं पुराणों तथा ग्रंथों में अनेक नामों से उल्लेखित इस गांव का इतिहास आज तक पता नही चल सका है . आज इस जिले की धरातल के गर्त में अनकोनेक छुपी हुई कहानियों और किस्सो को ढूंढ निकालने की आवश्यकता है .

घंटियां

हिंदू धर्म से जुड़े प्रत्येक मंदिर और धार्मिक स्थलों के बाहर आप सभी ने बड़े-बड़े घंटे या घंटियां लटकी तो अवश्य देखी होंगी जिन्हें मंदिर में प्रवेश करने से पहले भक्त श्रद्धा के साथबजाते हैं. लेकिन क्या कभी आपने यहसोचा है कि इन घंटियों को मंदिरके बाहर लगाए जाने के पीछे क्या कारण है या फिर धार्मिक दृष्टिकोण से इनका औचित्य क्या है?
असल में प्राचीन समय से ही देवालयों और मंदिरों के बाहर इन घंटियों को लगाया जाने की शुरुआत हो गई थी. इसके पीछे यह मान्यता हैकि जिन स्थानों पर घंटी की आव
ाज नियमित तौर पर आती रहती है वहां का वातावरण हमेशा सुखद और पवित्र बना रहता है और नकारात्मक या बुरीशक्तियां पूरी तरह निष्क्रिय रहती हैं.
यही वजह है कि सुबह और शाम जब भी मंदिरमें पूजा या आरती होती है तोएक लय और विशेष धुन के साथ घंटियां बजाई जाती हैं जिससे वहां मौजूद लोगों को शांति और दैवीय उपस्थिति की अनुभूति होती है.
लोगों का मानना है कि घंटी बजाने से मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की मूर्तियों में चेतना जागृत होती है जिसके बाद उनकी पूजा और आराधना अधिक फलदायक और प्रभावशाली बन
जाती है.
पुराणों के अनुसार मंदिर में घंटी बजाने से मानव के कई जन्मों के पाप तक नष्ट हो जाते हैं. जब सृष्टि का प्रारंभ हुआ तब जो नाद (आवाज) गूंजी थीवही आवाज घंटी बजाने पर भी आती है. उल्लेखनीय है कि यही नाद ओंकार के उच्चारण से भी जागृत होता है.
मंदिर के बाहर लगी घंटी या घंटे को काल का प्रतीक भी माना गया है. कहीं-कहीं यह भी लिखित है कि जब प्रलय आएगा उस समय भी ऐसा ही नाद गूंजेगा.
मंदिर में घंटी लगाए जाने के पीछेना सिर्फ धार्मिक कारण है बल्कि वैज्ञानिक कारण भी इनकी आवाज को आधार देते हैं. वैज्ञानिकों का कहना है कि जब घंटी बजाई जाती है तो वातावरण में कंपन पैदा होता है, जो वायुमंडल के कारण काफी दूर तक जाता है. इस कंपन का फायदा यह है कि इसके क्षेत्र में आने वाले सभी जीवाणु, विषाणु और सूक्ष्म जीव आदि नष्ट हो जाते हैं, जिससे आसपासका वातावरण शुद्ध हो जाता है.
इसीलिए अगर आप मंदिर जाते समय घंटी बजाने को अहमियत नहीं देते हैं तो अगली बार प्रवेश करने से पहले घंटी बजाना ना भूलें.

बेटी के घर का अन्न-जल माँ-बाप को क्यूँ नहीं ग्रहण करना चाहिए.??



अक्सर हम ये सुनते हैं की हमारे शास्त्रों में कहा गया है की शादी के बाद अपनी बेटी के घर (ससुराल) जाकर कुछ नहीं खाना चाहिए . यहाँ तक की बेटी के घर का पानी भी नहीं पीना चाहिए. उसका कारण ये है की माँ-बाप ने अपनी कन्या का दान कर दिया है और दान की हुई किसी भी वास्तु पर दाता का कोई अधिकार नहीं होता है. जब तक बेटी की कोई संतान न पैदा हो तब तक उसके घर का अन्न-जल नहीं लेना चाहिए. जब बेटी के घर संतान पैदा हो जाये तो ये पाबन्दी नहीं होती है. इसका कारण ये है की उनके दामाद ने अपने पित्रऋण से मुक्त होने के लिए उनकी बेटी को स्वीकार किया है. उससे संतान होने पर दामाद पित्रऋण से मुक्त हो जाता है और बेटी पर माँ--बाप का अधिकार हो जाता है. तभी तो दैहित्र या दोता अपने नाना-नानी का श्राद तर्पण करता है और परलोक में नाना-नानी अपने दोते का किया हुआ श्राद-तर्पण, पिंड-पानी स्वीकार भी करते हैं. अगर बेटी के घर पुत्र नहीं होकर पुत्री भी पैदा होती है तो भी दामाद पर से पित्रऋण का भार समाप्त हो जाता है. बेटी की संतान पुत्र हो या पुत्री उससे कोई फर्क नहीं पड़ता. एक बार संतान होने के बाद बेटी के घर का अन्न-जल ग्रहण करने में कोई मनाही नहीं है.

साभार- नेहा घई
यज्ञ मात्र श्रद्धा का विषय नहीं है ,,,यह एक प्रयोग जन्य विज्ञान है इसे अन्य भौतिक प्रयोगों के समान ही विज्ञान 
की प्रयोगशाला मे सिद्ध किया जा सकता है
विज्ञान अब इस निष्कर्ष पर पहुचता जा रहा है कि हानिकारक या लाभदायक पदार्थ उदर मे पहुच कर उतनी हानि नहीं पहुचाते जितना उसके द्वारा उत्पन्न वायु विक्षोभ प्रभावित करता है ,,,किसी वस्तु को उदरस्थ करने पर होने वाली लाभ हानि उतनी अधिक प्रभावशाली नहीं होती जितनी की उसके विद्युत आवेग संवेग
कोई भी पदार्थ सामान्य स्थिति मे जहाँ रहता है वहाँ के विद्युत कम्पनों से कुछ ना कुछ प्रभाव छोड़ता है पर यदि अग्नि संस्कार के साथ उसे जद दिया जाए तो उसकी प्रभाव शक्ति अनंत गुनी बढ़ जाती है
शोधकर्ताओं का निष्कर्ष है कि तम्बाकू मे रहने वाले रसायन उतने हानिकारक नहीं हैं जितने कि उसके धुएं के कारण सांस लेने पर उत्पन्न प्रभाव ,,,मतलब पास मे बैठने वाले को भी हानि उठानी पड़त
ी है ,,,तथा इससे बचा भी नहीं जा सकता ,,(( यह नैतिकता का पाठ पढाये बिना कैसे नियंत्रित किया जा सकता है ??))
आक्सीजन की समुचित मात्रा होने पर ही वायु हमारे लिए स्वस्थ्य रक्षण कर सकती है ,,अगर उसमे कार्बन आक्साइड तथा अन्य विषैली गैसें अधिक मात्रा मे शामिल हो जाएँ तो वह ही हमारे लिए अत्यधिक नुक्सान दायक हो जायेगी इसमें शंका नहीं है ....वायु प्रदुषण से निपटने के लिए सरकार क्या कदम उठा सकती है ?? यह भी बहुत बड़ा प्रश्न है ,,,विश्व की घटनाओं को भी अगर देखा जाए तो वह इस ओर प्रबल संकेत करती हैं कि अगर वायु प्रदूसन इसी तरह बढ़ता रहा तो मनुष्य का अस्तित्व ही खतरे मे पड़ जाएगा
नैसर्गिक तत्वों के प्रति श्रद्धा और सानिध्यता स्थापित किये बिना मनुष्य कभी भी सुखी नहीं रह सकता ,,,और सनातन धर्म की यज्ञ आदि प्राचीन परम्पराओं मे इसके प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा शामिल थी ,, जो कि उसकी प्रत्येक कृति मे शामिल थी जिसे हम आज नकारते जा रहे हैं
जीवन रक्षक दवा सामने है फिर भी बीमार बने बैठे हैं और अपने को काल के गाल मे जाते हुए देख रहे हैं ,,आईये लौट चलें

यज्ञ /हवन मे शारीरिक एवँ मानसिक रोगों के निवारण की सम्पुर्ण क्षमता :::

शारीरिक रोगों के निवारण करने के अतिरिक्त हवन की वायु से मानसिक रोगों के निवारण की अपूर्व क्षमता है ,,,
अभी तक केवल पागलपन और विक्षिप्तता के ही इलाज एलोपैथ में निकले हैं ,,,पर पूर्ण पागलों की अपेक्षा आधे पागलों की संख्या संसार मे शारीरिक रोगियों से भी अधिक है . मनोविकारों से ग्रसित लोग अपने लिए तथा सम्पूर्ण समाज के लिए अनेकानेक समस्याएं उत्पन्न करते हैं . शारीरिक रोगों की तो दवा दारू भी है पर मनोविकारों की कोई चिकित्सा अभी तक नहीं निकल सकी है ,,,परिणाम स्वरुप सनक , उद्वेग , आवेश , संदेह , कामुकता , अहंकार , अविश्वास , निराशा , आलस्य , विस्मृति ....आदि अनेक मनोविकारों से ग्रस्त लोग स्वयं उद्विग्न रहते हैं और सम्बंधित सभी लोगों को खिन्न बनाए रहते हैं ....
इन् सभी मनोविकारों की एक मात्र चिकित्सा हवन है
हवन सामग्री की सुगंध के साथ साथ दिव्य वेदमंत्रों के प्रभावशाली कंपन मस्तिष्क के मर्म स्थलों को छूते और प्रभावित करते हैं ..फलतः मनोविकारों के निवारण मे इसका बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है
भारतीय संस्कृति मे जन्म से लेकर मृत्यु तक षोडश संस्कारों मे हवन को अनिवार्य रूप से जोड़ा गया है ताकि उसके प्रभावों से मनोविकारों की जड़ें कटती रहें
मनुस्मृति मे यज्ञ के संपर्क से ब्राह्मणत्व के उदय की बात कही गयी है कारण है हवन व यज्ञ के संपर्क से मनुष्य विचारवान और चरित्रवान दोनो ही विशेषताओं से युक्त बनता है ,,
रोगों के कीटाणुओं को नष्ट करने के लिए यज्ञ धूम्र की शक्ति को प्राचीनकाल मे भली भांति परखा गया था इसका उल्लेख शास्त्रों मे स्थान स्थान पर मिलता है ...यथा...
यजु. २ -२५ मे वर्णन आता है कि अग्नि मे प्रक्षिप्त जो रोगनाशक , पुष्टिप्रदायक और जल आदि संशोधक हवन सामग्री है , वह भष्म होकर वायु द्वारा बहुत दूर तक पहुचती है और वहाँ पहुचकर रोगादिजनक वस्तुओं को नष्ट कर देती है , इस हेतु वेद मे कहा गया है कि जो वस्तु हम लोगों से द्वेष करती है एवँ जिससे हम लोग द्वेष करते हैं वह वस्तु यज्ञ के द्वारा नष्ट हो जाती है ,,,अर्थात यज्ञ से इहलौकिक एवँ पारलौकिक कल्याण दोनो ही होते हैं
अथर्व का० ३ सूक्त११ मन्त्र २ मे वर्णन आता है कि रोग के कारण यदि रोगी न्यून आयु वाला हो अथवा इस संसार के सुखों से दूर हो , चाहे मृत्यु के निकट आ चूका हो , ऐसे रोगी को भी मै ( हवन ) महारोग के पाप से छुडाता हूँ ,,,और रोगी को सौ ऋतुओं तक जीने के लिए प्रबल करता हूँ
शतपथ ब्राह्मण २ / ४,३ / २-२ मे आया है कि अन्न वनस्पतियों मे प्रविष्ट हुई स्थूल और सूक्ष्म असुरता का , विकृति ,रुग्णता एवँ दुष्टता का शमन करने के लिए यज्ञ अमोघ उपाय है

गोग्रास

 भोजन से पहले गाय को खिलाएं गोग्रास, क्योंकि..
सनातन धर्म परंपराएं संस्कार, मर्यादा, भावनाओं और जीवन मूल्यों से ओतप्रोत है। इसी कड़ी में गाय को ग्रास यानी भोजन से पहले उसका कुछ हिस्सा गाय को खिलाना भी प्रमुख है। जो धार्मिक परंपरा ही नहीं है, बल्कि इससे व्यक्ति, परिवार और समाज के लिए एक अहम सबक भी जुड़ा है, जो खुशहाल जीवन के लिए बेहद अहम है। जानिए, क्या है गाय को ग्रास देने के पीछे खास संदेश
सनातन धर्म में गाय पवित्र और पूजनीय प्राणी है। इसके पीछे समुद्र मंथन से कामधेनु का निकलना या गाय में करोड़ों देवी-देवताओं के वास होने की धार्मिक मान्यताएं भी प्रमुख हैं। वहीं, व्यावहारिक रूप से देखा गया है कि गाय के दूध से लेकर मूत्र तक शरीर को निरोगी रखने वाले होते हैं।
इस तरह देखा जाए तो पावनता ही गाय की सबसे बड़ी खासियत है। गो ग्रास भी गाय की तरह कर्म, स्वभाव, चरित्र और आचरण की पवित्रता का अहम संदेश देता है। क्योंकि ऐसा होने पर ही किसी व्यक्ति का परिवार या समाज में मान, प्रतिष्ठा, रुतबा और समर्थन बढ़ता है।
यही नहीं, गाय स्वभाव से अहिंसक प्राणी है, जो सिखाती है कि स्वभाव से भद्र बने। भद्र यानी विनम्र, निडर, खुले और सीधी सोच का इंसान। जिसकी संगति हर कोई पसंद करता है।
इस तरह गोग्रास परंपरा से चरित्र और स्वभाव की पावनता का सूत्र अपनाएं। जिससे मिला यशस्वी और सफल जीवन आपके साथ पूर्वजों का भी मान-सम्मान बरकरार रखेगा। वैसे ही जैसे गाय और उसकी देह का हर अंश अपेक्षित और पूजनीय है।

पढ़ाई में मन की एकाग्रता हेतु सरल, चमत्कारी टिप्स

पढ़ाई में मन की एकाग्रता हेतु सरल, चमत्कारी टिप्स

अपने अध्ययन कक्ष में मां सरस्वती का छोटा सा चित्र लगाएं व पढ़ने के लिए बैठने से पूर्व उसके समक्ष कपूर का दीपक जलाएं अथवा तीन अगरबत्ती हाथ जोड़ कर जलाएं, प्रार्थना करें व पढ़ाई शुरू करें।


एक थाली में केसर में गंगाजल मिलाकर बनी स्याही से स्वास्तिक चिह्न बनाएं। उस पर नैवेद्य चढ़ाएं। सामने शुद्ध घी का दीपक जला कर रखें। ऊपर वर्णित किसी स्तोत्र (संस्कृत अथवा हिंदी) से मां सरस्वती की स्तुति करें। इसके बाद थाली में जल मिलाकर गिला

स में डालकर पी लें। ऐसा करने से शिक्षा के क्षेत्र में पूर्ण उन्नति होती है।

अध्ययन कक्ष के द्वार के बाहर अधिक प्रकाश देने वाला बल्ब लगाएं उसे शाम होते ही जल दें।

विद्यार्थी अपनी मेज पर ग्लोब रखें और दिन में तीन बार उसे घुमाएं।

परीक्षाओं से पांच दिन पूर्व से बच्चों को मीठा दही नियमित रूप से दें। उसमें समय परिवर्तन करें। यदि एक दिन सुबह 8 बजे दही दिया है तो अगले दिन 9 बजे, उसके अगले दिन 10 बजे, उसके अगले दिन 11 बजे दें। इस क्रिया को दोहराते रहें और प्रतिदिन एक घंटा बढ़ाते रहें।


पढ़ते समय विद्यार्थी का मुंह पूर्व अथवा उत्तर दिशा में होना चाहिए। पश्चिम की ठोस दीवार की ओर पीठ करके बैठना चाहिए।

कंप्यूटर आग्नेय कोण में (दक्षिण-पूर्व) तथा पुस्तकों की अल्मारी नैर्ऋ्रत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम) में रखें। अल्मारी खुली न रखें। उस पर दरवाजा न हो तो परदा अवश्य लगाएं।

एक क्रिस्टल बाॅल अथवा क्रिस्टल का श्रीयंत्र लाकर अपने अध्ययन कक्ष में रख लें। यह नकारात्मक ऊर्जा को सोख लेता है।

विद्यार्थी सुबह उठते ही ‘‘¬ ऐं ह्रीं सरस्वत्यै नमः’’ का 21 बार जाप करें।

जो बच्चे पढ़ते समय शीघ्र सोने लगते हैं, अथवा मन भटकने के कारण अध्ययन नहीं कर पाते उनके अध्ययन कक्ष में हरे रंग के परदे लगाएं।


जिन बच्चों की स्मरण शक्ति कमजोर हो, उन्हें तुलसी के 11 पत्तों का रस मिश्री के साथ नियमित रूप से दें।

कैसा हो विद्यार्थियों का अध्ययन कक्ष


पढ़ाई में अच्छी सफलता प्राप्त करने के लिए विद्यार्थियों को चाहिए कि वे अपने अध्ययन के लिए घर में वास्तु के अनुकूल स्थान का चयन कर उसे वास्तु के अनुकूल ही सजाएं। वास्तुषास्त्र के अनुसार दो दिशाएं एवं एक कोण ज्ञान प्राप्ति के लिए शुभ हैं पूर्व दिशा, जिसका प्रतिनिधि ग्रह सूर्य है ईशान कोण जिसका प्रतिनिधि ग्रह गुरु है और उत्तर दिशा, जिसका प्रतिनिधि ग्रह बुध है।
अध्ययन कक्ष का दरवाजा पूर्व ईशान, दक्षिण आग्नेय, पश्चिम वायव्य व उत्तर ईशान में होना चाहिए। इनमें से किसी में भी दरवाजा रखने से कमरे में साज सज्जा ज्यादा व्यवस्थित होगी। विद्यार्थियों को दरवाजे की तरफ पीठ करके कभी भी अध्ययन नहीं करना चाहिए।
यदि सूर्य की सुबह की किरणें अध्ययन कक्ष में आती हों तो खिड़की दरवाजे सुबह के वक्त खोलकर रखने चाहिए ताकि सुबह के सूर्य की सकारात्मक ऊर्जा का लाभ मिल सके। यदि सूर्य की शाम की किरणें आती हों तो बिल्कुल न खोलें ताकि दोपहर व उसके बाद की नकारात्मक ऊर्जा से बच सकें।
घर की पश्चिम दिशा में बच्चों को पूर्व दिशा की ओर मुंह करके पढ़ना-लिखना चाहिए। इस स्थिति में वे अपने विषय को बड़ी जल्दी समझ पाते हैं और कम समय में याद कर परीक्षा में अच्छे नंबर प्राप्त करते हैं। यदि घर की पश्चिम दिशा में पढ़ने का स्थान न हो तो घर के ईशान कोण स्थित कमरे में पूर्व मुखी बैठकर पढ़ना चाहए। यदि पूर्वमुखी बैठकर पढ़ने की व्यवस्था न हो तो ऐसी स्थिति में ईशान कोण या उत्तर दिशा की ओर मुंह करके पढ़ना भी शुभ होता है।
यदि विद्यार्थी कंप्यूटर का प्रयोग करते हों तो कंप्यूटर आग्नेय से दक्षिण व पश्चिम के मध्य कहीं भी रख सकते हैं। ध्यान रहे ईशान कोण में कंप्यूटर कभी न रखें। ईशान कोण में रखा कंप्यूटर बहुत ही कम उपयोग में आता है।
विद्यार्थियों को सदैव दक्षिण या पश्चिम की ओर सिर करके सोना चाहिए। दक्षिण में सिर करके सोने से स्वास्थ्य अच्छा रहता है, और पश्चिम में सिर करके सोने से पढ़ने की ललक बनी रहती है।
विद्यार्थियों को किसी बीम या दुछत्ती के नीचे बैठकर पढ़ना या सोना नहीं चाहिए अन्यथा मानसिक तनाव उत्पन्न होता है और पढ़ाई में मन नहीं लगता।
अध्ययन कक्ष के ईशान कोण में आराध्य देव व पीने के पानी की व्यवस्था भी रखनी चाहिए। अध्ययन कक्ष की अन्य दीवारों पर महापुरुषों और अपने चहेते सफल व्यक्तियों के चित्र लगाने चाहिए।
अध्ययन कक्ष की दीवार व पर्दे का रंग हल्का पीला, हल्का हरा, हल्का आसमानी या हल्का बादामी हो तो बेहतर है। सफेद रंग हो, तो विद्यार्थियों पर सुस्ती छाई रहती है।
यदि अध्ययन कक्ष में एक से अधिक बच्चे पढ़ते हों तो उनके हंसते मुस्काते हुए सामूहिक फोटो कक्ष में अवश्य लगाएं, इससे उनमें मिल जुलकर रहने की भावना विकसित होगी।
अध्ययन कक्ष में खाने की वस्तुएं जैसे बिस्किट, चना, मूंगफली, स्नैक्स, इत्यादि रखनी चाहिए, इससे ज्ञान बढ़ता है तथा पढ़ाई में नाम रोशन होता है।
किताबों की आलमारी या रैक दक्षिण, पश्चिम में रखे जा सकते हैं। उन्हें वायव्य कोण में नहीं रखना चाहिए, क्योंकि यहां से किताबें गायब होने का भय रहता है। कोशिश करनी चाहिए कि किताबें अध्ययन कक्ष में खुली आलमारी या रैक में न रखें।
अध्ययन कक्ष के साथ यदि टाॅयलेट हो, तो उसका दरवाजा हमेशा बंद रखें। टाॅयलेट को ज्यादा न सजाएं किंतु साफ सफाई का पूरा ध्यान रखें।
यदि आप अच्छा कैरियर बनाना चाहते हैं तो अध्ययन कक्ष में अनावश्यक पुरानी किताबें व कपड़े न रखें अर्थात किसी भी प्रकार का कबाड़ा कमरे में नहीं होना चाहिए। कमरे में डस्टबिन अवश्य रखना चाहिए।
यदि घर के सामने वाले भाग के दोनों तरफ की खिड़कियां टूटी-फूटी और पुरानी हों तो इसका बच्चों की पढ़ाई लिखाई पर बुरा असर पड़ता है।
जिस घर में उत्तर दिशा में पूजाघर होता है उस घर की सबसे छोटी बहन या भाई उच्च शिक्षा प्राप्त करता है।

सरस्वती -पूजन


माँ सरस्वती के स्वरुप वर्णन में ही सच्चे सारस्वत के लिए मार्गदर्शन है...
याकुंदेंदुतुषारहार धवला सरस्वती कुंद , इंदु , तुसार और मुक्ताहार जैसी धवल हैं ; सच्चा सारस्वत भी वैसा ही होना चाहिए कुंद पुष्प सौरभ प्रसारता है ...इंदु
( चन्द्रमा ) शीतलता देता है ...तुसारविन्दु ( ओश ) सृष्टि का सौंदर्य बढाता है ...और मुक्ताहार व्यवस्था का वैभव प्रकट करता है
सच्चे सारस्वत का जीवन सौरभ युक्त होना चाहिए ...पुष्प की सुगंध जिस प्रकार सहज प्रसरती है उसी प्रकार उसी प्रकार सारस्वत के निर्मल ज्ञान की सुगंध वातावरण में चाहू ओर प्रसरती रहनी चाहिए
....चन्द्र जिस प्रकार विश्व में शांति व शीतलता प्रदान करता है उसी प्रकार सारस्वत मानवों के संतप्त जीवन में शांति व शीतलता प्रदाता होना चाहिए ....
वृक्षों के पत्तों पर पड़ा ओश विन्दु जिस प्रकार मोती की शोभा धारण कर के वृक्ष के सौंदर्य को बढाता है उसी प्रकार सच्चे सारस्वत की उपस्थिति से इस संसार वृक्ष की शोभा बढती है
हार अर्थात मुक्ताहार ...एक मोती की तुलना में मोतियों का हार ज्यादा अच्छा लगता है ...सरस्वती के उपासकों को भी इस तरह एक साथ , एक सूत्र में बंध कर काम करने की तैयारी रखनी चाहिए ....विद्वानों की शक्ति का ऐसा व्यवस्थित योग किसी भी महँ कार्य को सुसाध्य बना सकता है ...एक एक विद्वान एक -एक मोती हैं
...लेकिन वो यदि भगवान के सूत्र में पिरोये जाएँ तो उनकी शक्ति अनेकों गुनी बढ़ जाए ...
या शुभ्र वस्त्रावृतामाँ सरस्वती श्वेत वस्त्र धारण किये हुए हैं .. माँ सरस्वती का उपासक भी शरीर , मन, वाणी व कर्म से शुभ्र होना चाहिए ...
माँ सरस्वती के उपासक अर्थात वो सभी जिनको जीवन में ज्ञान की महत्ता सर्वश्रेष्ट लगती हो ...वो सभी जो मानते हों की ...'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रं इह विद्यते'..."ज्ञानेन ही मुक्तिः "
सर्वप्रथम समाज के वो सभी लोग जैसे संत समाज , ब्राह्मण , शिक्षक...... आदि जिनके ऊपर समाज को ज्ञान प्रदान करने की जिम्मेदारी है ...कर्तव्य है ...का जीवन भी शरीर , मन ,वाणी व कर्मों से शुभ्र होना चाहिए .... इनके जीवन-वस्त्र पर कोई भी दाग नहीं होना चाहिए ...
यावीणावरदंडमंडितकरा
..सरस्वती के हाथ वीणा के वर दंड से शोभित हैं
वीणा संगीत का प्रतीक है ..संगीत एक कला है ..इस दृष्टि से देखने पर सरस्वती का उपासक संगीत का प्रेमी और जीवन का कलाकार होना चाहिए ...संगीत अर्थात सम्यक गीत .."साहित्य संगीत कला विहीनः साक्षात् पशु पुच्च विषाण हीनः "साहित्य, संगीत , कला आदि मानव की संवेदन शीलता के द्योतक हैं ...इनसे रहित मनुष्य कभी भी सारस्वत हो ही नहीं सकता ...( अर्थात वह पशुवत है ..मनुष्य रूपेण मृगाश्चरन्ति ) वीणा के सुर जिस तरह सुसंवादित होते हैं उसी तरह से हमारे कार्यों में भी सुसंवादिता होनी चाहिए ...कार्यों में सुसंवादिता से जीवन में संगीत का प्राकट्य होगा ...गीता का "योगः कर्मसु कौशलम".....योग अर्थात कर्म की कुशलता ....यहाँ विचारणीय है
वीणा को वर दंड अर्थात श्रेष्ट दंड कहा गया है...दंड यदि सजा का प्रतीक हो तो उससे श्रेष्ट सजा क्या हो सकती है .. जिसकी सजा में संगीत हो मानव को मारने वाले दंड की अपेक्षा मानव को बदलने वाला दंड सारस्वत के हाथों में होना चाहिए ...
या श्वेत पद्मासना माँ सरस्वती श्वेत पद्मासन पर विराजमान हैं;
माँ सरस्वती का आसन ...अर्थात माँ सरस्वती जिस पर विराजमान होती हैं ( अर्थात सारस्वत') उसका विशुद्ध चरित्र कमलवत होना चाहिए ..पद्म की विशेषता उसकी अलिप्तता में है ...पद्म कीचड में रह कर भी भ्रस्ट नहीं होता ...सारस्वत को भी आज के तमाम प्रकार के कीचड युक्त वातावरण में भी खिल कर अपनी श्रेष्ट संस्कृति , अपने वेदों , अपने उपनिषदों के ज्ञान व परंपरा का दिग्दर्शन जग को कराना चाहिए ...
काल ही ऐसा है ...वातावरण ही खराब है ...सारा समाज ही खराब है ... खारे समुद्र में एक चुटकी चीनी डालने से क्या होगा ??..ऐसी रोनी भाषा माँ सरस्वती के उपासक के मुह से शोभा देने वाली नहीं है ...माँ सरस्वती का उपासक प्रवाह में बहने के लिए नहीं प्रवाह को योग्य दिशा देने वाला होना चाहिए ...शुरुवाती शक्ति गीता के कथन .."स्वल्पमस्यधर्मस्य त्रायतोमहतोभयात" ..अर्थात हमारा थोडा भी प्रयत्न महान आपदाओं से मुक्तिकारी होगा ...से लेना चाहिए
मै अपने जीवन का मूल मन्त्र बनाऊंगा की मुझे अपनी संस्कृति के लिए अपना योग्यदान देना है ...यह निश्चय सारस्वत की पहचान होनी चाहिए
या ब्रह्माच्युतशंकरप्रभ्रृतिभिर्देवै: सदा वन्दिता ब्रह्मा, विष्णु और महेश आदिदेव, जिनकी सदैव स्तुति करते हैं;
माँ सरस्वती ज्ञान व भक्ति की प्रतीक हैं यह बात उनके हाथ में पुस्तक और माला से समझ में आती है .....पुस्तक ज्ञान का प्रतीक है और माला भक्ति का ...ब्रम्हा , विष्णु , व महेश क्रमशः सर्जन , पालन और संहार के देव हैं ..किसी भी श्रेष्ट वस्तु , विचार के सृजन , संरक्षण व उस में प्रविष्ट बुराई के संहार के लिए ज्ञान व भाव दोनो की जरूरत होती है ..
अतः किसी भी महान कार्य करने की इच्छा रखने वाले , शुरुवात करने वाले , आगे बढाने वाले व समय के साथ साथ उसमे प्रविष्ट बुराईयों को हटाने वाले महापुरुषों की प्रथम आवश्यकता सरस्वती का उपासक बनने की है
सा मां पातु सरस्वती भगवती नि:शेष जाड्यापहा हे माँ भगवती सरस्वती, आप मेरी सारी जड़ता को हरें;
माँ भगवती सरस्वती उनके योग्य अर्थों में उपासना करने से हमारे जीवन की जड़ता हो हरती हैं ...परन्तु दुःख की बात यह है की आज सरस्वती के मंदिरों में भी ( आज के विद्यालयों व महाविद्यालयों में ) जड़ता की ही उपासना हो रही है ...आज के विद्यार्थी सिर्फ रोटी के लिए या डिग्री के लिए ही शिक्षा लेते हैं ....उनको मूल्यों की शिक्षा नहीं दी जा रही है इसीलिए सरस्वती आज के शिक्षा केन्दों से विदा हो चुकीं हैं ..क्योकी जड़ता और शारदा एक साथ नहीं रह सकतीं ...

मां बम्‍लेश्‍वरी देवी


राजनांदगांव जिले के डोगरगढ़ में स्थित है मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर। हर साल नवरात्रि के मौके पर मां के दरबार में बड़ा मेला लगता है। दूर दूर से लोग मां के दर्शन को आते हैं। मां से मनोकामना मांगते हैं। और मां सबकी मन
ोकामना पूरी भी करती है। छत्तीसगढ़ राज्य की सबसे ऊंची चोटी पर विराजमान डोंगरगढ़ की मां बम्लेश्वरी का इतिहास काफी पुराना है। वैसे तो साल भर मां के दरबार में भक्तों का रेला लगा रहता है लेकिन लगभग दो हजार साल पहले माधवानल और कामकंदला की प्रेम कहानी से महकने वाली कामावती नगरी में नवरात्रि के दौरान अलग ही दृश्य होता है। छत्तीसगढ़ में धार्मिक पर्यटन कस सबसे बड़ा केन्द्र पुरातन कामाख्या नगरी है जो पहाड़ों से घिरे होने के कारण पहले डोंगरी और अब डोंगरगढ़ के नाम से जाना जाता है। यहां ऊंची चोटी पर विराजित बगलामुखी मां बम्लेश्वरी देवी का मंदिर छत्तीसगढ़ ही नहीं देश भर के श्रद्धालुओं के लिए आस्था का केन्द्र बना हुआ है। हजार से ज्यादा सीढिय़ां चढ़कर हर दिन मां के दर्शन के लिए हजारों श्रद्धालु आते हैं और जो ऊपर नहीं चढ़ पाते उनके लिए मां का एक मंदिर पहाड़ी के नीचे भी है जिसे छोटी बम्लेश्वरी मां के रूप में पूजा जाता है। अब मां के मंदिर में जाने के लिए रोप वे भी लग गया है।
वैसे तो मां बम्लेश्वरी के मंदिर की स्थापना को लेकर कोई स्पष्ट प्रमाण नहीं है पर जो तथ्य सामने आए हैं उसके मुताबिक उज्जैन के राजा विक्रमादित्‍य को मां बगलामुखी ने सपना दिया था और उसके बाद डोंगरगढ़ की पहाड़ी पर कामाख्या नगरी के राजा कामसेन ने मां के मंदिर की स्थापना की थी। एक कहानी यह भी है कि राजा कामसेन और विक्रमादित्य के बीच युद्ध में राजा विक्रमादित्य के आव्हान पर उनके कुल देव उज्जैन के महाकाल कामसेन की सेना का विनाश करने लगे और जब कामसेन ने अपनी कुल देवी मां बम्लेश्वरी का आव्हान किया तो वे युद्ध के मैदान में पहुंची, उन्हें देखकर महाकाल ने अपने वाहन नंदी से उतर कर मां की शक्ति को प्रमाण किया और फिर दोनों देशों के बीच समझौता हुआ। इसके बाद भगवान शिव और मां बम्लेश्वरी अपने अपने लोक को विदा हुए। इसके बाद ही मां बम्लेश्वरी के पहाड़ी पर विराजित होने की भी कहानी है। यह भी कहा जाता है कि कामाख्या नगरी जब प्रकृति के तहत नहस में नष्ट हो गई थी तब डोंगरी में मां की प्रतिमा स्व विराजित प्रकट हो गई थी। सिद्ध महापुरूषों और संतों ने अपने आत्म बल और तत्व ज्ञान से यह जान लिया कि पहाड़ी में मां की प्रतिमा प्रकट हो गई है और इसके बाद मां के मंदिर की स्थापना की गई।
प्राकृतिक रूप से चारों ओर से पहाड़ों में घिरे डोंगरगढ़ की सबसे ऊंची पहाड़ी पर मां का मंदिर स्थापित है। पहले मां के दर्शन के लिए पहाड़ों से ही होकर जाया जाता था लेकिन कालांतर में यहां सीढिय़ां बनाई गईं और मां के मंदिर को भव्य स्वरूप देने का काम लगातार जारी है। पूर्व में खैरागढ़ रियासत के राजाओं द्वारा मंदिर की देखरेख की जाती थी बाद में राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने ट्रस्ट का गठन कर मंदिर के संचालन का काम जनता को सौंप दिया। अब मंदिर में जाने के लिए रोप वे की भी व्यवस्था हो गई है और मंदिर ट्रस्ट अस्पताल धर्मशाला जैसे कई सुविधाओं की दिशा में काम कर रहा है। मंदिर में आने वाले श्रद्धालु मां के दिव्य स्वरूप को देखकर यहीं रूक जाने को लालायित रहते हैं। मां के मंदिर में आस्था के साथ हर रोज हजारों श्रद्धालु पहुंचते हैं। सिर्फ छत्तीसगढ़ ही नहीं, देश के कई हिस्सों से मंदिर में लोग आते हैं और मां से आशीर्वाद मांगते हैं। आम दिनों में श्रद्धालुओं की संख्या तो फिर भी कम होती है लेकिन नवरात्रि के मौके पर मां के मंदिर में हर दिन लाखों की संख्या में श्रद्धालु आते हैं। मां के दरबार में आने वाला हर श्रद्धालु खुद को भाग्यशाली समझता है और मां के दर्शन कर लौटते वक्त उसके जेहन में अगली बार फिर आने की लालसा जग जाती है।
डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी के दो मंदिर हैं। एक मंदिर पहाडी के नीचे है और दूसरा पहाड़ी के ऊपर। पहाडी के नीचे के मंदिर को बड़ी बमलई का मंदिर और पहाड़ी के नीचे के मंदिर को छोटी बमलई का मंदिर कहा जाता है।

मां बम्लेश्वरी मंदिर को लेकर कुछ महत्वपूर्ण जानकारियां
## एतिहासिक और धार्मिक नगरी डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी के दो मंदिर विश्व प्रसिद्ध हैं। एक मंदिर 16 सौ फीट ऊंची पहाड़ी पर स्थित है जो बड़ी बम्लेश्वरी के नाम से प्रसिद्ध है। समतल पर स्थित मंदिर छोटी बम्लेश्वरी के नाम से विख्यात है।
## ऊपर विराजित मां और नीचे विराजित मां को एक दूसरे की बहन कहा जाता है। ऊपर वाली मां बड़ी और नीचे वाली छोटी बहन मानी गई है।
## सन 1964 में खैरागढ़ रियासत के भूतपूर्व नरेश श्री राजा वीरेन्द्र बहादुर सिंह ने एक ट्रस्ट की स्थापना कर मंदिर का संचालन ट्रस्ट को सौंप दिया था।
## मां बम्लेश्वरी देवी शक्तिपीठ का इतिहास लगभग 22##वर्ष पुराना है। डोंगरगढ़ से प्राप्त भग्रावेशों से प्राचीन कामावती नगरी होने के प्रमाण मिले हैं। पूर्व में डोंगरगढ़ ही वैभवशाली कामाख्या नगरी कहलाती थी।
## मंदिर के पुराने पुजारी और जानकार बताते हैं कि राजा विक्रमादित्य को माता ने स्वप्‍न दिया था कि उन्हें यहां की पहाड़ी पर स्थापित किया जाए और उसके बाद उन्होंने मंदिर का निर्माण कराया। ऐसा भी कहा जाता है कि राजा विक्रमादित्य के स्वप्‍न के बाद मंदिर का निर्माण राजा कामसेन ने कराया था।
## मां बम्लेश्वरी मंदिर के इतिहास को लेकर कोई स्पष्ट तथ्य तो मौजूद नहीं है, लेकिन मंदिर के इतिहास को लेकर जो पुस्तकें और दस्तावेज सामने आए हैं, उसके मुताबिक डोंगरगढ़ का इतिहास मध्यप्रदेश के उज्जैन से जुड़ा हुआ है।
## मां बम्लेश्वरी को मध्यप्रदेश के उज्जैयनी के प्रतापी राजा विक्रमादित्य की कुल देवी भी कहा जाता है।
## ऐसी किवदंती है कि राजा वीरसेन की कोई संतान नहीं थी। वे इस बात से दुखी रहते थे। कुछ पंडितों की सलाह पर राजा वीरसेन और रानी महिषमतिपुरी मंडला गए। वहां पर उन्होंने भगवान शिव और देवी भगवती की आराधना की। उन्होंने वहां एक शिवालय का निर्माण भी कराया। इसके एक साल के भीतर रानी गर्भवती हुई और उसे पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। पुत्र का नाम मदनसेन रखा गया। इसके बाद राजा वीरसेन ने पुत्र रत्न प्राप्त होने को शिव और भगवती की कृपा मानकर मां बम्लेश्वरी के नाम से डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी का मंदिर बनवाया।
## इतिहासकारों और विद्वानों ने इस क्षेत्र को कल्चूरी काल का पाया है लेकिन अन्य उपलब्ध सामग्री जैसे जैन मूर्तियां यहां दो बार मिल चुकी हैं, तथा उससे हटकर कुछ मूर्तियों के गहने, उनके वस्त्र, आभूषण, मोटे होठों तथा मस्तक के लम्बे बालों की सूक्ष्म मीमांसा करने पर इस क्षेत्र की मूर्ति कला पर गोंड कला का प्रमाण परिलक्षित हुआ है।
## यह अनुमान लगाया जाता है कि 16 वीं शताब्दी तक डूंगराख्या नगर गोंड राजाओं के अधिपत्‍य में रहा। यह अनुमान भी अप्रासंगिक नहीं है कि गोंड राजा पर्याप्त समर्थवान थे, जिससे राज्य में शांति व्यवस्था स्थापित थी। आज भी पहाड़ी में किले के बने हुए अवशेष बाकी हैं। इसी वजह से इस स्थान का नाम डोंगरगढ़ (गोंगर, पहाड़, गढ़, किला) रखा गया और मां बम्लेश्वरी का मंदिर चोटी पर स्थापित किया गया।

अन्य जानकारियां
## एतिहासिक और धार्मिक स्थली डोंगरगढ़ में कुल 11 सौ सीढिय़ां चढऩे के बाद मां के दर्शन होते हैं।
## यात्रियों की सुविधा के लिए रोपवे का निर्माण किया गया है। रोपवे सोमवार से शनिवार तक सुबह आठ से दोपहर दो और फिर अपरान्ह तीन से शाम पौने सात तक चालू रहता है। रविवार को सुबह सात बजे से रात सात बजे तक चालू रहता है। नवरात्रि के मौके पर चौबीसों घंटे रोपवे की सुविधा रहती है।
## बुजुर्ग यात्रियों के लिए कहारों की भी व्यवस्था पहले थी पर रोपवे हो जाने के बाद कहार कम ही हैं।
## मंदिर के नीचे छीरपानी जलाशय है जहां यात्रियों के लिए बोटिंग की व्यवस्था भी है।
## डोंगरगढ़ में मां बम्लेश्वरी के दो मंदिरों के अलावा बजरंगबली मंदिर, नाग वासुकी मंदिर, शीतला मंदिर, दादी मां मंदिर भी हैं।
## मुंबई हावड़ा मार्ग पर राजनांदगांव से डोंगरगढ़ जाते समय राजनांदगांव में मां पाताल भैरवी दस महाविद्या पीठ मंदिर है, जो अपनी भव्यता के चलते दर्शनीय है। जानकार बताते हैं कि विश्‍व के सबसे बडे शिवलिंग के आकार के मंदिर में मां पातालभैरवी विराजित हैं। तीन मंजिला इस मंदिर में पाताल में मां पाताल भैरवी, प्रथम तल में दस महाविद़़यापीठ और ऊपरी तल पर भगवान शंकर का मंदिर है।
## मां बम्लेश्वरी मंदिर में ज्योत जलाने हर वर्ष देश और विदेशों से हजारों श्रद्धालु आते हैं। हालत यह है कि मंदिर में वर्तमान में ज्योत के लिए जो बुकिंग कराई जा रही है है, वह वर्ष 2015 के क्वांर नवरात्रि के लिए है।
## ट्रस्ट समिति अस्पताल संचालित करती है। अब मेडिकल कालेज खोले जाने की भी योजना है।
## मंदिर का पट सुबह चार बजे से दोपहर एक बजे तक और फिर दोपहर दो बजे से रात 10 बजे तक खुला रहता है। रविवार को सुबह चार बजे से रात दस बजे तक मंदिर लगातार खुला रहता है।
## नवरात्रि के मौके पर मंदिर का पट चौबीसों घंटे खुला रहता है।

डोंगरगढ़ कैसे पहुंचे
## डोंगरगढ़ के लिए ट्रेन और सड़क मार्ग दोनों ओर से रास्ता है।
## मुबई हावड़ा रेल मार्ग पर हावड़ा की ओर से राजधानी रायपुर के बाद डोंगरगढ़ तीसरा बड़ा स्टेशन है। बीच में दुर्ग और राजनांदगांव रेलवे स्टेशन पड़ता है।
## रायपुर से डोंगरगढ़ की रेल मार्ग से दूरी लगभग 1##किलोमीटर है।
## राजनांदगांव जिला मुख्यालय से डोंगरगढ़ की रेल मार्ग से दूरी 35 किलोमीटर है।
## सड़क मार्ग से डोंगरगढ़ के लिए राजनांदगांव जिला मुख्यालय से दूरी 40 किलोमीटर है और नेशनल हाईवे में राजनांदगांव से नागपुर की दिशा में जाने के बाद 15 किलोमीटर की दूरी पर तुमड़ीबोड गांव से डोंगरगढ़ के लिए पक्की सड़क मुड़ती है जो सीधे डोंगरगढ़ जाती है।
## डोंगरगढ़ रेलवे स्टेशन जंक्शन की श्रेणी में आता है। यहां सुपर फास्ट ट्रेनों को छोड़कर सारी गाडियां रूकती हैं, लेकिन नवरात्रि में सुपर फास्ट ट्रेनें भी डोंगरगढ़ में रूकती हैं।
## डोंगरगढ़ जाने वाले यात्रियों के लिए रायपुर से लेकर राजनांदगांव तक यात्री बसों और निजी टैक्सियों की व्यवस्था रहती है।
## डोंगरगढ़ के लिए निकटस्थ हवाई अड्डा रायपुर के माना में स्थित है।
## डोंगरगढ़ में यात्रियों की सुविधा के लिए ट्रस्ट समिति द्वारा मंदिर परिसर में धर्मशाला का निर्माण किया गया है। रियायती दर पर यहां कमरे मिलते हैं। मुफ्त में भी धर्मशाला के हाल में रूकने की व्यवस्था है।
## यात्रियों के लिए रियायती दर पर भोजन की व्यवस्था भी रहती है। ट्रस्ट द्वारा मंदिर के नीचे और बीच में केंटीन संचालित है।
## नवरात्रि पर विभिन्न संगठनों द्वारा नि:शुल्‍क भंडारा की व्यवस्था भी की जाती है।
## डोंगरगढ़ में यात्रियों की सुविधा के लिए होटल और लाज भी उपलब्ध है।
## डोंगरगढ़ आने वाले यात्रियों की सुविधा के लिए राज्य सरकार के पर्यटन विभाग ने तुमड़ीबोड के पास मोटल बनाया है।
## डोंगरगढ़ चारों ओर से पहाड़ों से घिरा हुआ है और पहाड़ों पर हरियाली यहां मन मोह लेती है।
## डोंगरगढ़ में एक पहाड़ी पर बौद्ध धर्म के लोगों का तीर्थ प्रज्ञागिरी स्थापित है। यहां भगवान बुद्ध की विशालकाय प्रतिमा स्थापित है।
## डोंगरगढ़ में वर्ष भर छत्तीसगढ़ी देवी भक्ति गीतों की शूटिंग होते रहती है और प्रदेश के अलावा बाहर के कलाकार यहां लगातार आते रहते हैं।

'यंत्र'

'यंत्र'

साधना विज्ञान में विशेष कर वाममार्गी तांत्रिक साधनाओं में यंत्र-साधना का बड़ा महत्व है । जिस तरह देवी-देवताओं की प्रतीकोपासना की जाती है और उनमें सन्निहित दिव्यताओं, की अवधारणा की जाती है, उसी तरह 'यंत्र' भी किसी देवी या देवता के प
्रतीक होते हैं ।
इनकी रचना ज्यामितीय होती है । यह बिन्दू, रेखाओं, वक्र-रेखाओं, वर्गों, वृत्तों और पद्ददलों से मिलाकर बनाये जाते हैं और अलग-अलग प्रकार से बनाये जाते हैं । कई का तो बनाना भी कठिन होता है । इनका एक सुनिश्चित उद्देश्य होता है । इन रेखाओं, त्रिभुजों, वर्गों, वृत्तों और यहाँ तक कि कोण, अंश का भी विशेष अर्थ होता है ।
जिस तरह से देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं । उसी तरह यंत्रों में भी गंभीर लक्ष्य निहित होते हैं । इनका निर्माण पत्थर, धातु या अन्य वस्तुओं के तल पर होता है । रेखाओं और त्रिभुजों आदि के माध्यम से बने चित्रों को 'भण्डार' कहा जाता है, जो किसी भी देवता के प्रतीक हो सकते हैं, किन्तु 'यंत्र' किसी विशिष्ट देवी या देवता के प्रतीक होते हैं ।
तंत्र विद्या विशारदों के अनुसार यंत्र अलौकिक एवं चमत्कारिक दिव्य शक्तियों के निवास स्थान है । ये सामान्यतता स्वर्ण, चाँदी एवं ताँबा जैसी उत्तम धातुओं उत्तम माने जाते हैं । ये चारों ही पदार्थ कास्मिक तरंगे उत्पन्न करने और ग्रहण करने की सर्वाधिक क्षमता रखते हैं । उच्चस्तरीय साधनाओं में प्रायः इन्हीं से बने यंत्र प्रयुक्त होते हैं ।
ये यंत्र केवल रेखाओं और त्रिकोणों आदि से बने ज्यामिति विज्ञान के प्रदर्शक चित्र ही नहीं होते, वरन् उनकी रचना विशेष आध्यात्मिक दृष्टिकोण से की जाती है । जिस प्रकार से विभिन्न देवी-देवताओं के रंग-रूप के रहस्य होते हैं, उसी तरह सभी यंत्र विशेष उद्देश्य से बनाये गये हैं । इन यंत्रों में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का दर्शन पिरोया हुआ है ।
भारतीय दर्शन का मत है कि जो कुछ ब्रह्माण्ड में है, वह सारी देव शक्तियाँ पिण्ड अर्थात् मानवीकाया में भी सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं । मानवी काय-पिण्ड उस विराट् विश्व-ब्रह्माण्ड का संक्षिप्त संस्करण है, अतः उसमें सन्निहित शक्तियों को यदि जाग्रत एवं विकसित किया जा सके तो वे भी उतनी ही समर्थ एवं चमत्कारी हो सकती है ।
यंत्र साधना में साधक यंत्र का ध्यान करता है और क्रमशः आगे बढ़ते हुए अपनी पिण्ड चेतना को वह ब्रह्म जितना ही विस्तृत अनुभव करने लगता है । एक समय आता है जब दोनों में कोई अंतर नहीं रहता और वह अपनी ही पूजा करता है । उसके ध्यान में पिण्ड और ब्रह्माण्ड का ऐक्य हो जाता है । वह भगवती महाशक्ति को अपना ही रूप समझता है, फिर उसे सारा जगत ही अपना रूप लगने लगता है । वह अपने को सब में समाया हुआ पाता है, अपने अतिरिक्त उसे और कुछ दृष्टिगोचर ही नहीं होता । वह अद्वेत सिद्धि के मार्ग पर प्रशस्त होता है और ऐसी अवस्था में आ जाता है कि ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय एक रूप ही लगने लगते हैं । साधक की चेतना अब अनंत विश्व और अखण्ड ब्रह्म का रूप धारण कर देती है । यंत्र पूजा में यही भाव निहित है ।
'यंत्र' का अर्थ 'ग्रह' होता है । यह 'यम' धातु से बनता है जिससे ग्रह का ही बोध होता है, क्योंकि यही नियंत्रण की प्रक्रिया दृष्टिगोचर होती है यों तो सामान्य-भौतिक अर्थ में यंत्र का तात्पर्य मशीन से लिया जाता है जो मानव से अधिक श्रम साध्य और चमत्कारी कार्य कर सकती है और हर कार्य में सहायक सिद्ध होती है । उदाहरण के लिए मोटर-कार, रेलगाड़ी, वायुयान,सैटेलाइट आदि की उपयोगिता एवं द्रुतगामिता से सभी परिचित हैं । इसी तरह माइक्रोस्कोप, टेलीस्कोप जैसे सूक्ष्म एवं दूरदर्शी यंत्रों को भी सभी लोग जानते हैं कि किस तरह उनसे सूक्ष्म से सूक्ष्म वस्तुओं एवं दूरस्थ वस्तुओं को देखा जा सकता है । इसी तरह विराट् ब्रह्म को देखना हो तो भी यंत्र की अपेक्षा रहती है, उसकी भावना करनी पड़ती है । तांत्रिक यंत्र को निर्गुण ब्रह्म के शक्ति-विकास का प्रतीक माना जाता है ।
अध्यात्मेत्ताओं ने यंत्र के अभिप्राय को स्पष्ट करते हुए कहा भी है-''जिससे पूजा की जाये, वह यंत्र है । तंत्र परम्परा में इसे देवता के द्वारा प्राण-प्रतिष्ठा प्राप्त यंत्र शरीर के रूप में इसे देवता के रूप का प्रतीक है जिसकी उपस्थिति को वह मूर्तिमान करता है और जिसका कि मंत्र प्रतीक होता है ।'' इस तरह यंत्र को देवता का शरीर कहते हैं और मंत्र को देवता की आत्मा ।
इसके द्वारा मन को केन्द्रिरत और नियंत्रित किया जाता है । कुलार्णव तंत्र के अनुसार-''यम और समस्त प्राणियों से तथा सब प्रकार के भयों से त्राण करने के कारण ही इसे 'यंत्र' कहा जाता है ।
यह काम, क्रोधादि दोषों के समस्त दुःखों को नियंत्रण करता है । इस पर पूजित देव तुरंत ही प्रसन्न हो जाते हैं । सुप्रसिद्ध पाश्चात्य मनीषी सर जॉन वुडरफ ने भी अपने कृति ''प्रिसिपल्स ऑफ तंत्र'' में लिखा है कि इसका नाम 'यंत्र' इसलिए पड़ा कि यह काम, क्रोध व दूसरे मनोविकारों एवं उनके दोषों को नियंत्रित करता है ।
यंत्र-साधना का उद्देश्य ब्रह्म की एकता सिद्धि प्राप्त करना है । यंत्र द्वारा इस अंतिम लक्ष्य तक पहुँचने के लिए विभिन्न प्रकार की साधनायें करनी पड़ती है । इनका संकेत सूत्र यंत्र के विभिन्न अंगों से परिलक्षित होता है । उनका चिंतन, मनन, करना होता है । विकार परिष्कृत एवं भावसाधना से ही उत्कर्ष होता है । यंत्र के बीच में बिन्दू होता है, जो गतिशीलता का, प्रतीक है । शरीर और ब्रह्माण्ड का प्रत्येक परमाणु अपनी धुरी पर तीव्रतम गति से सतत चक्कर काट रहा है । यह सर्वव्यापक है । अतः हमें भी उन्नति के मार्ग पर संतुष्ट नहीं रहना है, वरन हर क्षण आगे बढ़ने के लिए तत्पर और गतिशील हो सकते हैं । बिन्दु आकाशतत्व का प्रतिनिधित्व करता है क्योंकि इसमें अनुप्रवेश भाव रहता है जो आकाश का गुण है । बिन्दु यंत्र का आदि और अंत भी होता है । अतः यह उस परात्पर परम चेतन का प्रतीक है जो सबसे परे है, जहाँ शिव और शक्ति एक हो जाते हैं ।
वस्तुतः प्रत्येक यंत्र शिव और शक्ति की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति कराने वाला एक अमूर्त ज्यामितीय संरचना होता है । इसमें उलटा त्रिकोण 'शक्ति' का और सीधा त्रिकोण 'शिव' का प्रतीक माना जाता है । एक-दूसरे को काटते हुए उलटे और सीधे त्रिकोणों से ही यंत्र विनिर्मित होता है ।
त्रिभुज का शीषकोण-(वर्टिकल-एंगल) जब ऊपर की ओर बना होता है तो यह अग्निशिखा का प्रतीक माना जाता है जो उन्नति का ऊपर उठने का भाव प्रदर्शित करता है । जब यह शीर्षकोण नीचे की ओर होता है तो जल-तत्त्व का द्योतक माना जाता है, क्योंकि नीचे की ओर प्रवाहित होना ही जल का स्वभाव है । यंत्र में त्रिकोणों के चारों ओर गोलाकार वृत-सर्किल बनाये जाते हैं जिसे पूर्णता का और खगोल का प्रतीक कहा जा सकता है । इसे वायु का द्योतक भी माना जाता है, क्योंकि वृत में वृत्ताकार गति के लक्षण पाये जाते हैं । जब एक बिन्दू दूसरे के चारों ओर चक्कर लगाता है तो वृत बनता है वायु भी यही करती है और जिसके साथ संपर्क में आती है, उसे घुमाने लगती है । अग्नि और जल के साथ यही स्थिति रहती है । यंत्र में इस गोलाकार वृत के सबसे बाहर जो चार 'द्वार' वाला चतुष्कोण या चतुर्भुज बना होता है, उसे 'भूपुर' कहते हैं । इसमें बहुमुखता का भाव है । यह पृथ्वी का, भौतिकता का और विश्व-नगर का प्रतीक माना जाता है । किसी भी दशा में इसके चारों द्वारों को पार करके ही साधक मध्य में स्थित उस महाबिन्दू तक पहुँच सकता है जहाँ परम सत्य स्थित है । यह बिन्दु यंत्र के बीच में रहता है और यह अंतिम लक्ष्य माना जाता है । वहीं ईश्वर के दर्शन होते हैं और एकता सधती है ।
आगम ग्रंथों के अनुसार यंत्रों में चौदह प्रकार की शक्तियाँ अंतर्निहित होती हैं और प्रत्येक इन्हीं में से किसी न किसी शक्ति के अधीन रहते हैं । इन्हीं शक्तियों के आधार पर यंत्रों की रेखायें और कोष्ठकों को निर्माण होता है ।
इन यंत्रों में २६ तत्त्वों का समावेश होता है, जिनमें पंचमहाभूत, पंच ज्ञानेन्द्रियाँ, पंचर्कमेन्दि्रयाँ और पांच इनके विषय-रूप रस, गंध आदि तन्मात्रयें, मन, बुद्धि, अहंकार, प्रकृति पुरुष, कला, अविद्या, राग, काल, नियति, माया, विद्या, ईश्वर, शिव, शक्ति आदि आते हैं ।
जिस तरह मंत्रों में बीजाधार होते हैं, उसी तरह यंत्रों में भी १ से लेकर २६ तक की संख्या बीज संख्या मानी गयी है । ये बीज संख्यायें चौदह शक्तियों पर आधारित होकर २६ तत्वों के भावों को भिन्न-भिन्न प्रकट कर रेखाओं, कोष्ठकों के आकार-प्रकार और बीजाक्षरों के अधिष्ठाता देवी-देवताओं का प्रतिनिधित्व करती हुई उन देव शक्तियों को स्थान विशेष पर प्रकट कर मानव संकल्प की सिद्धि प्रदान करती हैं । इन्हीं २६ तत्वों के अंतर्गत पृथ्वी जल, वायु, अग्नि आदि जो २५ वर्ण बीजों से संबंध रखते हैं ।
यंत्र विज्ञान में १,९ तथा शून्य (()की संख्या अपना महत्वपूर्ण स्थान रखती है । जिस प्रकार एकाक्षरी बीज मंत्रों के अनेक अर्थ होते हैं उसी तरह प्रत्येक संख्या बीज भी अनेक अर्थों वाले होते हैं । ये अंकबीज विभिन्न प्रकृति के मनुष्यों के ऊपर प्रभाव डालने की अपार शक्ति रखते हैं ।
मीमांसाशास्त्र में कहा गया है कि देवताओं की कोई अलग मूर्ति नहीं होती । ये मंत्र मूर्ति होते हैं । वे यंत्रों में आवद्ध रहते हैं और उन पर अंकित अंकों एवं शब्दों का जब लयबद्ध ढंग से भावपूर्ण जप किया जाता है तो उनसे एक विशिष्ट प्रकार की तरंगें उत्पन्न होती हैं जिसका प्रभाव उच्चारणकर्त्ता पर ही नहीं पड़ता, समूचे आकाश मंडल एवं ग्रह-नक्षत्रें पर भी पड़ता है ।
यंत्र शरीर में स्थित शक्ति केन्द्र को मंत्र एवं अंकों के शक्ति के सहकार से उद्यीप्त-उत्तेजित करता है । मानवी काया में अनेकों सूक्ष्म शक्ति केन्द्र हैं जिन्हें देवता की संज्ञा दी जा सकती है । यंत्र वस्तुतः इन्हीं विभिन्न शक्ति केन्द्रों के मानचित्र के समान हैं जिनकी साधना से साधक में तदनुरूप ही शक्तियों का विकास होता है और वह उत्तरोत्तर प्रगति करते हुए आत्मोकर्ष के चरमलक्ष्य तक जा पहुँचता है ।मंत्रों की तरह यंत्र भी बहुविध एवं संख्या में अनेकों हैं और उनका रचना विधान भी प्रयोजन के अनुसार कई प्रकार का होता है । तंत्रशास्त्रों में इस तरह के ९९० प्रकार के यंत्रों का वर्णन मिलता है जिनकी प्रतीकात्मकता की विशद व्याख्या भी की गयी है इनमें से कुछ यंत्रों को 'दिव्य यंत्र' कहा जाता है । ये स्वतः सिद्ध माने जाते हैं और दैवी शक्ति संपन्न होते हैं ।
उदाहरण के लिए बीसायंत्र, श्री यंत्र, पंचदशी यंत्र आदि की गणना दिव्य यंत्रोंमें की जाती है । इसमें 'श्री यंत्र' सबसे प्रसिद्ध है । इसकी उत्पति के संबंध में 'योगिनीहृदय' में कहा है कि ''जब परम्पराशक्ति अपने संकल्प बल से ही विश्व-ब्रह्मण्ड का रूप धारण करती है और अपने स्वरूप को निहारती है तभी 'श्री यंत्र' का आविर्भाव होता है ।''
'श्री यंत्र' आद्यशक्ति का बोधक है । इसका आकार ब्रह्मण्डांकार है जिसमें ब्राह्मण्ड की उत्पति और विकास का प्रदर्शन किया गया है । यह कई चक्रों में बँटा होता है जिनमें से प्रत्येक की अपने महिमा-महत्ता है ।
इस यंत्र के सबसे अंदर वाले वृत्त के केन्द्र में बिन्दू स्थित होता है जिसके चारों ओर नौ त्रिकोण बने होते हैं । इनमें से पाँच की नोंक ऊपर की ओर और चार की नीचे की ओर होती है । ऊपर की ओर नोंक वाले त्रिभुजों को भगवती का प्रतिनिधि माना जाता है और शिव युवती की संज्ञा दी जाती है । नीचे की ओर नोंक वाले शिव का प्रतिनिधित्व करते हैं । इन्हें 'श्री कंठ' कहते हैं ।
उर्ध्वमुखी पाँच त्रिकोण, पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्दि्रयाँ, पाँच कमेन्दि्रयाँ, पाँच तन्मात्रयें और पाँच महाभूतों के प्रतीक हैं । शरीर में यह अस्थि, माँस, त्वचा आदि के रूप में विद्यमान हैं । अधोमुखी चार त्रिकोण शरीर में जीव, प्राण, शुक्र और मज्ज् के प्रतीक हैं और ब्रह्मण्ड में मन, बुद्धि चित्त और अहंकार के प्रतीक हैं । ये सभी नौ त्रिकोण नौ मूल प्रकृतियों का प्रतिनिधित्व करते हैं । त्रिकोण के बाहर या पश्चात जो वृत्त होते हैं वे शक्ति के द्योतक हैं । इस यंत्र में पहले वाले वृत्त के बाहर एक आठ दल वाला कमल है तथा दूसरा सोलह दलों वाला कमल दूसरे वृत्त के बाहर है । सबसे बाहर चार द्वारों वाला 'भूपुर' है जो ब्रह्मण्ड की सीमा होने से शक्ति गति-क्षेत्र है । इस यंत्र में उर्ध्वमुखी त्रिकोण अग्नितत्व के, वृत्त वायु के, बिन्दु आकाश का और भूपुर पृथ्वी तत्वका प्रतीक माना जाता है । यह यंत्र सृष्टिक्रम का है । ''आनन्द लहरी'' में आद्य शंकराचार्य ने इसका विस्तृत वर्णन किया है । वे स्वयं इसके उपासक थे । उनके हर मठ में यह यंत्र रहता है ।
योगिनी तंत्र में भी इसका वर्णन करते हुए कहा गया है कि आध्यात्मिक उन्नति के विशेष स्तर पहुँचने पर ही साधक इसकी पूजा का अधिकारी होता है । सिद्धयोगी अंतर पूजा में प्रवेश करते हुए यंत्र की पूजा से प्रारंभ करता है जो ब्रह्म विज्ञान को संकेत है ।
यंत्रों में बिन्दु, रेखा, त्रिकोण, वृत्त आदि ज्यामितीय विज्ञान का असाधारण प्रयोग होता है । इसकी महत्ता प्रदर्शित करते हुए प्रख्यात यूनानी तत्वज्ञ प्लेटो ने अपनी पाठशाला के बाह्मकक्ष पर यह घोषणा लिखवा दी थी कि जो विद्यार्थी ज्योमिती से अपरिचित हों वह इस पाठशाला में प्रवेश के लिए प्रयत्न न करें । आधुनिक विज्ञानवेत्ता-भी यंत्र रचना पर गंभीरतापूर्वक अनुसंधानरत हैं और उसकी मेटाफिजीकल पावर एवं अद्भूत स्थापत्य को देखकर आश्चर्यचकित हैं ।
मास्को विश्वविद्यालय रूस के मूर्धन्य भौतिकी विद् एवं गणितज्ञ डॉ. अलेक्सेई कुलाई-चेव ने प्राचीन भारतीय कर्मकाण्डीय आकृतियों विशेषकर 'श्री यंत्र' के बारे में गहन खोज की है और पाया है कि यह एक जटिल आकृति है जो वृत्त में अंतनिर्हित नौ त्रिभुजों से बनी है । उच्च बीज गणित, सांख्यिक-विश्लेषण, ज्यामिती एवं कम्प्यूटर आदि की मदद से ही वे इस आकृति को बनाने में सफल हुए ‍उनका कहना है कि विश्व प्रपंच से संबंधित तंत्र की धारणायें बहुत कुछ विश्वोत्पति की 'विग-बैग' वाली वैज्ञानिक मान्यताओं तथा 'तप्त विश्व' के सिद्धान्तों से मिलती-जुलती हैं । यंत्र रचना का रहस्य वैज्ञानिक एवं गणितज्ञों के लिए अभी एक चुनौती बना हुआ है । यंत्रों के अर्थ, उद्देश्य एवं उनमें अंतनिर्हित प्रेरणाओं को यदि समझा और तदनुरूप साधना की जा सके तो सिद्धि अवश्य मिलती है, इनमें कोई संदेह नहीं ।

माँ त्रिपुरा भैरवी

 माँ त्रिपुरा भैरवी
माँ त्रिपुरा भैरवी जिन्हें काल भैरवी भी कहा जाता हैं। माँ देवी हैं इस नष्ट होते हुए संसार की। माँ त्रिपुरा भैरवी का मुख हजारों उगते हुए सूर्यों की रक्तिम आभा लिए हुए होता हैं। माँ के शरीर पर लाल वस्त्र एवं गले में मुण्डमाला सुशोभित रहती हैं । माँ के होंठ सदैव रक्त के भीगे रहते हैं।
माँ त्रिपुरा भैरवी दस महाशाक्तियों में पांचवे स्थान पे पूजी जाती हैं, माँ त्रिपुरा की शक्ति विनाश की भयानक क्षमता के साथ सृजन की अग्नि लिए हुए हैं। माँ के भक्त को ज्ञान एवं आशीर्वाद की प्राप्ति होती हैं तथा किसी भी प्रकार का भय माँ के भक्तों से कोसो दूर रहता हैं।
आज हम माँ भैरवी के आशीर्वाद से यंहा एक गुप्त एवं विद्या के बारे में जानकारी लेंगे । इस सिद्धि के साधक को जीवन के हर पड़ाव पर सफलता मिलती हैं एवं जीवन यापन अति मधुर तथा आनंदमयी हो जाता हैं। इस प्रयोग से साधक का शरीर कामदेव के समान सुंदर एवं प्रभाव युक्त हो जाता हैं । अतः जो भी साधक से मिलता हैं तो वो साधक के प्रभाव मैं खो जाता हैं एवं साधक का अनुसरण करने लग जाता हैं।
इस प्रयोग के लिए किसी भी मंगलवार का प्रयोग किया जा सकता हैं। समय रात्री में 10 बजे के बाद का रहे एवं नित्य समय सामान रहना चाहिए हैं। सर्वप्रथम अपने सामने एक लकड़ी के आसन पर माँ त्रिपुरा भैरवी का चित्र एवं माँ का यन्त्र स्थापित करें, अब तस्वीर एवं यन्त्र को स्नान करवा कर सिन्दूर का तिलक करें तत्पश्चात एक तिल के तेल का दीपक जला कर मंत्र जाप शुरू किया जा सकता हैं। याद रहे कि तेल का दीपक पूरी साधना प्रक्रिया में जलते रहना चाहिए हैं।
आपको लगातार 21 दिनों तक नित्य 1000 बार मंत्र जाप करना हैं 21 दिनों में जब 21000 मंत्र पूरे हो जाए तो माँ की तस्वीर एवं यन्त्र को अपने पूजा घर में रख देवे, आपको असर तुरंत ही दिखना शुरू हो जाएगा। याद रहे मंत्र जाप की संख्या निशित हैं कम या ज्यादा मंत्र जाप न करें।

मंत्र -
।। ह सैं ह स करी ह सैं ।।

गाय एक सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है

गाय एक सकारात्मक ऊर्जा का स्रोत है
सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह करने वाले पेड़ व जानवरों के बारे में भी हम वर्णन करेंगे। यह भी बतायेंगे, इनका जीवन में क्या महत्व है तथा इनका प्रयोग करने का वैज्ञानिक कारण क्या है। गाय एक सकारात्मक ऊर्जा का स्रो
त है। प्राचीन समय से ही भारतवर्ष में गाय को माता के रूप में माना जाता है तथा उसकी पूजा की जाती है। उस समय प्रत्येक घर में एक गाय होना आवश्यक माना जाता था क्योंकि गाय के पंचगव्य अर्थात दूध, दही, घी, गोबर व मूत्र का ऊर्जा क्षेत्र मानव के ऊर्जा क्षेत्र से अधिक होता है। गाय इतना सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करती है कि उस ऊर्जा क्षेत्र में रहने वाले लोगों को मानसिक शांति का अनुभव होने लगता है। हमारे ऋषि-मुनि इस तथ्य से अवगत थे कि गाय एक सकारात्मक ऊर्जा का केंद्र है इसलिए उन्होंने गौ पूजन करने के लिए कहा था जिससे उस ऊर्जा क्षेत्र में रहने के कारण हमारी ऊर्जा में भी वृद्धि हो सके। मानव का ऊर्जा क्षेत्र 2.5 से 2.8 मीटर तक होता है परंतु गाय के दूध का ऊर्जा क्षेत्र 12-13 मीटर होता है तथा नवजात शिशु को उसकी माता के दूध के अलावा गाय का दूध का ही सेवन करने के लिए बताते हैं। गाय के दूध की दही का ऊर्जा क्षेत्र 6.5 से 6.7 मीटर तक होता है तथा यह मानव शरीर से टाक्सिन निकालने में सहायता करता है। गाय के घी का ऊर्जा क्षेत्र लगभग 14 मीटर होता है। इस घी को दीपक में जलाने से वातावरण की नकारात्मक ऊर्जा खत्म होती है तथा सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। तिल का तेल जलाने से भी नकारात्मक ऊर्जा को खत्म किया जाता है। गाय का घी कई औषधियों मंे भी प्रयोग किया जाता है। गौमूत्र का ऊर्जा क्षेत्र 8 से 9 मीटर तक होता है। गौमूत्र का प्रयोग कैंसर की दवाई बनाने में किया जाता है तथा विभिन्न प्रकार की अन्य औषधियों में भी किया जाता है। गौमूत्र कई प्रकार के बैक्टिरिया को भी खत्म करने में इस्तेमाल किया जाता है तथा गाय के गोबर का ऊर्जा क्षेत्र 6 मीटर है। इसका प्रयोग नकारात्मक ऊर्जा खत्म करने के लिए किया जाता है। पहले समय में पूजा स्थल पर सर्वप्रथम गाय के गोबर से लेपन किया जाता था जिससे वहां पर नकारात्मक ऊर्जा खत्म किया जा सके तथा हमारे घरों में दीवारों व फर्श पर गोबर का लेपन किया जाता था इसलिए प्राचीन समय में हम इतनी बीमारियों से बचे रहते थे। कहा जाता है, कि जब भगवान श्रीकृष्ण ने पूतना राक्षसी को मारा था, तो उससे छुड़ाने के लिए पूतना के मृत शरीर पर गोबर का लेप किया गया था जिससे उसकी नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो गयी और श्रीकृष्ण को उसके शरीर से अलग कर दिया गया।
इसलिए प्राचीन समय में गृह प्रवेश के समय सबसे पहले गाय को अंदर प्रवेश कराया जाता था जिससे वहां की दीवारों व फर्श की नकारात्मक ऊर्जा खत्म हो जाये। इसलिए कई घरों में गाय के घी में अखंड ज्योति जलती है जिससे वहां पर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता रहे।
इसी प्रकार मंत्रों का भी हमारे जीवन में बहुत महत्व है। जब हम किसी भी मंत्र का सही उच्चारण के साथ जाप करते हैं तो उससे संबंधित ध्वनि तरंगे उस वातावरण में फैल जाती हैं तथा वहां की सकारात्मक ऊर्जा की वृद्धि होती है जिससे हम अपने अंदर बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह को महसूस करते हैं। जब हम किसी भी हवन आदि में भाग लेते हैं तब वहां पर सब लोग एक साथ जोर-जोर से मंत्रों का जाप करते हैं तो हमारे अंदर एक अलग तरह की सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह होता है। उस समय हमारे अंतर्मन में कोई भी नकारात्मक विचार नहीं आता क्योंकि उस वातावरण में मंत्रों की इतनी सकारात्मक ध्वनि तरंगें हमारे शारीरिक कंपन्नशक्ति के अनुरूप या मिलती-जुलती होती है जिससे हमें एक शक्ति का अनुभव होता है। स्ट्रेस में रहने वाले लोगों पर इसका बहुत गहरा प्रभाव होता है। वे मंत्र का जाप करके अपने सामान्य कंपनशक्ति में आ जाते हैं तथा काफी देर ये जाप सुनने से बहुत सी ऊपरी बीमारियां भी खत्म होने लगती हैं। हमारे चक्रों के भी अलग-अलग बीजाक्षर होते हैं जिन्हें बोलने से हम अपने चक्राओं की ऊर्जा को सामान्य स्तर पर ला सकते हैं जैसे मूलाधार का बीजाक्षर है लं। यदि हमारा मूलाधार चक्र में अवरोध उत्पन्न होता है तो हम लं मंत्र का उच्चारण कर अपने चक्र को सामान्य स्थिति में ला सकते हैं। इसी प्रकार अन्य चक्रों के बीजाक्षर हैं-
सवाधिष्ठान-वं,
मणिपूरा-रं,
अनाहत-यं,
विशुद्धि-हं,
आज्ञा व सहस्ररारा का-आंेम्।
यह ओम् मंत्र सबसे अच्छा मंत्र है। इसका उच्चारण करने से बहुत अच्छा परिणाम प्राप्त होता है।
यंत्र का निर्माण रेखागणित पर आधारित है। और आकारों को मिलाकर इनका निर्माण किया जाता है अलग-अलग आकार के और बनाकर उसमें अलग-अलग कंपनशक्तियों का प्रवाह होता है। यदि आपके घर में किसी दिशा में कोई कंपनशक्ति कम है तो उससे संबंधित यंत्र जो उस कंपनशक्ति का प्रवाह करता है उस स्थान पर लगा दें। उससे वहां की कंपनशक्ति पूरी होकर सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करने लगेगा। जैसे हम विघ्नहर्ता यंत्र लगाते हैं। उस यंत्र में कुछ ऐसी तरंगें निकलती हंै जो विघ्न उत्पन्न करने वाली तरंगों को समाहित कर देती हैं। कई प्रकार के यंत्र हैं जिनका हम प्रयोग कर सकते हैं परंतु यंत्रों का प्रयोग भी बहुत सावधानी से करना चाहिए। क्योंकि जिस कंपनशक्ति की आपको आवश्यकता नहीं है फिर हम उससे संबंधित कोई यंत्र लगा दें तो भी उस कंपनशक्ति की अधिकता से हमें मानसिक परेशानी उत्पन्न हो सकती है।
तंत्र-इस विद्या से लोग सामान्यतः डरते हैं क्योंकि अधिकतर इस विद्या का प्रयोग नकारात्मक रूप में किया जाता है। परंतु इनका भी अपना एक महत्व है। यदि इनका सही प्रकार से प्रयोग किया जाये तो इससे हमें बहुत अच्छे परिणाम मिल सकते हैं। जिस प्रकार हम पानी में नीबू डालकर दुकान आदि में रखते हैं। तब वह नीबू नकारात्मक शक्ति को खींचकर पानी के ऊपर तैरने लगती है। तब हम उस नीबू और पानी को फेंक देते हैं। इसी प्रकार नजर लगने पर लाल मिर्च को एन्टी-क्लोक घुमाकर आग में डाल दें तो उसमें गंध नहीं आती है। इसी प्रकार यदि हम किसी की नजर उतारकर नीबू आदि को चैराहे पर डाल देते हैं तो वह बहुत ही खतरनाक होता है क्योंकि उस नीबू पर किसी अन्य व्यक्ति के पैर पड़ते हैं वह ऊर्जा जो हमने पहले व्यक्ति से निकाली थी वह उस व्यक्ति में चली जाती है। वास्तव में ऊर्जा का एक वस्तु से दूसरी वस्तु में आवागमन होता रहता है। यही कारण है कि नीबू पर पैर पड़ने से उस नीबू में जो ऊर्जा होती है वह पैर रखने वाले व्यक्ति में ट्रांसफर हो जाती है। जिससे उस व्यक्ति को परेशानी उत्पन्न होने लगती है। इन सब तंत्रों को करने का वैज्ञानिक कारण जानकर यदि हम इनको सही तरीके से करें तो हम इससे बहुत अच्छे परिणाम पा सकते हैं।
इसी तरह हमारे ऋषियों ने कुछ पेड़ों के बारे में भी बताया है, जो बहुत ही सकारात्मक ऊर्जा का प्रवाह करते हैं जैसे तुलसी, कदम्ब तथा पीपल। इनकी परिक्रमा करने पर मनुष्य अपनी ऊर्जा क्षेत्र को बढ़ा सकता है तथा नवग्रह से संबंधित पेड़ भी होते हैं। यदि किसी ग्रह की कंपनशक्ति की कमी आपके अंदर है तो उससे संबंधित वृक्ष की परिक्रमा करने से, उस कंपनशक्ति को पूरा कर सकते हैं।
इस प्रकार गाय के अतिरिक्त अन्य जानवर भी है, जो कुछ नकारात्मक व सकारात्मक तरंगे पहचानते हैं।
जैसे बिल्ली, चमगादड़, चीटियां व दीमक, नकारात्मक ऊर्जा में रहना पसंद करती है तथा घोड़ा, कुŸाा ये जानवर नकारात्मक ऊर्जा में नहीं रह पाते हैं तथा वह सकारात्मक ऊर्जा वाले स्थान में ही रहना पसंद करते हैं।
यूनीवर्सल थर्मो स्कैनर की सहायता से हम नकारात्मक व सकारात्मक ऊर्जा को पहचानते हैं तथा इसकी सहायता से हम कौनसा यंत्र किस दिशा और किस स्थान पर लगाने से 100 प्रतिशत सकारात्मक ऊर्जा प्रवाह करेगा यह बता सकते है।
दस महाविद्याओं
दस महाविद्याओं में काली प्रथम है । महाभागवत के अनुसार महाकाली ही मुख्य हैं और उन्हीं के उग्र और सौम्य दो रुपों में अनेक रुप धारण करने वाली दस महा-विद्याएँ हैं । विद्यापति भगवान् शिव की शक्तियाँ ये महाविद्याएँ अनन्त सिद्धियाँ प्रदान करने में
समर्थ है । दार्शनिक दृष्टि से भी कालतत्त्व की प्रधानता सर्वोपरि है । इसलिये महाकाली या काली ही समस्त विद्याओं की आदि हैं अर्थात् उनकी विद्यामय विभूतियाँ ही महा-विद्याएँ हैं । ऐसा लगता है कि महाकाल की प्रियतमा काली ही अपने दक्षिण और वाम रुपों में दस महा-विद्याओं के नाम से विख्यात हुईं । ‘बृहन्नील-तन्त्र’ में कहा गया है कि रक्त और कृष्ण-भेद से काली ही दो रुपों में अधिष्ठित हैं । कृष्णा का नाम ‘दक्षिणा’ और रक्त-वर्णा का नाम ‘सुन्दरी’ है ।

‘कालिका-पुराण’ में कथा आती है कि एक बार हिमालय पर अवस्थित मतंग मुनि के आश्रम में जाकर देवताओं ने महा-माया की स्तुति की । स्तुति से प्रसन्न होकर मतंग-वनिता के रुप में भगवती ने देवताओं को दर्शन दिया और पूछा कि तुम लोग किसकी स्तुति कर रहे हो । उसी समय देवी के शरीर से काले पहाड़ के समान वर्ण-वाली एक और दिव्य नारी का प्राकट्य हुआ । उस महा-तेजस्विनी ने स्वयं ही देवताओं की ओर से उत्तर दिया कि “ये लोग मेरा ही स्तवन कर रहे हैं ।” वे काजल के समान कृष्णा थीं, इसीलिये उनका नाम “काली” पड़ा ।
दुर्गा-सप्तशती के अनुसार एक बार शुम्भ-निशुम्भ के अत्याचार से व्यथित होकर देवताओं ने हिमालय पर जाकर “देवी-सूक्त” से देवी की स्तुति की, तब गौरी की देह से कौशिकी का प्राकट्य हुआ । कौशिकी के अलग होते ही अम्बा पार्वती का स्वरुप कृष्ण हो गया, जो ‘काली’ नाम से विख्यात हुईं ।
काली को नील-रुपा होने के कारण तारा भी कहते हैं । ‘नारद-पाञ्चरात्र’ के अनुसार एक बार काली के मन में आया कि वे पुनः गौरी हो जायँ । यह सोचकर वे अन्तर्धान हो गयीं । शिवजी ने नारदजी से उनका पता पूछा । नारदजी ने उनसे सुमेरु के उत्तर में देवी के प्रत्यक्ष उपस्थित होने की बात कही । शिवजी की प्रेरणा से नारदजी वहाँ गये । उन्होंने देवी से शिवजी के साथ विवाह का प्रस्ताव रखा । प्रस्ताव सुनकर देवी क्रुद्ध हो गयीं और उनकी देह से एक अन्य षोडशी विग्रह प्रकट हुआ और उससे छाया-विग्रह “त्रिपुर-भैरवी” का प्राकट्य हुआ ।
काली की उपासना में सम्प्रदाय-गत भेद हैं । प्रायः दो रुपों में इनकी उपासना का प्रचलन है । भव-बन्ध-मोचन में काली की उपासना सर्वोत्कृष्ट कही जाती है । शक्ति-साधना के दो पीठों में काली की उपासना श्याम-पीठ पर करने योग्य है । भक्ति-मार्ग में तो किसी भी रुप में उन महामाया की उपासना फल-प्रदा है, पर सिद्धि के लिये उनकी उपासना वीर-भाव से की जाती है । साधना के द्वारा जब अहंता, ममता और भेद-बुद्धि का नाश होकर साधक में पूर्ण शिशुत्व का उदय हो जाता है, तब काली का श्री-विग्रह साधक के समक्ष प्रकट हो जाता है । उस समय भगवती काली की छबि अवर्णनीय होती है । कज्जल के पहाड़ के समान, दिग्वसना, मुक्त-कुन्तला, शव पर आरुढ़, मुण्ड-माला-धारिणी भगवती काली का प्रत्यक्ष दर्शन साधक को कृतार्थ कर देता है । तान्त्रिक-मार्ग में यद्यपि काली की उपासना दीक्षा-गम्य है, तथापि अनन्य शरणागति के द्वारा उनकी कृपा किसी को भी प्राप्त हो सकती है । मूर्ति, मन्त्र अथवा गुरु द्वारा उपदिष्ट किसी भी आधार पर भक्ति-भाव से, मन्त्र-जप, पूजा, होम और पुरश्चरण करने से भगवती काली प्रसन्न हो जाती हैं । उनकी प्रसन्नता से साधक सहज ही सम्पूर्ण अभीष्टों की प्राप्ति हो जाती है ।

आसान नहीं शक्ति की साधना

आसान नहीं शक्ति की साधना
एक बार इन्द्रासन पर नजर गड़ाए दैत्य दुर्गम ने ब्रह्माजी ककी कठोर तपस्या कर वरदान में उनसे सारे वेद माँग लिए। वह जानता था कि वेदों के न रहने से उसके माध्यम से होने वाले यज्ञादि बंद हो जाएँगे। तब देवताओं को हवन का भ
ाग मिलना बंद हो जाएगा और वे शक्तिहीन हो जाएँगे। तब वह आसानी से देवलोक पर कब्जा कर लेगा। ऐसा ही हुआ भी।
पराजित देवता भागकर गुफाओं में छिप गए। इधर वैदिक क्रियाएँ बंद होने से संसार में अनावृष्टि और अकाल की स्थिति पैदा हो गई। तब मानव और देवों ने मिलकर भगवती की उपासना की। प्रसन्न देवी ने सैकड़ों नेत्रों वाले दिव्य रूप में प्रकट होकर नौ रात्रियों तक अपने नेत्रों की जलधाराओं से वर्षा की। इससे धरती फिर हरी-भरी हो गई।
उन्होंने भक्तों को खाने के लिए फल और शाक भी दिए। इस कारण उन्हें शाकम्भरी कहा जाने लगा। सैकड़ों नेत्रों के कारण वे शताक्षी कहलाईं। उन्होंने भक्तों को यह भी आश्वासन दिया कि वे दुर्गम से वेद वापस लेकर उन्हें दे देंगी।
यह जानकर क्रोधित हुआ दुर्गम विशाल सेना के साथ देवी से युद्ध करने चल पड़ा। उसे आता देख देवी सभी भक्तों को एक तेजोमय चक्र के अंदर सुरक्षित खड़ा करके स्वयं उससे युद्ध करने लगीं।
उनके विग्रह से कालिका, तारिणी, बाला, त्रिपुरा, भैरवी, बगला, मातंगी, रमा, कामाक्षी, मोहिनी आदि बत्तीस शक्तियाँ भी उत्पन्न हुईं, जिन्होंने जल्द ही दुर्गम की सेना को नष्ट कर दिया। अंत में भगवती ने दुर्गम का अंत कर दिया और उससे वेद छीनकर दोबारा देवों के सौंप दिए। दुर्गम का वध करने के कारण उन्हें दुर्गा कहा जाने लगा।

त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ

त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ
त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ हिन्दू धर्म में प्रसिद्ध 51 शक्तिपीठों में से एक है। हिन्दू धर्म के पुराणों के अनुसार जहाँ-जहाँ माता सती के अंग के टुकड़े, धारण किये हुए वस्त्र और आभूषण गिरे, वहाँ-वहाँ पर शक्तिपीठ अस्तित्व
में आये। इन शक्तिपीठों का धार्मिक दृष्टि से बड़ा ही महत्त्व है। ये अत्यंत पावन तीर्थस्थान कहलाते हैं। ये तीर्थ पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में फैले हुए हैं। देवीपुराण में 51 शक्तिपीठों का वर्णन है। 'त्रिपुर सुन्दरी शक्तिपीठ' इन्हीं 51 शक्तिपीठों में से एक है।

4 ज़िलों- 'धालाई', 'उत्तरी त्रिपुरा', 'दक्षिणी त्रिपुरा' और 'पश्चिमी त्रिपुरा' वाला भारत का अति लघु प्रदेश त्रिपुरा बांग्लादेश से घिरा है। पूर्वोत्तर में एक सँकरी पट्टी है, जहाँ त्रिपुरा की सीमा असम तथा मिज़ोरम से मिलती है। इन चार ज़िलों के मुख्यालय हैं- धालाई का मुख्यालय अम्बासा, उत्तरी त्रिपुरा का मुख्यालय कैलास शहर, दक्षिणी त्रिपुरा का मुख्यालय उदयपुर और पश्चिमी त्रिपुरा का मुख्यालय अगरतला, जो त्रिपुरा राज्य की राजधानी भी है। त्रिपुरा का क्षेत्रफल मात्र 10491 वर्ग किलोमीटर है। इसकी पुरानी राजधानी उदयपुर ही थी।

स्थिति

उल्लेखनीय है कि महाविद्या समुदाय में त्रिपुरा[1] नाम की अनेक देवियाँ हैं[2], जिनमें त्रिपुरा-भैरवी, त्रिपुरा और त्रिपुर सुंदरी विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। देवी त्रिपुरसुंदरी ब्रह्मस्वरूपा हैं, भुवनेश्वरी विश्वमोहिनी हैं। वही परदेवता, महाविद्या, त्रिपुरसुंदरी, ललिताम्बा आदि अनेक नामों से स्मरण की जाती हैं। त्रिपुरसुंदरी का शक्ति-संप्रदाय में असाधारण महत्त्व है। इन्हीं के नाम पर सीमांत प्रदेश भारत के पूर्वोत्तर भाग में 'त्रिपुरा राज्य' नाम से स्थापित है। कुछ का यह कथन है कि त्रिपुरी भाषा के दो शब्द 'तुर्ड' तथा 'प्रा' पर इस राज्य का नाम पड़ा है, जिसका संयुक्त रूप से अर्थ होता है- 'पानी के पास।' दक्षिणी-त्रिपुरा उदयपुर शहर से तीन किलोमीटर दूर, राधा किशोर ग्राम में राज-राजेश्वरी त्रिपुर सुन्दरी का भव्य मंदिर स्थित है, जो उदयपुर शहर के दक्षिण-पश्चिम[3] में पड़ता है। यहाँ सती के दक्षिण 'पाद'[4] का निपात हुआ था। यहाँ की शक्ति 'त्रिपुर सुंदरी' तथा शिव 'त्रिपुरेश' हैं। इस पीठ स्थान को 'कूर्भपीठ' भी कहते हैं। इस मंदिर का प्रांगण कूर्म[5] की तरह है तथा इस मंदिर में लाल-काली कास्टिक पत्थर की बनी माँ महाकाली की भी मूर्ति है। इसके अतिरिक्त आधा मीटर ऊँची एक छोटी मूर्ति भी है, जिसे माता कहते हैं। उनकी भी महिमा माँ काली की तरह है। कहते हैं कि त्रिपुरा-नरेश शिकार हेतु या युद्ध पर प्रस्थान करते समय इन्हें अपने साथ रखते थे।

प्रचलित कथा

एक प्रचलित कथा के अनुसार 16वीं शताब्दी के प्रथम दशक, सन् 1501 में त्रिपुरा पर धन्यमाणिक का शासन था। एक रात उन्हें माँ त्रिपुरेश्वरी स्वप्न में दिखीं तथा बोलीं कि चिंतागाँव के पहाड़ पर उनकी मूर्ति है, जो उन्हें वहाँ से आज ही लानी है, रात में ही। स्वप्न देखते ही राजा जाग गए तथा सैनिकों को तुरंत जाकर, रात में ही मूर्ति लाने का हुक्म सुना दिया। सैनिक मूर्ति लेकर लौट रहे थे कि माताबाड़ी पहुँचते-पहुँचते सूर्योदय हो गया और माता के आदेशानुसार वहीं मंदिर बनवाकर मूर्ति स्थापित कर दी गई। यही कालांतर में 'त्रिपुर सुंदरी' के नाम से जानी गईं। यह भी किवदंती है कि राजा धन्यमाणिक वहाँ विष्णु मंदिर बनवाने वाले थे, किंतु त्रिपुरेश्वरी की मूर्ति स्थापित हो जाने के कारण राजा पेशोपेश में पड़ गए कि वहाँ वे किसका मंदिर बनवाएँ? किंतु सहसा आकाशवाणी हुई कि राजा उस स्थान पर, जहाँ विष्णु मंदिर बनवाने वाले थे, माँ त्रिपुर सुंदरी का मंदिर बनवा दें और राजा ने यही किया।

तालाब

मंदिर के पीछे, पूर्व की ओर 6.4 एकड़ भूमि पर झील की तरह एक तालाब है, जिसे कल्याणसागर कहते हैं। इसमें बड़े-बड़े कछुए तथा मछलियाँ हैं, जिन्हें मारना या पकड़ना अपराध है। प्राकृतिक मृत्यु प्राप्त कछुओं/मछलियों को दफनाने के लिए अलग से एक स्थान वहाँ नियत है, जहाँ पर पुजारियों की समाधियाँ भी बनी हैं। मंदिर तथा कल्याण सागर की देख-रेख त्रिपुरा सरकार के राजस्व विभाग की एक समिति के द्वारा होती है। मंदिर का दैनिक व्यय राजस्व विभाग ही वहन करता है। दीपावली पर यहाँ भव्यायोजन एवं मेला लगता है।

यातायात

उदयपुर-सबरम पक्की सड़क के किनारे स्थापित इस शक्तिपीठ के मंदिर का क्षेत्रफल 24x24x75 फुट है। उदयपुर से माताबाड़ी के लिए बस, टैक्सी, ऑटोरिक्शा उपलब्ध हैं तथा मंदिर के निकट अनेक धर्मशालाएँ एवं रेस्ट हाउस भी बने हुए हैं। दक्षिणी त्रिपुरा की प्राचीन राजधानी उदयपुर शहर से 3 किलोमीटर दूर त्रिपुर सुंदरी मंदिर है। वहाँ जाने के लिए अगरतला तक वायुयान से यात्रा करनी होगी। वहाँ से सड़क मार्ग ही मुख्य यातायात साधन है। यहाँ रेलमार्ग मात्र 64 किलोमीटर तक उपलब्ध है। कोलकाता से लामडिंग, वहाँ से सिलचर जाकर वायुमार्ग से यात्रा करना सुविधाजनक है। यद्यपि सड़क मार्ग भी उपलब्ध है, पर अधिक सुविधाजनक नहीं है।

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टीका टिप्पणी और संदर्भ

↑ श्री कामराज विद्या की अधिष्ठात्र श्री विद्या का ही नामांतर त्रिपुरा है। 'त्रि' अर्थात 'तीन या त्रिमूर्तियों से', 'पुरा' 'पुरातन' होने से त्रिपुरा यानी गुणत्रयातीता त्रिगुणानियंत्री शक्ति। तंत्र ग्रंथ त्रिपुरार्णव में त्रिपुरा की निरुक्ति है-तीन नाड़ियाँ (इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना)। वह मन, बुद्धि एवं चित्त रूपी तीन पुरों में वास करने वाली शक्ति हैं। प्रकारांतर में त्रिपुरा की निरुक्ति है-त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर शिव) की जननी होने से, त्रयी (ऋक्, साम, यजु,) वेदमयी होने से, महाप्रलय की त्रिलोकी को अपने में लीन करने से जगदम्बा 'श्री विद्या' ही त्रिपुरा हैं। इच्छा-शक्ति उनका शिरोभाग है, ज्ञान-शक्ति मध्य भाग है तथा क्रियाशक्ति अधोभाग है, इसी से शक्ति-त्रयात्मक होने से वह त्रिपुरा कही जाती हैं।
↑ श्री विद्यार्णव (भाग-2)
↑ नैऋत्यकोण
↑ पैर
↑ कछुवे

What are Mantras and how they work ?

Kavacha mantras
Every mantra has a kavacha mantra and hrudhaya mantra. Kavacha mantras contain prayers that seeks to protect us in all respects.Every kavacha mantra is unique in its own way. Kavacha mantras are great boon to humanity given by our rishis. Our life is full of risks. When we analyse the risks that are well known and risks which we are not in a position to imagine about we may find it not possible to remain alert always. Also when astrologers forewarn about any impending difficult times in near future we look forward to some means or tools to face the situation without much damage. Some tantricks give talisman to protect us from difficulties.
Going to a tantric is also not free from risks, because it is possible that he may like to make busyness out of our difficulties. In these situations Kavacha mantras become very handy and usefull tool for protection.
When we observe the lives of our saints rishis we can find that they prefer life only in secluded places espcially jungles.They wanted to be free from hassels of regular human life in towns villages and cities. Still they are not free from risks. They may face life endangering risks from wild animals.Of course one can jovially remark that life in cities along with fellow humans may be more dangerous than life with wild animals. Still one will be defenitely seek protection from ferocious wild animals like tigers,lions and elephants etc.
In these situations kavacha mantras help very much. Once we know the secrecy of Gayatri kavacha and its potential capablity towards protection we will not miss the oppurtunity to miss it. Unfortunately people lack faith on one side and being misguided by so called friends on the other side. This is the malady in kaliyuga.
no likes Quote
In these situations kavacha mantras help very much. Once we know the secrecy of Gayatri kavacha and its potential capablity towards protection we will not miss the oppurtunity to miss it. Unfortunately people lack faith on one side and being misguided by so called friends on the other side. This is the malady in kaliyuga.
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There are two important issues for success. Faith in mantra and faith in Guru and following his guidelines. Of course guideline from great texts like Srimadh Bhagawath Githa should also be taken into heart. Guru is a live person whom we can interact with and some principles any related issues which we are not able to easy comprehend can be made easy and symplified by guru.
Generally it is good that Guru should be a person totally acceptable to all members of family. The desciple should be able to handle any competetive situation successfully in the absence of Guru. Guruji must be able to shape the shisya that way with selfless process. Combination of Guru, shisya,faith,rhighteousnes
s,attitude along with faith in mantra will work wonders and great people are shaped only this way.
Kavacha mantras also make a person to be himself or herself. They protect from being lured by selfish individuals in sourroundings either relative, friend or any other aquaintance. In this world especially in kaliyuga activities of people are generally influenced by various desire, motivations and selfish purposes in total. Exploitations are rampant. People with knowledge in certain fields tend to exploit innocence of others. People who tend to exploit the other persons always resort to sweet words and flattery. Persons protected by kavacha mantras can easily smell the rat if found himself or herself flattered
Faith is the most required quality before proceeding on any specific mission. The real mission of every soul born in this world in flesh and blood should getting united with the consolidated soul ie "Parabrahmam" shedding away the need to be reborn in this world called "Mruthyulog"
Mantra is colourless odourless package of energy which can lift us to eternal bliss. It is a powerfull vehicle for us to travel in the ocean of social life in the mruthyulog which can only deliver distress at the end.
While travelling we can find and encounter many hindrances and disturbances through fellow creations and it requires our intelligence to ascertain and assess our own mission in this world and over come those disturbances in pursuit of our mission. People who are born in this world and think that they are born only to enjoy what they see here for enjoyments and feel that achievements of tools for their enjoyments are their birth rights also use mantras as tools. But ultimately they only accumulate their karmas and sow seeds for rebirth.
Recognition of logics behind the analysis of any topic relies much on the acceptablity to the reasoning of common man in respect of that topic. Relevance of mantras to human activities is an issue which I would like to highlight for the benefit of readers. It is my belief that we Indians have lot to contribute to the welfare of inhabitants of this planet but we are lagging behind because of still continuing of persistance of thoughts and cultural minglings of colonial rule. We are not fully Independant yet is what i believe based on our inability to make the world listen to what we have to say. I believe we can come out with wonderfull presentations for the benefit of humanity if we apply our research mind on what is said in our Vedic theories.
According to Hindu philosophy, when creation was considered after deluge A devine entity called Sri Bhrahma was created first, with directions to proceed with further creations based on concept called "Pancha thanmatras". Sabtam,sparsam,roopam, rasam and Gandham are those pancha thanmatras. So secrecy of creation lies within these fice concepts. Sabtam is sound,sparsam is feelings,roopam is light,rasam is essence and Gandham is smell. Then earth,water,fire,air and space was created to facilitate life and so on.
Saptam has an inherent capacity to influence all of rest and that is the essence of mantra and its working. When we take a living body there are five fields of activity called "Pancha koshas" in relegious terms. 428th Name in Sri Lalitha Sahasranama says "pancha koshantharasthithaayai nama". Following are the pancha koshas.
1.Anna maya kosham.2, Prana maya kosham,3,Manomaya kosham,4, Vignaana maya kosham,5,Aanandha maya kosham. Analysis of these five fields will bring out the beauty of creation and funtional relevance of mantras.

Sri Vidhyaranyar has constructed verses on these pancha koshas.They contain informations on these pancha koshas. I am not interested in quoting those slokas. My effort here is to make the readers to understand what I have understood on those five fields. Creation is of two nature. One is visible and the other is invisible,like sound,smell etc. Body is visible and living body thrives on food. Annam is food and body made of pancha boothas are annamaya kosham. Medical science has gone extensively into that and that science is limited to this kosham only. To some extent it speaks on Manomaya kosha with the nomenclature "Phsycology" . Still it is most attached with annamaya kosham only. All the activities including scientific analysis logics etc come within the purview of Vignanamaya kosham and our science which paves way for "Development" never goes beyond that. It has not even made any effort that way.
It is my view that if we consider relegion itself is a science and put our faith relegious theories we can peep into anandha mayakosham which paves way for access to knowledge about "Atma" as detailed in Srimadh Bhagawath geetha. Once we have faith relegion gives us a wonderfull tool called "mantra" with some beejaksharas. Practising these mantras gives us access to all areas of creation and finally leads to eternal pleasure or happyness.
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Mantras initiated by sadhguru help us lift ourselves,improve slowly, to the knowledge of atma and get ourselves reunited with "paramatha" the consolidated soul.In this kaliyuga every thing and all activities revolve around this annamaya kosham only ie body.Because it is the visible structure.
Though Annamaya kosham is mainly on material side there is spiritual angle also.Its activities can bring benefits to soul and help its mission towards total liberation.There is an inherent link among all the five koshas. The annamaya kosham or body is just like a system like computor,televesion set etc. The pranamaya kosham activates the annamaya kosham by its presence. Presence of pranamaya kosham only ensures readiness of annamaya kosham ie body for activation which becomes live and energetic only through manomaya kosham. Manomaya kosham finds source of improvements through Vignanamaya kosham by gaining knowledge through logistic analysis of various issues.
Hindu relegioun gives a different name to annamaya kosham ie body. It is considered a "Kshethram". Kshethram means place where the atma is tied up with. In Sridhmadh githa there is a separate chapter called "Kshethram kshethragna vibaaga yoga"

Body is Kshethram and God within body is Kshethragna
Once we realise the truths behind spritual side of body we can avoid many difficulties we face in real life. Those details are elobrated in Sri madh Bhagawath Githa

Wednesday, September 26, 2012

અનુક્રમણિકા



અનુક્રમણિકા
  1. સૃષ્ટિનો પ્રારંભ 
  2. શિવ તત્વ 
  3. ભારતીય તત્વજ્ઞાનમાં શિવ ભાવ 
  4. મહાશિવરાત્રી 
  5. શિવપુરાણ પ્રમાણે ભગવાન શિવ ના ૧૦ પ્રમુખ અવતાર 
  6. ॐ અદભુત છે 
  7. ભગવાન શિવ અને રાષ્ટ્રીય એકતા 
  8. ભગવાન શિવના મસ્તક પર રાહુ 
  9. શાન્ખ્કલ્પ સંહિતા 
  10. વેદ કેવી રીતે અપૌરુષેય છે?
  11. બીજ મંત્રોનું રહસ્ય 
  12. વેદોમાં તથ્ય અને સત્યના મોતી 
  13. ગાયત્રીનો વિનિયોગ 
  14. ગાયત્રીમંત્રના ૨૪ અક્ષર 
  15. ગાયત્રીમંત્રના અનેકાનેક તથ્ય 
  16. રુદ્રાક્ષ ની ઉત્પત્તિ 
  17. ગણપતિ એક વૈદિક દેવતા 
  18. ગણપતિ એક દાર્શનિક ઈશ્વર 
  19. ભગવદ ગીતાની શબ્દાવલી 
  20. યોગીની એકાદશી 
  21. કાળીનો ભેદ 
  22. ઋષીઓ ની કાર્ય પદ્ધતિ - છંદ 
  23. ઘરમાં પારડ શિવલિંગ સૌભાગ્ય 
  24. પ્રાચીન ગ્રંથો જ્ઞાનનો ભંડાર 
  25. બ્રાહ્મણ કોણ?
  26. મનુષ્ય શરીર 
  27. આપણી પરંપરા અને વિજ્ઞાન 
  28. વાસ્તુ સૂત્ર 
  29. વાસ્તુમાં દિશાઓનું મહત્વ 
  30. વાસ્તુ સંમત મંદિર કેવી રીતે બને?
  31. સ્થાપત્ય કળા 
  32. સનાતન ધર્મ માં સાધુ સમાજ, એમની પરંપરા અને વિભિન્ન અખાડા 
  33. નાથ સંપ્રદાય એક પરિચય 
  34. ઈશ્વર સ્મરણ - નામ રતન 
  35. હર્તાલીકા ત્રીજ 
  36. આનંદ ક્યા છે?
  37. સુભાષિતો શા માટે?
  38. પાંચ યજ્ઞનો સિદ્ધાંત 
  39. ચહેરો વાંચવો 
  40. હનુમાન જન્મ ની કથા 
  41. પૂરું વંશ નું વર્ણન 
  42. તુલસી નો છોડ 
  43. ગાય 
  44. વૈદિક ૧૬ સંસ્કારો 
  45. ચોટલી રાખવી સૈધાંતિક કે વૈજ્ઞાનિક પ્રયોજન 
  46. મોક્ષ શું છે?
  47. જનોઈ પહેરવાથી શું લાભ 
  48. ગુરુત્વાકાર્શનના નિયમ નો શોધક કોણ?
  49. પિતા 
  50. અંતર્યામી કોણ?
  51. ભગવાનનો આભાર માનવામાં શેની વિમાસણ?
  52. ઉપદેશ કથાઓ 
  53. શૈશવ કાળ
  54. પ્રેરક વાત 
  55. અષ્ટાવક્ર 

एकता

 पौराणिक कथाओं में यह प्रसंग आता है कि भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्र द्वारा की जाने वाली तेज बरसात से गोकुलवासियों को बचाने के लिए गोवर्धन पर्वत उठा लिया था। हालांकि उन्होंने गोवर्धन पर्वत अपनी कनिष्ठिका अंगुली से उठाया था, इसके बावजूद उन्होंने उस पर सभी गोकुलवासियों का हाथ भी लगवाया था। वे चाहते तो गोवर्धन पर्वत को अकेले ही उठा सकते थे, परंतु उन्होंने ऐसा नहीं किया। प्रश्न उठता है कि उन्होंने गोकुलवासियों का हाथ क्यों लगवाया?
दरअसल, श्रीकृष्ण यह संदेश देना चाहते थे कि एकता में बहुत बल है। बचपन में भी हम अक्सर ऐसी ढेर सारी कहानियां पुस्तकों में पढते रहे हैं। जिस समाज में, जिस देश में अथवा संगठन में एकता होती है, वह निश्चित ही उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। लेकिन इसके लिए आवश्यक है कि हम एकता का अर्थ जानें।
सामूहिक एकता का मतलब भीड इकट्ठा कर लेना नहीं होता। कुछ लोगों के एकत्रित भर हो जाने से एकत

ा नहीं आती। भीड को कई बार हम एकता की डोर में इसलिए नहीं बांध पाते, क्योंकि उनमें वैचारिक रूप से कोई तालमेल नहीं होता। एकता के लिए वैचारिक तालमेल महत्वपूर्ण है। एकता विलय का प्रतीक नहीं, वरन आपसी प्रेम, भाई-चारे, श्रेष्ठता और जागरूकता का प्रतीक है। जो वृक्ष एक साथ मिलकर खडे होते हैं, वे बडी से बडी आंधी की मार भी झेल जाते हैं। पांच अंगुलियां भी एक साथ मिलकर मजबूत मुट्ठी बन जाती हैं। एकता का मतलब है-हमारे एक से उद्देश्य हों, हमारी सोच एक दूसरे की मदद करने वाली हो, हमारा चिंतन-मनन सबके कल्याण के लिए हो। हमारा ध्येय मानव जगत और विश्व का कल्याण हो, हम सुख-दुख में एक हों। एकता का तात्पर्य है मन-मन के भेद को मिटाकर एक राह में आगे बढना। यही कारण है कि कई लोगों द्वारा मिलकर गलत काम करने को हम एकता नहीं कहते।
कई बार तुच्छ स्वार्थो और अहंकार के बीच परिवार टूट जाते हैं, पार्टियां बिखर जाती हैं। एकता कायम रखने के लिए आवश्यक है कि हम अपने अंदर कुछ त्याग की भावना लाएं, स्वयं को विराट बनाएं, संकीर्णताओं से ऊपर उठें। एक-दूसरे की भावनाओं को समझें और सम्मान दें। कहा भी गया है, संघे शक्ति: कलियुगे। संगठन की वीणा तभी सुंदर बजती है, जब उसके सभी तारों में तालमेल हो।