चार प्रकार के मनुष्य होते हैं - १-पामर, २- विषयी, ३- साधक या मुमुक्षु
और ४- सिद्ध या मुक्त l इनमें पामर तो निरन्तर पाप कर्मों में ही लगा रहते
है l , विषयों में आसक्ति होने के कारण उनकी प्राप्ति के लिए वह सदा-सर्वदा
बुरी-बुरी बातों को सोचता और बुरे-बुरे आचरण करता रहता है l उसकी बुद्धि
सर्वथा मोहाच्छन्न रहती है तथा वह पुण्य में पाप एवं पाप में पुण्य देखता
हुआ निरन्तर पतन की ओर अग्रसर होता रहता है l अतएव उसकी बात छोड़िये l इसी
प्रकार सिद्ध या मुक्त पुरुष भी सर्वथा आलोचना के परे हैं lk उसकी अनुभूति
को वही जानता है l उसकी स्थिति का वाणी से वर्णन नहीं किये जा सकता तथापि
हमारे समझने के लिए शास्त्रों ने उसका सांकेतिक लक्षण 'समता' बतलाया है l
वह मान-अपमान में, स्तुति-निन्दा में, सुख-दुःख में, लाभ-हानि में सम है l
उसके लिए विषयों का त्याग और ग्रहण समान है, शत्रु-मित्र उसके लिए एक-से
हैं l वह द्वन्द रहित एकरस स्वसंवेद्य स्वरूप-स्थिति में विराजित है l किसी
भी प्रकार की कोई भी परिस्थिति, कोई भी परिवर्तन उसकी स्वरुपावस्था में
विकार पैदा नहीं कर सकते l
अब रहे विषयी और साधक l सो इन दोनों के कर्म दो प्रकार के होते हैं l दोनों के दो पथ होते हैं l विषयी जिस मार्ग से चलता है, साधक का मार्ग ठीक उसके विपरीत होता है l विषयी पुरुष को कर्म की प्रेरणा मिलती है - वासना, कामना से और उसके कर्म का लक्ष्य होता है भोग l वह कामना-वासना के वशवर्ती होकर, कामना के द्वारा विवेकभ्रष्ट होकर कामना के दुरन्त प्रवाह में बहता हुआ विषयासक्त चित्त से भोगों की प्राप्ति के लिए अनवरत कर्म करता है l साधक को कर्म की प्रेरणा मिलती है - भगवान् की आज्ञा से और उसके कर्म का लक्ष्य होता है भगवान् की प्राप्ति l वह भगवान् की आज्ञा से प्रेरणा प्राप्तकर, विवेक की पूर्ण जागृति में भगवान् की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से भगवान् में आसक्त होकर भगवान् की प्राप्ति के लिए कर्म करता है l यही मौलिक भेद है l विषयी मान चाहता है, उसे बड़ाई बड़ी प्रिय मालूम होती है, पर साधक बड़ाई-प्रशंसा को महान हानिकर मानकर उससे दूर रहना चाहता है l वह प्रतिष्ठा को 'शूकरी-विष्ठा' के समान त्याज्य और घृणित मानता है l विषयी को विलास-वस्तुओं से सजे-सजाये महलों में सुख मिलता है तो साधक को घास-फूस की कुटिया में आराम का अनुभव होता है l इस प्रकार विषयी पुरुष संसार का प्रत्येक सुख चाहता है, साधक उस सुख को फँसानेवाली चीज़ मानकर-दुःख मानकर उससे बचना चाहता है l
साधक में सिद्धपुरुष की-सी समता नहीं होती और जब तक वह सिद्धावस्था में नहीं पँहुच जाता, तब तक समता उसके लिए आवश्यक भी नहीं है l उसमें विषमता होनी चाहिए और वह होनी चाहिए विषयी पुरुष में सर्वथा विपरीत l उसे सांसारिक भोग-वस्तुओं में वितृष्णा होनी चाहिए l सांसारिक सुखों में दुःख की भावना होनी चाहिए और दुखों में सुख की l सांसारिक लाभ में हानि की भावना होनी चाहिए और हानि में लाभ की l सांसारिक ममता के पदार्थों की कमी में अधिकाधिक बंधन-मुक्ति की जगत में उसका सम्मान मरनेवाले, पूजा-प्रतिष्ठा करनेवाले, कीर्ति, प्रशंसा और स्तुति करनेवाले लोग बढ़ें तो उसे हार्दिक प्रतिकूलता का बोध होना चाहिए और इनके एकदम न रहनेपर तथा निन्दनीय कर्म सर्वथा न करने पर भी अपमान, अप्रतिष्ठा और निन्दा प्राप्त होने पर अनुकूलता का अनुभव होना चाहिए l जो लोग साधक तो बनना चाहते हैं पर चलते हैं विषयी पुरुष के मार्ग पर तथा अपने को सिद्ध मानकर अथवा बतलाकर समता की बाते करते हैं , वे तो अपने को और संसार को धोखा ही देते हैं l निष्काम कर्मयोग की, तत्वज्ञान की या दिव्य भगवत्प्रेम की ऊँची-ऊँची बातें भले ही कोई कर ले l जब तक मन में विषयासक्ति और भोग-कामना है, जब तक विषयी पुरुषों की भांति भोग-पदार्थों में अनुकूलता-प्रतिकूलता है तथा राग-द्वेष है, तब तक वह साधक की श्रेणी में ही नहीं पँहुच पाया है, सिद्ध या मुक्त की बात तो बहुत दूर है l मन में कामना रहते केवल बातों से कोई निष्काम कैसे होगा ? संसार की प्रत्येक अनुकूल कहानेवाली वस्तु में, भोग में और परिस्थिति में साधक को सदा-सर्वदा दुःख-बोध होना चाहिए l दुःख का बोध न होगा तो सुख का बोध होगा l सुख का बोध होगा तो उनकी स्पृहा बनी रहेगी l मन उनमें लगा ही रहेगा l इस प्रकार संसार के भोगादि में सुख का बोध भी हो, उनमें मन भी रमण करता रहे तथा उनको प्राप्त करने की तीव्र इच्छा भी बनी रहे और वह भगवान् को भी प्राप्त करना चाहे - यह बात बनती नहीं l
अब रहे विषयी और साधक l सो इन दोनों के कर्म दो प्रकार के होते हैं l दोनों के दो पथ होते हैं l विषयी जिस मार्ग से चलता है, साधक का मार्ग ठीक उसके विपरीत होता है l विषयी पुरुष को कर्म की प्रेरणा मिलती है - वासना, कामना से और उसके कर्म का लक्ष्य होता है भोग l वह कामना-वासना के वशवर्ती होकर, कामना के द्वारा विवेकभ्रष्ट होकर कामना के दुरन्त प्रवाह में बहता हुआ विषयासक्त चित्त से भोगों की प्राप्ति के लिए अनवरत कर्म करता है l साधक को कर्म की प्रेरणा मिलती है - भगवान् की आज्ञा से और उसके कर्म का लक्ष्य होता है भगवान् की प्राप्ति l वह भगवान् की आज्ञा से प्रेरणा प्राप्तकर, विवेक की पूर्ण जागृति में भगवान् की आज्ञा का पालन करने की इच्छा से भगवान् में आसक्त होकर भगवान् की प्राप्ति के लिए कर्म करता है l यही मौलिक भेद है l विषयी मान चाहता है, उसे बड़ाई बड़ी प्रिय मालूम होती है, पर साधक बड़ाई-प्रशंसा को महान हानिकर मानकर उससे दूर रहना चाहता है l वह प्रतिष्ठा को 'शूकरी-विष्ठा' के समान त्याज्य और घृणित मानता है l विषयी को विलास-वस्तुओं से सजे-सजाये महलों में सुख मिलता है तो साधक को घास-फूस की कुटिया में आराम का अनुभव होता है l इस प्रकार विषयी पुरुष संसार का प्रत्येक सुख चाहता है, साधक उस सुख को फँसानेवाली चीज़ मानकर-दुःख मानकर उससे बचना चाहता है l
साधक में सिद्धपुरुष की-सी समता नहीं होती और जब तक वह सिद्धावस्था में नहीं पँहुच जाता, तब तक समता उसके लिए आवश्यक भी नहीं है l उसमें विषमता होनी चाहिए और वह होनी चाहिए विषयी पुरुष में सर्वथा विपरीत l उसे सांसारिक भोग-वस्तुओं में वितृष्णा होनी चाहिए l सांसारिक सुखों में दुःख की भावना होनी चाहिए और दुखों में सुख की l सांसारिक लाभ में हानि की भावना होनी चाहिए और हानि में लाभ की l सांसारिक ममता के पदार्थों की कमी में अधिकाधिक बंधन-मुक्ति की जगत में उसका सम्मान मरनेवाले, पूजा-प्रतिष्ठा करनेवाले, कीर्ति, प्रशंसा और स्तुति करनेवाले लोग बढ़ें तो उसे हार्दिक प्रतिकूलता का बोध होना चाहिए और इनके एकदम न रहनेपर तथा निन्दनीय कर्म सर्वथा न करने पर भी अपमान, अप्रतिष्ठा और निन्दा प्राप्त होने पर अनुकूलता का अनुभव होना चाहिए l जो लोग साधक तो बनना चाहते हैं पर चलते हैं विषयी पुरुष के मार्ग पर तथा अपने को सिद्ध मानकर अथवा बतलाकर समता की बाते करते हैं , वे तो अपने को और संसार को धोखा ही देते हैं l निष्काम कर्मयोग की, तत्वज्ञान की या दिव्य भगवत्प्रेम की ऊँची-ऊँची बातें भले ही कोई कर ले l जब तक मन में विषयासक्ति और भोग-कामना है, जब तक विषयी पुरुषों की भांति भोग-पदार्थों में अनुकूलता-प्रतिकूलता है तथा राग-द्वेष है, तब तक वह साधक की श्रेणी में ही नहीं पँहुच पाया है, सिद्ध या मुक्त की बात तो बहुत दूर है l मन में कामना रहते केवल बातों से कोई निष्काम कैसे होगा ? संसार की प्रत्येक अनुकूल कहानेवाली वस्तु में, भोग में और परिस्थिति में साधक को सदा-सर्वदा दुःख-बोध होना चाहिए l दुःख का बोध न होगा तो सुख का बोध होगा l सुख का बोध होगा तो उनकी स्पृहा बनी रहेगी l मन उनमें लगा ही रहेगा l इस प्रकार संसार के भोगादि में सुख का बोध भी हो, उनमें मन भी रमण करता रहे तथा उनको प्राप्त करने की तीव्र इच्छा भी बनी रहे और वह भगवान् को भी प्राप्त करना चाहे - यह बात बनती नहीं l
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