वत है-जैसा पिएंपानी, वैसी बने वाणी। जैसा खाएं अन्न, वैसा बने मन। इसका अर्थ यह हुआ कि हमारे मन पर आहार का बहुत प्रभाव पडता है।
सच तो यह है कि मांसाहार का सेवन करने वाले व्यक्ति का मन पवित्र हो ही नहीं सकता है। अथर्ववेदमें कहा गया है कि जीवों के प्राणों का अंत कर उसे खाने वाले मनुष्यों पर ईश्वर की कृपा दृष्टि नहीं होती है। महर्षि दयानंद के अनुसार, मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक हो जाता है। गीता में भोजन की तीन श्रेणियां बताई गई हैं। सात्विक भोजन- फल, दालें, अनाज, मेवे, दूध, मक्खन आदि। इनसे मनुष्यों में सुख, शांति, दया, अहिंसा और करुणा का भाव बढता है। राजसी भोजन में तीखे, गर्म, कडवे, खट्टे और मिर्च-मसाले वाले भोजन आते हैं। इनसे जलन पैदा होती है। इस तरह का भोजन दुख, रोग और चिन्ता बढाने वाला होता है। तामसिक भोजन- बासी, आधे पके दुर्गध वाले, नशीले, मांसाहार आदि। ऐसे आहार गंदे संस्कारों की तरफ ले जाते हैं। हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं और आलस्य बढता है। इससे यह पता चलता है कि सात्विक आहार ही हमारे लिए सर्वोत्तम है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्टआइंसटीनकहते थे कि शाकाहार का हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पडता है। यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो हिंसा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। महान दार्शनिक जॉर्जबर्नाडशॉने लिखा है, हम मांस खाने वाले चलती-फिरती कब्रों के समान हैं, जिनमें कई जानवरों की लाशें दफन हैं।
भारत में भी कई संत और दार्शनिक हुए हैं, जिन्होंने मांसाहार को जहरीला या राक्षसी आहार कहा है और उनसे दूर रहने की हिदायत दी है। महान दार्शनिक और संत तिरुवल्लुवरने कहा है कि उस मनुष्य में दया की भावना कैसे आ सकती है, जो अपना मांस बढाने के लिए दूसरे जीव-जंतुओं का मांस खाता है? गुरुनानक देव ने भी मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बताया है। इसके अलावा, महाकवि शैले,जो महान शाकाहारी थे, ने कहा है कि इनसान जब जीव-जंतुओं का सेवन करने लगता है, तो वह उन नीच जानवरों की श्रेणी में आ जाता है, जो स्वभावत:मांसाहारी और क्रूर होते हैं। इसलिए मांसाहार को पाप और अपराध के लिए जिम्मेदार बताया गया है। इसके बावजूद भी यदि हम मांस खाते हैं, तो यह हमारी मूर्खता होगी। सच तो यह है कि यदि आप चाहते हैं कि आपका मन पवित्र हो और आपके विचार सर्वोत्तम हों, तो आज से ही मांसाहार का परित्याग कर दें।
सच तो यह है कि मांसाहार का सेवन करने वाले व्यक्ति का मन पवित्र हो ही नहीं सकता है। अथर्ववेदमें कहा गया है कि जीवों के प्राणों का अंत कर उसे खाने वाले मनुष्यों पर ईश्वर की कृपा दृष्टि नहीं होती है। महर्षि दयानंद के अनुसार, मांसाहार से मनुष्य का स्वभाव हिंसक हो जाता है। गीता में भोजन की तीन श्रेणियां बताई गई हैं। सात्विक भोजन- फल, दालें, अनाज, मेवे, दूध, मक्खन आदि। इनसे मनुष्यों में सुख, शांति, दया, अहिंसा और करुणा का भाव बढता है। राजसी भोजन में तीखे, गर्म, कडवे, खट्टे और मिर्च-मसाले वाले भोजन आते हैं। इनसे जलन पैदा होती है। इस तरह का भोजन दुख, रोग और चिन्ता बढाने वाला होता है। तामसिक भोजन- बासी, आधे पके दुर्गध वाले, नशीले, मांसाहार आदि। ऐसे आहार गंदे संस्कारों की तरफ ले जाते हैं। हमारी बुद्धि भ्रष्ट हो जाती है, शरीर में अनेक बीमारियां उत्पन्न होती हैं और आलस्य बढता है। इससे यह पता चलता है कि सात्विक आहार ही हमारे लिए सर्वोत्तम है।
महान वैज्ञानिक अल्बर्टआइंसटीनकहते थे कि शाकाहार का हमारी प्रकृति पर गहरा प्रभाव पडता है। यदि दुनिया शाकाहार अपना ले, तो हिंसा होने की गुंजाइश ही खत्म हो जाए। महान दार्शनिक जॉर्जबर्नाडशॉने लिखा है, हम मांस खाने वाले चलती-फिरती कब्रों के समान हैं, जिनमें कई जानवरों की लाशें दफन हैं।
भारत में भी कई संत और दार्शनिक हुए हैं, जिन्होंने मांसाहार को जहरीला या राक्षसी आहार कहा है और उनसे दूर रहने की हिदायत दी है। महान दार्शनिक और संत तिरुवल्लुवरने कहा है कि उस मनुष्य में दया की भावना कैसे आ सकती है, जो अपना मांस बढाने के लिए दूसरे जीव-जंतुओं का मांस खाता है? गुरुनानक देव ने भी मांसाहार को सर्वथा त्याज्य बताया है। इसके अलावा, महाकवि शैले,जो महान शाकाहारी थे, ने कहा है कि इनसान जब जीव-जंतुओं का सेवन करने लगता है, तो वह उन नीच जानवरों की श्रेणी में आ जाता है, जो स्वभावत:मांसाहारी और क्रूर होते हैं। इसलिए मांसाहार को पाप और अपराध के लिए जिम्मेदार बताया गया है। इसके बावजूद भी यदि हम मांस खाते हैं, तो यह हमारी मूर्खता होगी। सच तो यह है कि यदि आप चाहते हैं कि आपका मन पवित्र हो और आपके विचार सर्वोत्तम हों, तो आज से ही मांसाहार का परित्याग कर दें।
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