श्री
रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड का प्रसंग है। प्रभु श्री राम गोदावरी के समीप
पर्णकुटी पाकर सीता और लक्ष्मण के साथ सुख पूर्वक रह रहे हैं। उस समय
अनुकूल अवसर जानकर लक्ष्मण उनसे एक तात्त्विक प्रश्न पूछते हैं कि.......
हे देव! मुझे ज्ञान,वैराग्य,माया,भक्ति,ईश्वर और जीव का भेद समझाकर कहिये............... जिससे आपके चरणों में मेरी प्रीति हो तथा मेरा शोक,मोह तथा भ्रम नष्ट हो जाय।
श्री राम ने थोड़े में मर्म समझाते हुए कहा कि-‘मैं और मेरा,तू और तेरा-यही माया है,
जिसने समस्त जीवों को अपने वश में कर रखा है।
इन्द्रियों के विशयों को और जहाँ तक मन जाता है,
हे भाई! उस सबको माया जानना।
उसके भी-एक विद्या और दूसरी अविद्या,
इन दोनों भेदों को तुम सुनो-
एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुखःरूप है
जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है
और एक (विद्या) जिसके वश में गुण हंै और जो जगत की रचना करती है,
वह प्रभु से प्रेरित होती है,उसके अपना बल कुछ भी नहीं है।
ज्ञान वह है जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबमें समान
रूप में ब्रह्म को देखता है। हे तात ! उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिये
......जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका
हो।’(रा.च.मा. 3/14-15)
आगे कहा है कि जीव वह है जो माया,ईश्वर और अपने
स्वरूप को नहीं जानता है तथा भक्ति स्वतन्त्र साधन है जिसके द्वारा ईश्वर
को सहज ही प्राप्त किया जा सकता है तथा अज्ञान अथवा मोह का नाष हो सकता है।
संक्षेप में कहा जाय तो व्यक्ति जब मैं और मेरा की सोच तक ही रह जाता है,अपने शरीर तथा
संतान,स्त्री,घर और धन एवं संसार के भोगो में ही आसक्त रहता है,सबमें अपनी
आत्मा का विस्तार नहीं देखता है तो वह अंहकार एवं ममता में बद्ध हो जाता
है और उसका संसार सीमित हो जाता है। इसे ही मोह अथवा अज्ञान की स्थिति कहा
गया है।
संत कबीर ने कहा हैः-
मैंै ं मेरे की जेवेवड़ी़ी,गल बंध्ंध्यो संसार।
दास कबीरा क्यों ें बंध्ंधे,े,जाके राम अधार।।
जब हम वस्तुओं,व्यक्तियों,परिस्थितियो ं
में ममता कर लेते हैं तो बंध जाते हैं। इसी के कारण हम सुखी-दुःखी होते
है। जिनको हमने अपना मान लिया है,उनका संयोग हमें सुख देता है तथा उनका
वियोग हमें दुःखी करता है। भगवान ने यह सृष्टि सबके कल्याण के लिये बनायी
है किंतु हम अपनी अलग ही सृष्टि की रचना कर लेते है तथा उस पर थोड़ा भी
प्रभाव आने से हम विचलित हो जाते हैं।
इसीलिये कहा जाता है कि इस
शरीर के रहते रहते मनुष्य को मोह-ममता रहित अथवा वासना रहित हो जाना चाहिये
जिससे कि उसको आवागमन के बन्धन में नहीं पड़ना पड़े। भगवान ने तो गीता में
यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति अन्तकाल में भी भगवान का स्मरण करता हुआ
षरीर को त्याग कर जाता है,वह उनके साक्षात्स्वरूप को प्राप्त होता है-इसमें
कुछ भी संशय नहीं है।
हे भाई! उस सबको माया जानना।
उसके भी-एक विद्या और दूसरी अविद्या,
इन दोनों भेदों को तुम सुनो-
एक (अविद्या) दुष्ट (दोषयुक्त) है और अत्यंत दुखःरूप है
जिसके वश होकर जीव संसार रूपी कुएँ में पड़ा हुआ है
और एक (विद्या) जिसके वश में गुण हंै और जो जगत की रचना करती है,
वह प्रभु से प्रेरित होती है,उसके अपना बल कुछ भी नहीं है।
ज्ञान वह है जहाँ (जिसमें) मान आदि एक भी (दोष) नहीं है और जो सबमें समान रूप में ब्रह्म को देखता है। हे तात ! उसी को परम वैराग्यवान कहना चाहिये ......जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका हो।’(रा.च.मा. 3/14-15)
आगे कहा है कि जीव वह है जो माया,ईश्वर और अपने स्वरूप को नहीं जानता है तथा भक्ति स्वतन्त्र साधन है जिसके द्वारा ईश्वर को सहज ही प्राप्त किया जा सकता है तथा अज्ञान अथवा मोह का नाष हो सकता है।
संक्षेप में कहा जाय तो व्यक्ति जब मैं और मेरा की सोच तक ही रह जाता है,अपने शरीर तथा
संतान,स्त्री,घर और धन एवं संसार के भोगो में ही आसक्त रहता है,सबमें अपनी आत्मा का विस्तार नहीं देखता है तो वह अंहकार एवं ममता में बद्ध हो जाता है और उसका संसार सीमित हो जाता है। इसे ही मोह अथवा अज्ञान की स्थिति कहा गया है।
संत कबीर ने कहा हैः-
मैंै ं मेरे की जेवेवड़ी़ी,गल बंध्ंध्यो संसार।
दास कबीरा क्यों ें बंध्ंधे,े,जाके राम अधार।।
जब हम वस्तुओं,व्यक्तियों,परिस्थितियो
इसीलिये कहा जाता है कि इस शरीर के रहते रहते मनुष्य को मोह-ममता रहित अथवा वासना रहित हो जाना चाहिये जिससे कि उसको आवागमन के बन्धन में नहीं पड़ना पड़े। भगवान ने तो गीता में यहाँ तक कहा है कि जो व्यक्ति अन्तकाल में भी भगवान का स्मरण करता हुआ षरीर को त्याग कर जाता है,वह उनके साक्षात्स्वरूप को प्राप्त होता है-इसमें कुछ भी संशय नहीं है।
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