धर्म
धर्म
शब्द संस्कृत की ‘धृ’ धातु से बना है जिसका अर्थ होता है धारण करना ।
परमात्मा की सृष्टि को धारण करने या बनाये रखने के लिए जो कर्म और कर्तव्य
आवश्यक हैं वही मूलत: धर्म के अंग या लक्षण हैं । उदाहरण के लिए निम्न
श्लोक में धर्म के दस लक्षण बताये गये हैं :-
धृति: क्षमा दमो स्तेयं शौचमिन्द्रिय निग्रह: ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्म लक्षणम् ।
विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई,
बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये
छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना,
इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं ।
अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर ।
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित् ।
अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ।
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे ।
जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य
जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे ।
जिस
समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ
स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है,
तृष्णा है ।
धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है
और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें
जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो
इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व
कहता है -
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह: ।
यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का
होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है ।
सर्वत्र धर्म के साथ रहने के कारण हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म भी कहा जाता है ।
विपत्ति में धीरज रखना, अपराधी को क्षमा करना, भीतरी और बाहरी सफाई, बुद्धि को उत्तम विचारों में लगाना, सम्यक ज्ञान का अर्जन, सत्य का पालन ये छ: उत्तम कर्म हैं और मन को बुरे कामों में प्रवृत्त न करना, चोरी न करना, इन्द्रिय लोलुपता से बचना, क्रोध न करना ये चार उत्तम अकर्म हैं ।
अहिंसा परमो धर्म: सर्वप्राणभृतां वर ।
तस्मात् प्राणभृत: सर्वान् न हिंस्यान्मानुष: क्वचित् ।
अहिंसा सबसे उत्तम धर्म है, इसलिए मनुष्य को कभी भी, कहीं भी,किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करनी चाहिए ।
न हि प्राणात् प्रियतरं लोके किंचन विद्यते ।
तस्माद् दयां नर: कुर्यात् यथात्मनि तथा परे ।
जगत् में अपने प्राण से प्यारी दूसरी कोई वस्तु नहीं है । इसीलिए मनुष्य जैसे अपने ऊपर दया चाहता है, उसी तरह दूसरों पर भी दया करे ।
जिस समाज में एकता है, सुमति है, वहाँ शान्ति है, समृद्धि है, सुख है, और जहाँ स्वार्थ की प्रधानता है वहाँ कलह है, संघर्ष है, बिखराव है, दु:ख है, तृष्णा है ।
धर्म उचित और अनुचित का भेद बताता है । उचित क्या है और अनुचित क्या है यह देश, काल और परिस्थिति पर निर्भर करता है । हमें जीवनऱ्यापन के लिए आर्थिक क्रिया करना है या कामना की पूर्ति करना है तो इसके लिए धर्मसम्मत मार्ग या उचित तरीका ही अपनाया जाना चाहिए । हिन्दुत्व कहता है -
अनित्यानि शरीराणि विभवो नैव शाश्वत: ।
नित्यं सन्निहितो मृत्यु: कर्र्तव्यो धर्मसंग्रह: ।
यह शरीर नश्वर है, वैभव अथवा धन भी टिकने वाला नहीं है, एक दिन मृत्यु का होना ही निश्चित है, इसलिए धर्मसंग्रह ही परम कर्त्तव्य है ।
सर्वत्र धर्म के साथ रहने के कारण हिन्दुत्व को हिन्दू धर्म भी कहा जाता है ।
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