– मूर्तिपूजा के आधारभूत तत्व क्या हैं
– वास्तव में हिन्दू मूर्तियों की पूजा नहीं करते। वे उन मूर्तियों के माध्यम से सर्वव्यापी विश्वचैतन्य की ही आराधना करते हैं। जब पुत्र पिता के चित्र को देखता है तो वह अपने पिता का स्मरण करता है न कि चित्रकार का। जब प्रेमिका द्वारा दिये गए कलम या पंख को प्रेमी देखता है तो वह अपनी प्रेमिका को ही याद करता है, उस वस्तु को नहीं। यदि कोई उन
के
बदले कुछ भी देने का वायदा करे तो भी वह उन वस्तुओं को नहीं छोडेगा,
उन्हें अन्य किसी को नहीं देगा। उसके लिए प्रेमिका द्वारा दिया गया वह कलम
केवल कलम नहीं है; वह पंख केवल पंख नहीं है। वह उनमें अपनी प्रेमिका के ही
दर्शन करता है। जब एक साधारण से युवक में ऐसे भाव जाग सकते हैं तो सोचो कि
सर्वेश्वर का स्मरण कराता विग्रह भक्त को कितना प्रिय होगा! जहाँ तक भक्त
की बात है उसके लिए वह मूर्ति केवल शिलाखंड नहीं है, वरन् चैतन्यस्वरूप है।
कुछ लोग कहते हैं कि विवाह तो केवल गले में मंगलसूत्र बाँधना है। बात सही है, गले में केवल एक सूत्र बाँधना ही है। परन्तु हम उस सूत्र को व उस मंगल मूहूर्त को कितना महत्व देते हैं! वह जीवन का ताना बाना बनाता मुहूर्त है। हम उस क्षण का जो मोल लगाते हैं, वह उस सूत्र का दाम नहीं होता, वरन् हमारे पूरे जीवन का मोल होता है। इसी तरह किसी विग्रह का मोल उसके पत्थर का मोल नहीं है। मूर्ति का तो मोल लगाया ही नहीं जा सकता। उसका स्थान तो समस्त प्रपंच के नाथ के तत्तुल्य है। विग्रह को केवल शिलारूप मानना अज्ञान है। ‘मैं इसमें ईश्वर की पूजा करता हूँ’, इस संकल्प से ही साधारणतया पूजा का आरंभ किया जाता है।
सर्वव्यापी ईश्वरचैतन्य की बिना किसी उपाधि का आश्रय लिये आराधना करना साधारण मानव के लिए कठिन है। भक्तिभाव को बढाने व मन को एकाग्र करने में मूर्ति मददगार है। हम मूर्ति के सम्मुख अंजलि जोडे, आँखें बन्द करके प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार मन को अंतर्मुख करने व अन्तस्थ चैतन्य को जगाने में विग्रह सहायक होता है। आराधना करते हुए हमें उसके तत्त्व को भी समझना चाहिए। स्वर्ण से ही हम कंगन, कुंडल, माला व अंगूठी बनाते हैं। स्वर्ण ही इन सभी का आधार है। उसी प्रकार ईश्वर ही सृष्टि के आधार हैं। हमें नानात्व में एकत्व दर्शन करने चाहिए। चाहे वह शिव हो, विष्णु हो, कार्तिक हो, सभी म एकत्व दर्शन करना चाहिए। सभी देव-रूपों को एक ही ईश्वर के विविध भाव-रूप मानना चाहिए। चूँकि लोगों के भिन्न संस्कार हैं, विविध रूपों को स्वीकार किया गया है। जिसको जो पसन्द है वह स्वीकार कर सकता है। हम यदि दर्पण में अपना चेहरा स्पष्ट देखना चाहते हैं तो दर्पण पर से धूल व गंद को साफ करना होगा। उसी प्रकार मन में छिपे मैल के दूरीकरण पर ही ईश्वर दर्शन हो सकते हैं। मन के मैल को दूर करने व मन को एकाग्र्रता दिलाने में मदद करने के लिए ही हमारे पूर्वजों ने सनातन धर्म में मूर्ति-पूजा व अन्य आचार-अनुष्ठानों का विधान रखा। सनातनन धर्म में ईश्वरान्वेषन बाहर नहीं अपितु भीतर किया जाता है। एक बार भीतर ईश्वर दर्शन हो जाएँ तो फिर उनके दर्शन कहीं भी संभव हैं – हम सभी में उन्हें देख पायेंगे। वास्तव में जहाँ तक ईश्वर का सवाल है वहाँ न तो भीतर है न बाहर, वह सर्वव्यापी चैतन्य है। व्यक्तित्व या ‘मैं’ क भाव के होने से ही भीतर-बाहर की भावना उठती है। हालाँकि ईश्वर भीतर हैं, हमारा मन कहीं बाहर भटक रहा है। हमारा मन बहिर्मुखी है। वह विषय वस्तुओं व ममता के बंधनों में बंधनस्थ है। वैसे मन को पुनः स्वकेन्द्रित करक, हममें निहित ईश्वर शक्ति को जगाने के लिए ही विग्रह आराधना का विधान रखा गया है।
कुछ लोग कहते हैं कि विवाह तो केवल गले में मंगलसूत्र बाँधना है। बात सही है, गले में केवल एक सूत्र बाँधना ही है। परन्तु हम उस सूत्र को व उस मंगल मूहूर्त को कितना महत्व देते हैं! वह जीवन का ताना बाना बनाता मुहूर्त है। हम उस क्षण का जो मोल लगाते हैं, वह उस सूत्र का दाम नहीं होता, वरन् हमारे पूरे जीवन का मोल होता है। इसी तरह किसी विग्रह का मोल उसके पत्थर का मोल नहीं है। मूर्ति का तो मोल लगाया ही नहीं जा सकता। उसका स्थान तो समस्त प्रपंच के नाथ के तत्तुल्य है। विग्रह को केवल शिलारूप मानना अज्ञान है। ‘मैं इसमें ईश्वर की पूजा करता हूँ’, इस संकल्प से ही साधारणतया पूजा का आरंभ किया जाता है।
सर्वव्यापी ईश्वरचैतन्य की बिना किसी उपाधि का आश्रय लिये आराधना करना साधारण मानव के लिए कठिन है। भक्तिभाव को बढाने व मन को एकाग्र करने में मूर्ति मददगार है। हम मूर्ति के सम्मुख अंजलि जोडे, आँखें बन्द करके प्रार्थना करते हैं। इस प्रकार मन को अंतर्मुख करने व अन्तस्थ चैतन्य को जगाने में विग्रह सहायक होता है। आराधना करते हुए हमें उसके तत्त्व को भी समझना चाहिए। स्वर्ण से ही हम कंगन, कुंडल, माला व अंगूठी बनाते हैं। स्वर्ण ही इन सभी का आधार है। उसी प्रकार ईश्वर ही सृष्टि के आधार हैं। हमें नानात्व में एकत्व दर्शन करने चाहिए। चाहे वह शिव हो, विष्णु हो, कार्तिक हो, सभी म एकत्व दर्शन करना चाहिए। सभी देव-रूपों को एक ही ईश्वर के विविध भाव-रूप मानना चाहिए। चूँकि लोगों के भिन्न संस्कार हैं, विविध रूपों को स्वीकार किया गया है। जिसको जो पसन्द है वह स्वीकार कर सकता है। हम यदि दर्पण में अपना चेहरा स्पष्ट देखना चाहते हैं तो दर्पण पर से धूल व गंद को साफ करना होगा। उसी प्रकार मन में छिपे मैल के दूरीकरण पर ही ईश्वर दर्शन हो सकते हैं। मन के मैल को दूर करने व मन को एकाग्र्रता दिलाने में मदद करने के लिए ही हमारे पूर्वजों ने सनातन धर्म में मूर्ति-पूजा व अन्य आचार-अनुष्ठानों का विधान रखा। सनातनन धर्म में ईश्वरान्वेषन बाहर नहीं अपितु भीतर किया जाता है। एक बार भीतर ईश्वर दर्शन हो जाएँ तो फिर उनके दर्शन कहीं भी संभव हैं – हम सभी में उन्हें देख पायेंगे। वास्तव में जहाँ तक ईश्वर का सवाल है वहाँ न तो भीतर है न बाहर, वह सर्वव्यापी चैतन्य है। व्यक्तित्व या ‘मैं’ क भाव के होने से ही भीतर-बाहर की भावना उठती है। हालाँकि ईश्वर भीतर हैं, हमारा मन कहीं बाहर भटक रहा है। हमारा मन बहिर्मुखी है। वह विषय वस्तुओं व ममता के बंधनों में बंधनस्थ है। वैसे मन को पुनः स्वकेन्द्रित करक, हममें निहित ईश्वर शक्ति को जगाने के लिए ही विग्रह आराधना का विधान रखा गया है।
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