आत्मा क्या है
यह आत्मा किसी काल में न तो जन्मता और न मरता है; क्योंकि यह वस्त्र ही तो
बदलता है। न यह आत्मा होकर अन्य कुछ होनेवाला है; क्योंकि यह अजन्मा है,
नित्य है, शाश्वत और पुरातन है। शरीर के नाश होने पर भी इसका नाश नहीं
होता। आत्मा सत्य है, आत्मा ही पुरातन है, आत्मा शाश्वत और सनातन है। आप
कौन हैं? सनातन धर्म के अनुयायी। सनातन कौन है? आत्मा। आप आत्मा के अनुयायी
हैं। आत्मा, परमात्मा और ब्रह्म एक दूसरे के पर्याय हैं। आप कौन हैं?
शाश्वत धर्म के उपासक। शाश्वत कौन है? आत्मा। अर्थात् हम – आप आत्मा के
उपासक हैं। यदि आप आत्मिक पथ को नहीं जानते तो आपके पास शाश्वत – सनातन नाम
की कोई वस्तु नहीं है। उसके लिये आप आहेँ भरते हैं तो प्रत्याशी अवश्य
हैं; किन्तु सनातनधर्मी नहीं हैं। सनातन धर्म के नाम पर किसी कुरीति के
शिकार हैं।
देश – विदेश में, मानवमात्र में आत्मा एक ही जैसा है।
इसलिये विश्व में कहीं भी कोई आत्मा की स्थिति दिलानेवाली क्रिया जानता है
और उस पर चलने के लिये प्रयत्नशील है तो वह सनातनधर्मी है, चाहे वह अपने को
ईसाई, मुसलमान, यहूदी या कुछ भी क्यों
न कह ले।
पार्थिव शरीर को रथ बनाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर अचूक निशाना लगानेवाला
पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और
अव्यक्त जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता
है? अविनाशी का विनाश असंभव है। अजन्मा जन्म नहीं लेता। अतः शरीर के लिये
शोक नहीं करना चाहिये। इसी को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं -
जैसे
मनुष्य ‘ जीर्णानि वासांसि’ – जीर्ण – शीर्ण पुराने वस्त्रों को त्यागकर
नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरोँ को
त्यागकर दूसरे नये शरीरोँ को धारण करता है। जीर्ण होने पर ही नया शरीर धारण
करना है, तो शिशु क्यों मर जाते हैं? यह वस्त्र तो और विकसित होना चाहिये।
वस्तुतः यह शरीर संस्कारों पर आधारित है। जब संस्कार जीर्ण होते हैं तो
शरीर छूट जाता है। यदि संस्कार दो दिन का है तो दूसरे दिन जीर्ण हो गया।
इसके बाद मनुष्य एक श्वास भी अधिक नहीं जीता। संस्कार ही शरीर है। आत्मा
संस्कारों के अनुसार नया शरीर धारण कर लेता है- ‘अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो
यथा क्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति।’
(छान्दोग्योपनिषद्, ३/१४) अर्थात् यह पुरुष निश्चय ही संकल्पमय है। इस लोक
में पुरुष जैसा निश्चयवाला होता है, वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर होता है।
अपने संकल्प से बनाये हुए शरीरोँ में पुरुष उत्पन्न होता है। इस प्रकार
मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है। आत्मा नहीं मरता। पुनः इसकी अजरता –
अमरता पर बल देते हैं -
अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काटते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और न वायु इसे सुखा ही सकता है।
यह आत्मा अच्छेद्य है- इसे छेदा नहीं जा सकता, यह अदाह्य है- इसे जलाया
नहीं जा सकता, यह अक्लेद्य इसे गीला नहीं किया जा सकता, आकाश इसे अपने में
समाहित नहीं कर सकता। यह आत्मा निःसंदेह अशोष्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर
रहनेवाला और सनातन है।
अविनाशी, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये
सभी शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! आत्मा ही अमृत है।
आत्मा ही अविनाशी है, जिसका तीनों काल में नाश नहीं होता। आत्मा ही सत्
है। शरीर नाशवान् है यही असत् है, जिसका तीनों काल में अस्तित्व नहीं है।
पार्थिव शरीर को रथ बनाकर ब्रह्मरूपी लक्ष्य पर अचूक निशाना लगानेवाला पृथापुत्र अर्जुन ! जो पुरुष इस आत्मा को नाशरहित, नित्य, अजन्मा और अव्यक्त जानता है, वह पुरुष कैसे किसी को मरवाता है और कैसे किसी को मारता है? अविनाशी का विनाश असंभव है। अजन्मा जन्म नहीं लेता। अतः शरीर के लिये शोक नहीं करना चाहिये। इसी को उदाहरण से स्पष्ट करते हैं -
जैसे मनुष्य ‘ जीर्णानि वासांसि’ – जीर्ण – शीर्ण पुराने वस्त्रों को त्यागकर नये वस्त्रों को ग्रहण करता है, ठीक वैसे ही यह जीवात्मा पुराने शरीरोँ को त्यागकर दूसरे नये शरीरोँ को धारण करता है। जीर्ण होने पर ही नया शरीर धारण करना है, तो शिशु क्यों मर जाते हैं? यह वस्त्र तो और विकसित होना चाहिये। वस्तुतः यह शरीर संस्कारों पर आधारित है। जब संस्कार जीर्ण होते हैं तो शरीर छूट जाता है। यदि संस्कार दो दिन का है तो दूसरे दिन जीर्ण हो गया। इसके बाद मनुष्य एक श्वास भी अधिक नहीं जीता। संस्कार ही शरीर है। आत्मा संस्कारों के अनुसार नया शरीर धारण कर लेता है- ‘अथ खलु क्रतुमयः पुरुषो यथा क्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेतः प्रेत्य भवति।’ (छान्दोग्योपनिषद्, ३/१४) अर्थात् यह पुरुष निश्चय ही संकल्पमय है। इस लोक में पुरुष जैसा निश्चयवाला होता है, वैसा ही यहाँ से मरकर जाने पर होता है। अपने संकल्प से बनाये हुए शरीरोँ में पुरुष उत्पन्न होता है। इस प्रकार मृत्यु शरीर का परिवर्तन मात्र है। आत्मा नहीं मरता। पुनः इसकी अजरता – अमरता पर बल देते हैं -
अर्जुन ! इस आत्मा को शस्त्रादि नहीं काटते, अग्नि इसे जला नहीं सकती, जल इसे गीला नहीं कर सकता और न वायु इसे सुखा ही सकता है।
यह आत्मा अच्छेद्य है- इसे छेदा नहीं जा सकता, यह अदाह्य है- इसे जलाया नहीं जा सकता, यह अक्लेद्य इसे गीला नहीं किया जा सकता, आकाश इसे अपने में समाहित नहीं कर सकता। यह आत्मा निःसंदेह अशोष्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है।
अविनाशी, अप्रमेय, नित्यस्वरूप आत्मा के ये सभी शरीर नाशवान् कहे गये हैं, इसलिये भरतवंशी अर्जुन ! आत्मा ही अमृत है। आत्मा ही अविनाशी है, जिसका तीनों काल में नाश नहीं होता। आत्मा ही सत् है। शरीर नाशवान् है यही असत् है, जिसका तीनों काल में अस्तित्व नहीं है।
No comments:
Post a Comment