वेदों मे अनेकेश्वरवाद से हीनोथीइज्म और फिर एकेश्वरवाद का विकास :
बहुदेववाद वैदिक धर्म का प्रथम चरण है . धर्म का प्रणयन बहुदेववाद मे ही
हुआ है . मिश्र , रोम यूनान आदि देशों के इतिहास मे भी बहुदेव वाद के
उपलब्ध उदाहरण इसकी श्रेष्ठता के द्योतक हैं (( भले हि वो भारतीय वैदिक बहु
देव वाद से भिन्न हों )) ...
डा. राधाकृष्णन के शब्दों मे 'मानव
मष्तिष्क रुपी कारखाने मे देवमाला के निर्माण की पद्धति ऋगवेद मे जैसी
स्पष्ट देखि जाती है वैसी अन्यत्र कहीं नहीं देखी जा सकती '
पर क्या अनेकेश्वरवाद ( बहुदेववाद ) वेदों का स्थायी धर्म रह पाता है ??
'नहीं '
>>क्योकि मानव ह्रदय की अभिलाषा बहुदेववाद से नहीं संतुष्ट हो सकती
,,धार्मिक चेतना एक ही देवता को सर्वश्रेष्ठ मानने के लिए बाध्य करती है
>> देवताओं की भीड़ की वजह से संशयवाद स्वाभाविक रूप से जन्मता है
..प्रश्न उत्पन्न होता है उनमे श्रेष्ठ कौन ?? 'कस्मै देवाय हविषा विधेम ' (
ऋग. ५/ १२१ ) किस देव के लिए हम अपने मन रुपी यज्ञ मे आहुति दें ?
>> ईश्वर की भावना मे एकता की भावना निहित है ,,ईश्वर को अनंत मान लेने से उनकी अनन्तता खंडित हो जाती है
परिणाम स्वरुप देवताओं को आपस मे मिलाने का प्रचालन अस्तित्व मे आया
,,उनकी इकट्ठी स्तुति की जाने लगी ,,'विश्व देवा' आदि वेदों मे आये नाम
इसके उदहरण हैं ,,
वैदिक काल मे उपासना के समय एक की आराधना के समय
अन्य को गौण समझने का आक्षेप पाश्चात्य विचारकों ने किया है मैक्समूलर
और ब्लूमफील्ड आदि विचारकों ने इसे क्रमशः Henotheism (एकाधिदेववाद) और
अवसरवादी एकेश्वरवाद ( opportunist Monotheism ) की संज्ञा से व्यंगात्मक
रूप मे विभूषित किया है
उपरोक्त हीनोथीइज्म का विकास धीरे धीरे
एकेश्वरवाद मे हो जाता है ...एकेश्वरवाद मानव के विकास की दृष्टि से ,,उसकी
वेदों के समझ की दृष्टि से वैदिक धर्म का दूसरा चरण है
एकेश्वर वाद
की ओर संक्रमण मे वैदिक ऋषियों के 'ऋत' सिद्धांत का महत्वपूर्ण योग्यदान है
.. 'ऋत' सिद्धांत के द्वारा प्राकृतिक और नैतिक जगत मे निहित व्यवस्था कि
व्याख्या की जाती है ,,'ऋत' का सिद्धांत एक परम सत्ता को ओर संकेत करता है
जो कि 'ऋत' का संरक्षक है ,,प्रकृति के क्रिया कलाप मे एकता है ..एक
व्यवस्था है अतः वैदिक ऋषिगण सभी देवताओं को एक ही दिव्य शक्ति का प्रकाश
मानते हैं .
एकेश्वरवाद (Monotheism) का सुन्दर उदाहरण ऋगवेद के ५/ ३ /
१ मन्त्र मे मिलता है जिसमे प्रार्थना अग्नि को संबोधित करते हुए की गयी
है जिसमे कहा गया है कि जन्म के समय अग्नि वरुण का रूप धारण करता है . यज्ञ
की अग्नि फूटने पर वरुण का रूप धारण करता है और सभी देवता अग्नि मे ही
केंद्रित रहते हैं और पुजारियों के लिए अग्नि इंद्र का रूप धारण कर लेता है
एकेश्वरवाद का दूसरा उदहरण अथर्ववेद ( १३/ ३ /१३ ) मे दीखता है जहाँ
कहा गया है कि सायंकाल के समय अग्नि वरुण है , प्रातःकाल उदित होते ही वे
मित्र हैं , सविता बन कर वे वायु मे भ्रमण करते हैं और इंद्र के रूप मे वो
आकाश मे चमकते हैं ...
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यथार्थ मे केवल एक ही देवता हैं
ऋगवेद के कई अन्य मन्त्र भी एकेश्वरवाद का समर्थन करते हैं 'एकं सद्
विप्राबहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वान माहु:" (ऋगवेद १. १६४ .४६ ) `
कहने का तात्पर्य है कि वेदों मे अनेकेश्वरवाद से हीनोथीइज्म और फिर एकेश्वरवाद का विकास हुआ
>> देवताओं की भीड़ की वजह से संशयवाद स्वाभाविक रूप से जन्मता है ..प्रश्न उत्पन्न होता है उनमे श्रेष्ठ कौन ?? 'कस्मै देवाय हविषा विधेम ' ( ऋग. ५/ १२१ ) किस देव के लिए हम अपने मन रुपी यज्ञ मे आहुति दें ?
>> ईश्वर की भावना मे एकता की भावना निहित है ,,ईश्वर को अनंत मान लेने से उनकी अनन्तता खंडित हो जाती है
परिणाम स्वरुप देवताओं को आपस मे मिलाने का प्रचालन अस्तित्व मे आया ,,उनकी इकट्ठी स्तुति की जाने लगी ,,'विश्व देवा' आदि वेदों मे आये नाम इसके उदहरण हैं ,,
वैदिक काल मे उपासना के समय एक की आराधना के समय अन्य को गौण समझने का आक्षेप पाश्चात्य विचारकों ने किया है मैक्समूलर और ब्लूमफील्ड आदि विचारकों ने इसे क्रमशः Henotheism (एकाधिदेववाद) और अवसरवादी एकेश्वरवाद ( opportunist Monotheism ) की संज्ञा से व्यंगात्मक रूप मे विभूषित किया है
उपरोक्त हीनोथीइज्म का विकास धीरे धीरे एकेश्वरवाद मे हो जाता है ...एकेश्वरवाद मानव के विकास की दृष्टि से ,,उसकी वेदों के समझ की दृष्टि से वैदिक धर्म का दूसरा चरण है
एकेश्वर वाद की ओर संक्रमण मे वैदिक ऋषियों के 'ऋत' सिद्धांत का महत्वपूर्ण योग्यदान है .. 'ऋत' सिद्धांत के द्वारा प्राकृतिक और नैतिक जगत मे निहित व्यवस्था कि व्याख्या की जाती है ,,'ऋत' का सिद्धांत एक परम सत्ता को ओर संकेत करता है जो कि 'ऋत' का संरक्षक है ,,प्रकृति के क्रिया कलाप मे एकता है ..एक व्यवस्था है अतः वैदिक ऋषिगण सभी देवताओं को एक ही दिव्य शक्ति का प्रकाश मानते हैं .
एकेश्वरवाद (Monotheism) का सुन्दर उदाहरण ऋगवेद के ५/ ३ / १ मन्त्र मे मिलता है जिसमे प्रार्थना अग्नि को संबोधित करते हुए की गयी है जिसमे कहा गया है कि जन्म के समय अग्नि वरुण का रूप धारण करता है . यज्ञ की अग्नि फूटने पर वरुण का रूप धारण करता है और सभी देवता अग्नि मे ही केंद्रित रहते हैं और पुजारियों के लिए अग्नि इंद्र का रूप धारण कर लेता है
एकेश्वरवाद का दूसरा उदहरण अथर्ववेद ( १३/ ३ /१३ ) मे दीखता है जहाँ कहा गया है कि सायंकाल के समय अग्नि वरुण है , प्रातःकाल उदित होते ही वे मित्र हैं , सविता बन कर वे वायु मे भ्रमण करते हैं और इंद्र के रूप मे वो आकाश मे चमकते हैं ...
उपरोक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि यथार्थ मे केवल एक ही देवता हैं
ऋगवेद के कई अन्य मन्त्र भी एकेश्वरवाद का समर्थन करते हैं 'एकं सद् विप्राबहुधा वदन्ति अग्नि यमं मातरिश्वान माहु:" (ऋगवेद १. १६४ .४६ ) `
कहने का तात्पर्य है कि वेदों मे अनेकेश्वरवाद से हीनोथीइज्म और फिर एकेश्वरवाद का विकास हुआ
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