'शैलपुत्री'
दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है
अपने पिछले जन्म में वे हिमालाय की पुत्री बनी थीं और नारद जी ने उनका हाथ देखकर कहा था की उन्हें भगवन शिव पति के रूप में मिलेंगे परन्तु उन्हें इसके लिए बहुत तपस्या करनी होगी, यह सुनकर देवी ने बहुत कठिन तपस्या करनी शुरू कर दी , जिससे उनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा वे एक हज़ार वर्षो तक केवल फल खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कितने ही वर्षों तक तक केवल पत्ते खाकर तपस्या करती रहीं, और खुले आकाश के नीचे गर्मी, ठण्ड, और वर्षा सहती रहीं फिर वे तीन हज़ार वर्षों तक धरती पर गिरे हुए बिल्व पत्तों को खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कई हज़ार वर्षों तक बिना कुछ खाए या पिए तपस्या करती रहीं और क्यूंकि उन्होंने बिल्व क पत्ते खाना भी बंद कर दिया, तो इसलिए उनका नाम अपर्णा पड़ा उनकी ऐसी घोर तपस्या करने से उनका शरीर बहुत ही दुर्बल हो गया , जिसे देखकर उनकी माता मैना ने कहा 'ऊ ' ' मा' अर्थात ऐसा मत करो , तब से देवी का नाम 'उमा' भी पड़ गया उनकी ऐसी तपस्या से तीनो लोकों में हाहाकार मच गयी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले ' हे देवी, आपके जितनी तपस्या आज तक किसी ने नहीं की है , आपकी तपस्या पूरण हुयी, आपको अवश्य ही भगवान् शिव पति के रूप में मिलेंगे, अब आप घर जाईये आपके पिता आपको लेने आ रहे होंगे '
देवी चंद्रघंटा
नवरात्रों के तीसरे दिन देवी चंद्रघंटा की पूजा की जाती है देवी का यह रूप बहुत ही शान्ति देने वाला है देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र विराजमान है जो की घंटे की आकृति का है, इसलिए देवी का नाम चंद्रघंटा है देवी के शरीर का रंग सुनहरी है , देवी जी की दस भुजाएं हैं , वे इन भुजाओं में अस्त्र, शास्त्र पकडती हैं देवी चंद्रघंटा का वाहन शेर है उनकी आवाज़ घंटे के सामान तेज़ है, जो की राक्षसों और दैत्यों को डराने वाली है नवरात्र के तीसरे दिन का अपना महत्व है, इस दिन साधक की तपस्या मणिपुर चक्र तक पहुन्हती है तथा साधक, दिव्य वस्तुओं को देख पाने में समर्थ हो जाता है , उसे दिव्य सुघंधा आती है, और वेह दिव्य ध्वनिओं को सुन सकता है , नवरात्र के इस तीसरे दिन साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए |
कुष्मांडा
कु का अर्थ है 'कुछ ' , उष्मा का अर्थ है 'ताप ' , और अंडा का अर्थ यहाँ है ब्रह्माण्ड , सृष्टि अर्थात जिसके ऊष्मा के अंश से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वे देवी कुष्मांडा हैं जब चारों और अन्धकार था , समय की भी उत्पती नहीं हुई थी , तो माँ कुष्मांडा ने अपने संकल्प से सृष्टि का सृजन किया ,इससे पहले तो ' सत् ' और ' असत ' का भी अस्तित्व नहीं था
नवरात्रों के पांचवें दिन देवी स्कन्द माता की पूजा की जाती है स्कन्द माता , कुमार , या स्कन्द या कार्तिकेय की माता माना जाता है, कार्तिकेय जी को सभी देवों की सम्मति से देवी जी का सेनापति चुना गया , राक्षसों के खिलाफ युद्ध में पुराणों में उनकी बहुत प्रशंसा की गयी है उनका वाहन मोर है
इसलिए स्कन्द जी की माता होने पर उनका नाम स्कन्द माता है नवरात्रों के पांचवें दिन इनकी
दुर्गाजी पहले स्वरूप में 'शैलपुत्री' के नाम से जानी जाती हैं। ये ही नवदुर्गाओं में प्रथम दुर्गा हैं। पर्वतराज हिमालय के घर पुत्री रूप में उत्पन्न होने के कारण इनका नाम 'शैलपुत्री' पड़ा। नवरात्र-पूजन में प्रथम दिवस इन्हीं की पूजा और उपासना की जाती है
शैल पुत्री का अर्थ होता है 'पत्थर' के सामान दृढ पुत्री,
देवी शैलपुत्री का वाहन बैल है, देवी पूर्व जनम में दक्ष प्रजापति की
पुत्री सती थीं, एक बार प्रजापति दक्ष ने बड़े यज्ञ का आयोजन किया, उसने
सभी देवी देवताओं को आमंत्रित किया परन्तु शंकर भगवन को नहीं, सती देवी को
बुरा लगा लेकिन फिर भी, वे जाना चाहती थीं तो भगवन शंकर ने उन्हें अकेले
जाने की अनुमति दे दी, इससे वे बिना बुलाये अपने पिता के घर यज्ञ में चली
आई, लेकिन उनकी बहनों, और पिता, परिजनों ने उनका तिरस्कार किया और उन्हें
सम्मान नहीं दिया, उल्टा व्यंग्य करने लगे l
ये सब देख कर सती देवी ने क्रोध, ग्लानी और दुःख के साथ उसी योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया, चारों तरफ हाहाकार मच गया और भगवन शिव के गणों ने यज्ञ को विध्वंस कर डाला. सती देवी ने फिर पार्वती के रूप में नया जनम लिया और वे भगवान शिव की अर्धांगिनी बनी शैलपुत्री देवी की पूजा अर्चना से भक्तजन धन -धन्य से पूर्ण हो जाते है शैलपुत्री देवी ने हि दृढ तपस्या करके भगवान् शिव को
पति बना लिया, वे दृढ़ता की प्रतीक हैंl
देवी ब्रह्मचारिणी
दुर्गा देवी का दूसरा रूप हैं देवी ब्रह्मचारिणी
वेद, तत्व, और तप ब्रह्म के ही रूपक हैं, तो इस तरह ब्रह्मचारिणी देवी का
अर्थ हुआ जो तपस्या करती हैं ब्रह्मचारिणी देवी ने दायें हाथ में माला और
बाएँ हाथ में कमंडल पकड़ रखा हैये सब देख कर सती देवी ने क्रोध, ग्लानी और दुःख के साथ उसी योगाग्नि से स्वयं को भस्म कर दिया, चारों तरफ हाहाकार मच गया और भगवन शिव के गणों ने यज्ञ को विध्वंस कर डाला. सती देवी ने फिर पार्वती के रूप में नया जनम लिया और वे भगवान शिव की अर्धांगिनी बनी शैलपुत्री देवी की पूजा अर्चना से भक्तजन धन -धन्य से पूर्ण हो जाते है शैलपुत्री देवी ने हि दृढ तपस्या करके भगवान् शिव को
पति बना लिया, वे दृढ़ता की प्रतीक हैंl
देवी ब्रह्मचारिणी
अपने पिछले जन्म में वे हिमालाय की पुत्री बनी थीं और नारद जी ने उनका हाथ देखकर कहा था की उन्हें भगवन शिव पति के रूप में मिलेंगे परन्तु उन्हें इसके लिए बहुत तपस्या करनी होगी, यह सुनकर देवी ने बहुत कठिन तपस्या करनी शुरू कर दी , जिससे उनका नाम ब्रह्मचारिणी पड़ा वे एक हज़ार वर्षो तक केवल फल खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कितने ही वर्षों तक तक केवल पत्ते खाकर तपस्या करती रहीं, और खुले आकाश के नीचे गर्मी, ठण्ड, और वर्षा सहती रहीं फिर वे तीन हज़ार वर्षों तक धरती पर गिरे हुए बिल्व पत्तों को खाकर तपस्या करती रहीं , फिर वे कई हज़ार वर्षों तक बिना कुछ खाए या पिए तपस्या करती रहीं और क्यूंकि उन्होंने बिल्व क पत्ते खाना भी बंद कर दिया, तो इसलिए उनका नाम अपर्णा पड़ा उनकी ऐसी घोर तपस्या करने से उनका शरीर बहुत ही दुर्बल हो गया , जिसे देखकर उनकी माता मैना ने कहा 'ऊ ' ' मा' अर्थात ऐसा मत करो , तब से देवी का नाम 'उमा' भी पड़ गया उनकी ऐसी तपस्या से तीनो लोकों में हाहाकार मच गयी उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा जी प्रकट होकर बोले ' हे देवी, आपके जितनी तपस्या आज तक किसी ने नहीं की है , आपकी तपस्या पूरण हुयी, आपको अवश्य ही भगवान् शिव पति के रूप में मिलेंगे, अब आप घर जाईये आपके पिता आपको लेने आ रहे होंगे '
देवी ब्रह्मचारिणी जी की पूजा करने वाला साधक, कठिन परिस्थितियों
में डोलता नहीं , स्वादिष्ठान केंद्र में ध्यान करने वाला साधक, देवी के इस
रूप पर ध्यान लगाता है
देवी चंद्रघंटा
नवरात्रों के तीसरे दिन देवी चंद्रघंटा की पूजा की जाती है देवी का यह रूप बहुत ही शान्ति देने वाला है देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र विराजमान है जो की घंटे की आकृति का है, इसलिए देवी का नाम चंद्रघंटा है देवी के शरीर का रंग सुनहरी है , देवी जी की दस भुजाएं हैं , वे इन भुजाओं में अस्त्र, शास्त्र पकडती हैं देवी चंद्रघंटा का वाहन शेर है उनकी आवाज़ घंटे के सामान तेज़ है, जो की राक्षसों और दैत्यों को डराने वाली है नवरात्र के तीसरे दिन का अपना महत्व है, इस दिन साधक की तपस्या मणिपुर चक्र तक पहुन्हती है तथा साधक, दिव्य वस्तुओं को देख पाने में समर्थ हो जाता है , उसे दिव्य सुघंधा आती है, और वेह दिव्य ध्वनिओं को सुन सकता है , नवरात्र के इस तीसरे दिन साधक को बहुत सावधान रहना चाहिए |
देवी
चंद्रघंटा की पूजार्चना करने से साधक के सभी पाप मिट जाते हैं और सभी
बाधाएं दूर हो जाती हैं देवी जी के वाहन शेर की तरह देवी चंद्रघंटा जी का
साधक भी शेर के सामान हो जाता है देवी जी जब भी फ़रियाद की जाती है तत्क्षण
ही अपने भक्त की पुकार सुनती हैं
देवी चंद्रघंटा बुराई के लिए काल स्वरूप हैं लेकिन अपने भक्तों के लिए वे मृदु और सौम्य, कोमल हैं , देवी जी के भक्त भी शूरवीर बन जाते हैं देवी चंद्रघंटा के साधक के शरीर में से दिव्यता का अनुभव होता है, उनके निकट रहने वालों को देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से संसार के सभी दुःख मिट जाते हैं और परम सत्य का अनुभव हो जाता है देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से हम इसलोक में सुखी और परम सत्य को अनुभव कर सकते हैं
देवी चंद्रघंटा बुराई के लिए काल स्वरूप हैं लेकिन अपने भक्तों के लिए वे मृदु और सौम्य, कोमल हैं , देवी जी के भक्त भी शूरवीर बन जाते हैं देवी चंद्रघंटा के साधक के शरीर में से दिव्यता का अनुभव होता है, उनके निकट रहने वालों को देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से संसार के सभी दुःख मिट जाते हैं और परम सत्य का अनुभव हो जाता है देवी चंद्रघंटा का पूजन करने से हम इसलोक में सुखी और परम सत्य को अनुभव कर सकते हैं
कुष्मांडा
कु का अर्थ है 'कुछ ' , उष्मा का अर्थ है 'ताप ' , और अंडा का अर्थ यहाँ है ब्रह्माण्ड , सृष्टि अर्थात जिसके ऊष्मा के अंश से यह सृष्टि उत्पन्न हुई वे देवी कुष्मांडा हैं जब चारों और अन्धकार था , समय की भी उत्पती नहीं हुई थी , तो माँ कुष्मांडा ने अपने संकल्प से सृष्टि का सृजन किया ,इससे पहले तो ' सत् ' और ' असत ' का भी अस्तित्व नहीं था
देवी कुष्मांडा सूर्य लोक के भीतर रहती हैं , और उस स्थान
पर कोई और नहीं रह सकता था , देवी जी के शरीर का रंग भी सूर्य के सामान
चमकता है , ऐसी चमक और देवी देवताओं में नहीं है
देवी जी की आठ भुजाएं हैं, और सात भुजाओं में वे धनुष , बाण ,कमल, अमृत , चक्र , गदा और कमंडल पकडे रखती हैं और आठवें भुजा में वे माला रखती हैं , जो की अष्ट सिद्धियाँ, और नौं निधियां देतीं हैं संस्कृत में कुष्मांडा का अर्थ होता है कद्दू और देवी को कद्दू का भोग लगाया जाता है , जो की देवी जी को बहुत प्रिय है
नवरात्र के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की पूजा की जाती है , इस दिन साधक अनाहत केंद्र में प्रवेश कर जाता है देवी जी की साधना करने से साधक की सभी बीमारियाँ और दुःख दूर हो जाती हैं , साधक की आयु , नाम, बल और स्वास्थ्य बढ़ जाते हैं देवी कुष्मांडा को आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है
देवी कुष्मांडा की पूजा शास्त्रों में वर्णित विधि से पूजा करनी चाहिए धीरे धीरे देवी जी की कृपा से साधक को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं यह दुखरूपी संसार दिव्य स्थान बन जाएगी देवी जी की पूजा सबसे सरल और उत्तम है देवी कुष्मांडा जी का साधक आसानी से संसार रुपी सागर को पार कर लेते हैं इसलिए साधक को संसार और मुक्ति के लिए देवी कुष्मांडा की पूजा करनी चाहिए
देवी स्कन्द मातादेवी जी की आठ भुजाएं हैं, और सात भुजाओं में वे धनुष , बाण ,कमल, अमृत , चक्र , गदा और कमंडल पकडे रखती हैं और आठवें भुजा में वे माला रखती हैं , जो की अष्ट सिद्धियाँ, और नौं निधियां देतीं हैं संस्कृत में कुष्मांडा का अर्थ होता है कद्दू और देवी को कद्दू का भोग लगाया जाता है , जो की देवी जी को बहुत प्रिय है
नवरात्र के चौथे दिन देवी कुष्मांडा की पूजा की जाती है , इस दिन साधक अनाहत केंद्र में प्रवेश कर जाता है देवी जी की साधना करने से साधक की सभी बीमारियाँ और दुःख दूर हो जाती हैं , साधक की आयु , नाम, बल और स्वास्थ्य बढ़ जाते हैं देवी कुष्मांडा को आसानी से प्रसन्न किया जा सकता है
देवी कुष्मांडा की पूजा शास्त्रों में वर्णित विधि से पूजा करनी चाहिए धीरे धीरे देवी जी की कृपा से साधक को अलौकिक अनुभव होने लगते हैं यह दुखरूपी संसार दिव्य स्थान बन जाएगी देवी जी की पूजा सबसे सरल और उत्तम है देवी कुष्मांडा जी का साधक आसानी से संसार रुपी सागर को पार कर लेते हैं इसलिए साधक को संसार और मुक्ति के लिए देवी कुष्मांडा की पूजा करनी चाहिए
नवरात्रों के पांचवें दिन देवी स्कन्द माता की पूजा की जाती है स्कन्द माता , कुमार , या स्कन्द या कार्तिकेय की माता माना जाता है, कार्तिकेय जी को सभी देवों की सम्मति से देवी जी का सेनापति चुना गया , राक्षसों के खिलाफ युद्ध में पुराणों में उनकी बहुत प्रशंसा की गयी है उनका वाहन मोर है
इसलिए स्कन्द जी की माता होने पर उनका नाम स्कन्द माता है नवरात्रों के पांचवें दिन इनकी
पूजा की जाती है इस दिन साधक विशुद्धि चक्र पर ध्यान करता है देवी जी के चित्र में उन्होंने स्कन्द जी को भी गोद में पकड़ा होता है
देवी जी की चार भुजाएं हैं अपनी दायीं ऊपर वाली भुजा में वे स्कन्द ( कार्तिकेय ) जी को पकडे रहती हैं और दायीं नीचे वाली भुजा में वे कमल के फूल को पकडे रहती हैं अपने बाएँ ऊपर वाले हाथ को वे आशीर्वाद की मुद्रा में रखती हैं और बाएँ नीचे वाले हाथ में वे एक और कमल का फूल पकडे रहती हैं देवी जी के शर्रेर का रंग बहुत गोरा है और वे अधिकतर कमल पर विराजमान रहती हैं इसलिए उन्हें पद्मासना भी कहा जाता है
शास्त्रों में देवी जी के पांचवें रूप का बहुत यश गान किया गया है इस दिन साधक की बुद्धि विशुद्ध चक्र में होती है, इसलिए साधक के सभी बहरी और भीतरी क्रियाकलाप बंद हो जाते हैं और दिमाग में विचारों का मंथन भी समाप्त हो जाता है , साधक की बुद्धि शांत सागर की तरह हो जाती है बुद्धि परम सत्य की तरफ प्रेरित होने लगती है , बुद्धि देवी जी के ध्यान में खो जाती है और माया के बन्धनों से पार हो जाती है इस समय साधक को बहुत ही सावधानी से साधना करनी चाहिए
देवी स्कंदमाता जी की पूजा करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पोरी हो जाती हैं साधक इस संसार में रहते हुए भी परम आनंद का अनुभव करने लगता है साधक की मुक्ति के द्वार अपने आप ही खुलने लगते हैं देवी जी की पूजा करने से स्कन्द जी की पूजा भी अपने आप ही हो जाती है
देवी जी क्यूंकि सूर्य के भीतर रहती हैं, उनके साधक में भी सूर्य के सामान ओज और तेज आने लगता है साधक एक अदृश्य गोलाकार वृत्त जैसे कवच में रहता है जो की उसकी रक्षा करता है , जो की उसके योग - क्षेम को बनाये रखता है
इसलिए साधक को देवी स्कंदमाता जी की शरण में आना चाहिए और माया के बंधन खोलने का इससे बेहतर तरीका नहीं है
देवी कात्यानी
नवरात्रों के छठे दिन देवी कात्यानी जी की पूजा की जाती है , उनका यह नाम कैसे पड़ा उसकी कथा इस प्रकार है- एक महान ऋषि थे जिनका नाम कत था , उनके पुत्र का नाम कात्या था , इनके ही कुल में कात्यन नाम के ऋषि बहुत प्रसिद्ध हो गए उन्होंने कई वर्षों तक देवी जी को प्रसन्न करने के लिए साधना की , वे देवी जी को पुत्री के रूप में पाना चाहते थे , देवी ने उनकी यह बात स्वीकार की
देवी जी की चार भुजाएं हैं अपनी दायीं ऊपर वाली भुजा में वे स्कन्द ( कार्तिकेय ) जी को पकडे रहती हैं और दायीं नीचे वाली भुजा में वे कमल के फूल को पकडे रहती हैं अपने बाएँ ऊपर वाले हाथ को वे आशीर्वाद की मुद्रा में रखती हैं और बाएँ नीचे वाले हाथ में वे एक और कमल का फूल पकडे रहती हैं देवी जी के शर्रेर का रंग बहुत गोरा है और वे अधिकतर कमल पर विराजमान रहती हैं इसलिए उन्हें पद्मासना भी कहा जाता है
शास्त्रों में देवी जी के पांचवें रूप का बहुत यश गान किया गया है इस दिन साधक की बुद्धि विशुद्ध चक्र में होती है, इसलिए साधक के सभी बहरी और भीतरी क्रियाकलाप बंद हो जाते हैं और दिमाग में विचारों का मंथन भी समाप्त हो जाता है , साधक की बुद्धि शांत सागर की तरह हो जाती है बुद्धि परम सत्य की तरफ प्रेरित होने लगती है , बुद्धि देवी जी के ध्यान में खो जाती है और माया के बन्धनों से पार हो जाती है इस समय साधक को बहुत ही सावधानी से साधना करनी चाहिए
देवी स्कंदमाता जी की पूजा करने से साधक की सभी मनोकामनाएं पोरी हो जाती हैं साधक इस संसार में रहते हुए भी परम आनंद का अनुभव करने लगता है साधक की मुक्ति के द्वार अपने आप ही खुलने लगते हैं देवी जी की पूजा करने से स्कन्द जी की पूजा भी अपने आप ही हो जाती है
देवी जी क्यूंकि सूर्य के भीतर रहती हैं, उनके साधक में भी सूर्य के सामान ओज और तेज आने लगता है साधक एक अदृश्य गोलाकार वृत्त जैसे कवच में रहता है जो की उसकी रक्षा करता है , जो की उसके योग - क्षेम को बनाये रखता है
इसलिए साधक को देवी स्कंदमाता जी की शरण में आना चाहिए और माया के बंधन खोलने का इससे बेहतर तरीका नहीं है
देवी कात्यानी
नवरात्रों के छठे दिन देवी कात्यानी जी की पूजा की जाती है , उनका यह नाम कैसे पड़ा उसकी कथा इस प्रकार है- एक महान ऋषि थे जिनका नाम कत था , उनके पुत्र का नाम कात्या था , इनके ही कुल में कात्यन नाम के ऋषि बहुत प्रसिद्ध हो गए उन्होंने कई वर्षों तक देवी जी को प्रसन्न करने के लिए साधना की , वे देवी जी को पुत्री के रूप में पाना चाहते थे , देवी ने उनकी यह बात स्वीकार की
कुछ
देर बाद जब महिषासुर राक्षस ने उत्पात मचा दिया , तो ब्रह्मा, विष्णु और
महेश जी ने अपने तेज से देवी जी का निर्माण किया , लेकिन क्यूंकि वे सबसे
पहले कात्यान ऋषि ने उनकी पूजा की थीं , तो इसलिए वे कत्यानी कहलायीं
एक दूसरी कथा भी प्रचलित है , की देवी जी कात्यन ऋषि के घर पुत्री के रूप में जन्मीं थीं और उनका जनम चौदश , अश्विन मॉस के अँधेरे पक्ष में हुआ था , उसी मॉस के उजाले पक्ष में कात्यान ऋषि की तिन दिन की पूजा को स्वीकार करने के बाद ७दिन, आठवें दिन, और नौव्में दिन , उसी महीने के विजयादशमी वाले दिन उन्होंने राक्षस का संहार किया था , देवी कात्यानी जी अपने भक्तों की हर इच्छा पूरी करती हैं
ब्रिज बालाएं, देवी कात्यानी की ही पूजा किया करतीं थी, भगवान् कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करनें के लिए , आज भी ब्रिज क्षेत्र में वे अग्रणी देवी के रूप में पूजी जाती हैं उनका रूप बहुत ही दिव्य और कान्तिमयी है , उनकी ऊपर की दाहिनी भुजा सदैव दर को दूर करने की मुद्रा में होता है , उनकी नीचे की दाहिनी भुजा सदैव आशीर्वाद की मुद्रा में रहती है और उनकी ऊपर की बायीं भुजा म,एं वे तलवार पकडे रहती हैं, और नीचे वाली बायीं भुजा में वे कमल का पुष्प पकडे रहती हैं , उनकी सवारी शेर की है
एक दूसरी कथा भी प्रचलित है , की देवी जी कात्यन ऋषि के घर पुत्री के रूप में जन्मीं थीं और उनका जनम चौदश , अश्विन मॉस के अँधेरे पक्ष में हुआ था , उसी मॉस के उजाले पक्ष में कात्यान ऋषि की तिन दिन की पूजा को स्वीकार करने के बाद ७दिन, आठवें दिन, और नौव्में दिन , उसी महीने के विजयादशमी वाले दिन उन्होंने राक्षस का संहार किया था , देवी कात्यानी जी अपने भक्तों की हर इच्छा पूरी करती हैं
ब्रिज बालाएं, देवी कात्यानी की ही पूजा किया करतीं थी, भगवान् कृष्ण को पति के रूप में प्राप्त करनें के लिए , आज भी ब्रिज क्षेत्र में वे अग्रणी देवी के रूप में पूजी जाती हैं उनका रूप बहुत ही दिव्य और कान्तिमयी है , उनकी ऊपर की दाहिनी भुजा सदैव दर को दूर करने की मुद्रा में होता है , उनकी नीचे की दाहिनी भुजा सदैव आशीर्वाद की मुद्रा में रहती है और उनकी ऊपर की बायीं भुजा म,एं वे तलवार पकडे रहती हैं, और नीचे वाली बायीं भुजा में वे कमल का पुष्प पकडे रहती हैं , उनकी सवारी शेर की है
नवरात्रि के छठे
दिन देवी जी के कात्यानी रूप की पूजा की जाती है , इस दिन साधक आज्ञा चक्र
में अपना ध्यान लगाते हैं , यौगिक क्रियाओं में आज्ञा चक्र का बहुत महत्व
है आज्ञा चक्र में ध्यान लगा कर और देवी जी को संपूर्ण समर्पण करके साधक
देवी जी के साक्षात दर्शन कर सकता है जो साधक देवी कात्यानी जी की साधना मन
लगाकर करता है , उसके लिए , धर्म, अर्थ , काम और मोक्ष में से कुछ भी
दुर्लभ नहीं ऐहिक संसार में रहते हुए भी साधक अलौकिक प्रभाव से युक्त होता
है, साधक सभी बिमारियों, दुखों, और भयों से मुक्त हो जाता है पिछले जन्मों
के जमा हुए पापों को समाप्त करने के लिए देवी कात्यानी जी की साधना से
बेहतर कुछ भी नहीं , देवी कात्यानी जी का साधक सदैव उनके निकट रहता है और
परम पद का अधिकारी बन जाता है
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