Monday, October 8, 2012

धर्म का एक वैज्ञानिक रूप

धर्म का एक वैज्ञानिक रूप

अनेक विद्वानों ने धर्म की अनेक परिभाषाएँ दी हैं किन्तु महान भारतीय दार्शनिक कणाद भौतिक तथा आध्यात्मिक रूप से “सर्वांगीण उन्नति” को ही धर्म मानते हैं। अपने वैशेषिक दर्शन में वे कहते हैं – “यतो भ्युदयनि:श्रेय स सिद्धि:स धर्म:” (जिस माध्यम से अभ्युदय अर्थात्‌ भौतिक दृष्टि और आध्यात्मिक दोनों ही दृष्टि से सभी प्रकार की उन्नति प्राप्त होती है, उसे ही धर्म कहते हैं।) और अभ्युदय कैसे हो यह बताते हुए महर्षि कणाद कहते हैं – ‘दृष्टानां दृष्ट प्रयोजनानां दृष्टाभावे प्रयोगोऽभ्युदयाय‘ (गूढ़ ज्ञान प्राप्त करने हेतु प्रत्यक्ष देखने या अन्यों को दिखाने के उद्देश्य से किए गए प्रयोगों से अभ्युदय का मार्ग प्रशस्त होता है।)
महर्षि कणाद आज के वैज्ञानिकों की भाँति प्रयोगों पर ही जोर देते हैं, वे एक महान दार्शनिक होते हुए भी प्राचीन भारत के एक महान वैज्ञानिक भी थे। उनकी दृष्टि में द्रव्य या पदार्थ धर्म के ही रूप थे। आइंस्टीन के “सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त (special theory of relativity) के प्रतिपादित होने के पूर्व तक आधुनिक भौतिक शास्त्र द्रव्य और ऊर्जा को अलग अलग ही मानता था किन्तु महर्षि कणाद ने आरम्भ से ही ऊर्जा को भी द्रव्य की ही संज्ञा दी थी इसीलिए तो उन्होंने अग्नि याने कि ताप  (heat) को तत्व ही कहा था। कणाद के वैशेषिक दर्शन के अनुसार पदार्थ छः होते हैं- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष और समवाय। महर्षि कणाद के दर्शन के अनुसार संसार की प्रत्येक उस वस्तु को जिसका हम अपने इन्द्रियों के माध्यम से अनुभव कर सकते हैं को इन्हीं छः वर्गो में रखा जा सकता है।
सर्वप्रथम उन्होंने ही परमाणु की अवधारणा प्रतिपादित करते हुए कहा था कि परमाणु तत्वों की लघुतम अविभाज्य इकाई होती है जिसमें गुण उपस्थित होते हैं और वह स्वतन्त्र अवस्था में नहीं रह सकती। वैशेषिक दर्शन में बताया गया है कि अति सूक्ष्म पदार्थ अर्थात् परमाणु ही जगत के मूल तत्व हैं। कणाद कहते हैं कि परमाणु स्वतन्त्र अवस्था में नहीं रह सकते इसलिए सदैव एक दूसरे से संयुक्त होते रहते हैं, संयुक्त होने के पश्चात् निर्मित पदार्थ का क्षरण होता है और वह पुनः परमाणु अवस्था को प्राप्त करता है तथा पुनः किसी अन्य परमाणु से संयुक्त होता है, यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है। एक प्रकार के दो, तीन .. परमाणु संयुक्त होकर क्रमशः ‘द्वयाणुक‘ और ‘त्रयाणुक‘… का निर्माण करते हैं। स्पष्ट है कि द्वयाणुक ही आज के रसायनज्ञों का ‘बायनरी मालिक्यूल‘ है। कणाद का वैशेषिक दर्शन स्पष्ट रूप से तत्वों के रासायनिक बन्धन को दर्शाता है।
महर्षि कणाद ने इन छः वर्गों के अन्तर्गत् आने वाले द्रव्यों के भी अनेक प्रकार बताए हैं। उनके दर्शन के अनुसार द्रव्य नौ प्रकार के होते हैं – पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा, परमात्मा और मन। यहाँ पर विशेष ध्यान देने योग्य बात यह है कि महर्षि कणाद ने आकाश, काल और दिशा को हजारों वर्ष पूर्व ही द्रव्य की ही संज्ञा दे दी थी और आज आइंस्टीन के “सापेक्षता के विशेष सिद्धान्त (special theory of relativity) से भी यही निष्कर्ष निकलता है।
आज आत्मा, परमात्मा और मन के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया जाता किन्तु वैशेषिक दर्शन का अध्ययन करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि आत्मा, परमात्मा, मन इत्यादि को भी ताप, चुम्बकत्व, विद्युत, ध्वनि जैसे ही ऊर्जा के ही रूप ही होने चाहिए। इस दिशा में अन्वेषण एवं शोध की अत्यन्त आवश्यकता है।
इस ब्रह्माण्ड में पाए जाने वाले समस्त तत्व आश्चर्यजनक रूप से हमारे शरीर में भी पाए जाते हैं और यह तथ्य वैशेषिक दर्शन में बताए गए इस बात की पुष्ट है कि “द्रव्य की दो स्थितियाँ होती हैं – एक आणविक और दूसरी महत्‌; आणविक स्थिति सूक्ष्मतम है तथा महत्‌ यानी विशाल व्रह्माण्ड। ऐसा प्रतीत होता है कि प्राचीन भारत के वैज्ञानिकों ने इस तथ्य को ध्यान में रखकर अपने शरीर को ही प्रयोगशाला का रूप दिया रहा होगा और इस प्रकार से अपने शरीर का अध्ययन कर के समस्त ब्रह्माण्ड का अध्ययन करने का प्रयास किया रहा होता।

 

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