धर्म के सिद्धांत की प्रामाणिक व्याख्या
“अथर्व वेद” में “धर्म” के सिद्धांत की विश्व प्रसिद्ध सर्वमान्य सर्वश्रेष्ठ परिभाषा इस प्रकार दी गयी है:-
“सत्यं बृहद ॠतं उग्रं
दीक्षा तपो ब्रह्म यज्ञः पृथिवीं धारयन्ति” । -- अथर्ववेद, १२.१.१
इस प्रकार वैज्ञानिक रूप से पूर्ण प्रामाणिकता के साथ यह कहा जा सकता है
कि – “सत्य, ऋत, उग्र, दीक्षा, तप, ब्रह्म और यज्ञ – धर्म के यही सात स्तंभ
हैं”, जिनके ऊपर पृथ्वी पर अवस्थित सम्पूर्ण विश्व के सभ्य समाज का
सम्पूर्ण स्तित्व टिका हुआ है, जो समस्त प्रजा (जनता) और पूरे समाज को धारण
करता है, जो उसे नियंत्रित और सुव्यवस्थित रखता है तथा जो सभी व्यक्ति,
समाज, राष्ट्र और विश्व समुदाय के सर्वतोमुखी पोषणीय सम्यक विकास (ऑल
राउण्ड सस्टेनेबल डेवलपमेंट), सच्चे सुख और सबकी खुशी का आधार है |
“धर्म” के उपरोक्त सात स्तंभों की वैज्ञानिक एवं प्रामाणिक व्याख्या और अर्थ इस प्रकार है:
1. “सत्य” - “देश” (स्थान), “काल” (समय,) और “पात्र” (व्यक्ति) को ध्यान में रखकर उचित बात बोलना, उचित कार्य करना |
2. “ऋत” – अनुशासित होकर नियमित रूप से व्यक्तिगत, सामाजिक, व्यावसायिक कार्यों को सही समय पर सही तरीके से करना |
3. “उग्र” – अर्थात समाज में सुव्यवस्था बनाए रखने के उद्देश्य से दुष्ट,
अपराधी, आतंकवादी को समुचित दण्ड देने के लिए उग्र रूप धारण करना |
4. “दीक्षा” – जीवनोपयोगी शस्त्र, शास्त्र, व्यवहार विज्ञान, तकनीकी ज्ञान
तथा व्यावसायिक शिक्षा एवं प्रशिक्षण द्वारा तथा “बारह प्रकार के मानवीय
सद्गुण”, यथा- “धैर्य (धीरज), धृति (दृढ निश्चय), दम (स्व-अनुशासन), दया,
क्षमा, प्रेम, परोपकार, विनम्रता, निर्भीकता, साहस, अध्यवसाय और विश्व
बन्धुत्व की भावना” - के विकास द्वारा सफल एवं सार्थक जीवन योग्य दक्ष
व्यक्ति तैयार करना |
5. “तप” – समस्त विध्न – बाधाओं को झेलते हुए पूरे मनोयोग से एकाग्रचित्त होकर निरंतर व्यावसायिक कार्य करते रहना |
6. “ब्रह्म” – प्रकृति विज्ञान एवं समाज विज्ञान का सम्यक ज्ञान प्राप्त
कर प्रकृति के नियमानुसार अपने आचरण को नियमित रखते हुए “दस प्रकार के
मानवीय दुर्गुण”, यथा – “ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध, लोभ, मोह, पूर्वाग्रह,
पक्षपात, भय, घृणा और अहंकार” – से मुक्त हो “पर्यावरण रक्षा“ तथा सभी के
साथ समान “न्याय” एवं समाज के “सर्वतोमुखी पोषणीय सम्यक विकास” हेतु मानवता
की सेवा में जीवन का समर्पण |
7. “यज्ञ” – अर्थात यज्ञ के चारों
अंग, यथा- (क). मंत्रोच्चारण, (ख). हवन, (ग). बलि, और (घ). दान - का पालन
करते हुए ईश्वर की आराधना, पूजा, स्तुति द्वारा स्वच्छ एवं सच्चे ह्रदय से
स्वयं अपने तथा अपने परिवार, समाज, देश और समस्त विश्व के कल्याण की
प्रार्थना करना |
यहाँ “मंत्रोच्चारण” का अर्थ है - “परब्रह्म
परमात्मा” (ईश्वर) की स्तुति में रचे गए वैज्ञानिक रूप से छंदबद्ध
शक्तिपूर्ण शब्दों का स्वच्छ ह्रदय से लयबद्ध उच्चारण द्वारा वातावरण में
“कल्याणकारी तरंग” उत्पन्न करना |
यहाँ “हवन” का अर्थ है - पवित्र लकड़ी, हुमाद, तिल, घी एवं जड़ी – बूटी जलाकर स्थानीय रूप से पर्यावरण की शुद्धि का उपाय करना|
यहाँ “बलि” का अर्थ है - ईश्वर का नाम लेकर पवित्र भाव से मानवोपयोगी पशु
–पक्षी तथा चींटी इत्यादि को स्नेहवश उनके भोजनार्थ अपने प्रिय भोजन का अंश
उन्हें समर्पित करना, उदाहरणार्थ – “गोबलि, श्वानबलि, काकबलि, अश्वबलि एवं
पिपीलिकादिबलि” (अर्थात अपने प्रिय भोजन का अंश क्रमशः गाय, कुत्ता, कौआ
आदि पक्षीगण, घोड़ा तथा चींटी एवं कीट – पतंगों को उनके भोजनार्थ समर्पित
करना) |
यहाँ “दान” का अर्थ है - “सुपात्र ब्राह्मण” एवं “ऋषि”
को आवाहन (सादर आमंत्रण) द्वारा बुलाकर “ऋषि आश्रम” अर्थात निःशुल्क
शिक्षाकेन्द्र, वैज्ञानिक शोध केन्द्र, चिकित्सा केन्द्र, कल्याणकारी संगठन
आदि के संचालन हेतु उन्हें अधिकतम धनराशि तथा चल एवं अचल संपत्ति सादर
समर्पित करना |
यहाँ “ब्राह्मण” का अर्थ है - शस्त्र एवं
शास्त्रों का ज्ञाता, मानवीय दुर्गुणों से मुक्त होकर मानवता की सेवा में
समर्पित ब्रह्मज्ञानी बुद्धिजीवी अर्थात शिक्षक, प्राध्यापक, न्यायविद,
कानूनी सलाहकार, न्यायाधीश, डॉक्टर, वैज्ञानिक, दार्शनिक, कवि, लेखक,
पुरोहित, सामाजिक कार्यकर्ता आदि |
यहाँ “ऋषि” का अर्थ है - शिक्षाकेन्द्र, चिकित्सा केन्द्र, वैज्ञानिक शोध केन्द्र का अध्यक्ष “श्रेष्ठ वरिष्ठ ब्राह्मण |
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