हयग्रीव
विष्णु के अवतार थे। जैसा कि नाम से स्पष्ट है उनका सिर घोड़े का था और
शरीर मनुष्य का। वे बुद्धि के देवता माने जाते हैं।पृथ्वी के एकार्णव में
विलीन हो जाने पर श्री हरि विष्णु योगनिद्रा में शेषनाग शय्या पर क्षीर
सागर में शयन कर रहे थे। उनकी नाभि से सहस्त्र दल पद्म प्रकट हुआ। उस नाभि
कमल पर लोकों के पितामह श्री ब्रह्मा प्रकट हुए। उस सहस्त्र दल पर श्री हरि
नारायण की प्रेरणा से पहले से ही रजोगुण व तमोगुण की प्रतीक जल की दो
बूंदें पड़ी थी। जब एक बूंद पर श्री हरि की नजर पड़ी तो वह ‘मधु’ नामक
दैत्य के रूप में परिणत हो गई। जल की दूसरी बूंद पर उनकी दृष्टि पडऩे से
‘कैटभ’ नामक दैत्य प्रकट हुआ। दोनों दैत्य अत्यंत बलशाली व वीर थे तथा
विशालकाय शरीर वाले थे। वे दोनों कमलनाल के सहारे ब्रह्मा जी के समीप पहुंच
गये। उस समय ब्रह्मा जी सृष्टि रचना में प्रवृत्त थे। उनके समीप अत्यंत
सुन्दर स्वरूप धारण किये चारों वेद थे। दैत्यों ने उन्हें देखा और उनका हरण
कर लिया। इस प्रकार श्रुतियों को लेकर वे महासागर में प्रवेश करके रसातल
में पहुंच गये।
श्रुतियों को अपने समीप न देखकर विधाता दुखी होकर विलाप करने लगे— ‘वेद ही मेरे नेत्र, अद्भुत शक्ति, परम आश्रय तथा उपास्य देव हैं। उनके नष्ट हो जाने से मुझ पर घोर विपत्ति आ पड़ी है।’ फिर उन्होंने वेदों के उद्धार तथा रक्षा के लिये श्री हरि नारायण से स्तुति पूर्वक प्रार्थना की, ‘हे कमलनयन! आपसे उत्पन्न मैं आपका पुत्र कालातीत अर्थात कालरहित हूं। आपने मुझे वेद रूपी नेत्र प्रदान किये हैं। उनके चले जाने से मैं अंधा हो गया हूं। चारों ओर अंधकार है। मैं अब सृष्टिï-रचना में असमर्थ हो गया हूं। इसलिये हे स्वामी निद्रा त्यागकर मुझे मेरे वेद रूपी नेत्र वापस कीजिए। यह कार्य केवल आप ही कर सकते हैं।’
श्री हरि ने ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर निद्रा का त्याग कर दिया और वे एक कान्तिमय हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए। उनकी गर्दन और मुखाकृति घोड़े की सी थी। वे समस्त ब्रह्मांड को अपनी आकृति में समेटे हुए थे। इस प्रकार अत्यंत पराक्रमी, शक्तिशाली, आदि-अंत से रहित भगवान ने श्री हयग्रीव रूप में अवतार ग्रहण किया तत्पश्चात वे महासमुद्र द्वारा रसातल में पहुंच गये। वहां उन्होंने सामगान का सस्वर गान शुरू किया। चारों ओर उनका मधुर गान गूंजने लगा तथा इसने दोनों दैत्यों ‘मधु-कैटभ’ को भी मुग्ध कर दिया। उन दोनों ने वेदों को रसातल में फेंक दिया और उस मधुर ध्वनि की ओर दौड़ पड़े। भगवान ने अवसर पाकर वेदों को रसातल से निकाल लिया और लाकर ब्रह्मा जी को दे दिया। दैत्यों ने पाया कि वहां न कोई गायक और न ही मधुर गान था। वे वापस रसातल में आए किंतु वहां वेदों को न पाकर क्रोध से पागल हो गये। वे दोनों वेदों को वहां से ले जाने वाले अपने शत्रु को ढूंढऩे निकल पड़े। उन्होंने देखा कि महासागर की विशाल लहरों पर भगवान शेषशय्या पर शयन कर रहे हैं। उन दोनों ने भयानक गर्जना की तथा भगवान को जगाया। श्री हरि ने जान लिया कि वे युद्ध करने के लिये तत्पर हैं। भगवान उठे और दैत्यों से भयानक संग्राम छेड़ दिया। यह बाहुयुद्ध था जो पांच सहस्त्र वर्षों तक चलता रहा। इस युद्ध में दैत्यों को हराना असंभव जानकर भगवान ने अपनी महामाया से दोनों की बुद्धि को भ्रमित कर दिया। फिर उन्होंने दोनों से कहा, ‘मैं तुम्हारे पराक्रम से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अत्यंत बलशाली व प्रशंसा के पात्र हो। इसलिये कोई भी वर मांग लो।’ किंतु उन दोनों ने भगवान का परिहास किया और उन्हें ही अपने से वर मांगने को कहा। भगवान ने मांगा कि ‘तुम दोनों मेरे हाथ से मारे जाओ।’ वे ठगे से रह गये और प्रभु से कहा कि ‘हम आपसे यह वर मांगते हैं— आवां जहि नयत्तोर्वी सलिलेन परिप्लुता। अर्थात जहां पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहां सूखा स्थान हो वहीं हमारा वध हो।’ फिर भगवान ने जल पर अपनी जांघों को फैलाकर जल पर ही स्थल दिखला दिया और दैत्यों से कहा, ‘इस स्थान पर जल नहीं है, तुम अपना मस्तक रख दो। आज मैं भी सत्यवादी रहूंगा और तुम भी।’ उन्होंने वैसा ही किया। भगवान ने हयग्रीव रूप में ही तीक्ष्ण चक्र से उन्हें काट डाला। इस प्रकार वेदों से सम्मानित और श्री नारायण से सुरक्षित होकर ब्रह्मा जी सृष्टि कार्य में संलग्न हो गये।
दूसरे कल्प में दिति का एक पुत्र बहुत ही बलवान तथा पराक्रमी हुआ जिसका नाम हयग्रीव था। किंतु वह दैत्य आरंभ से ही मां भगवती का भक्त था। उसने एक हजार वर्ष तक मां जगदम्बा की आराधना की। फिर एक दिन सिंहवाहिनी माता उसके सम्मुख प्रकट हुई और कहा, ‘मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं इसलिये तुम वर मांगो।’ दैत्य हयग्रीव ने कहा, ‘हे देवी, मेरी कामना है कि मैं अमर भोगी बन जाऊं।’ देवी ने कहा, ‘जन्म के अनंतर मृत्यु निश्चित है। यह सत्य जानकर कोई अन्य वर मांग लो।’ इस पर दैत्य ने कुछ बुद्धिमानी दिखाते हुए कहा कि ‘मैं हयग्रीव के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा न मारा जाऊं।’ उसे विश्वास था कि मेरे नाम वाला और कोई व्यक्ति नहीं है और मैं स्वयं को नहीं मार सकता। उधर देवी जानती थी कि भगवान हयग्रीव रूप में पिछले कल्प में प्रकट हो चुके हैं। देवी ने उसे ‘तथास्तु’ कहा और अंतध्र्यान हो गईं।
वर प्राप्त करके उस दैत्य ने उपद्रव करने आरंभ कर दिये। वह ऋषि-मुनियों और वेदों को सताने लगा। सभी उससे त्रस्त व व्याकुल थे। उसे पराजित करना या मारना किसी के वश की बात न थी। वह निश्चिंत, नि:संकोच धर्मध्वंस कर रहा था। पृथ्वी भी अत्यंत भयभीत थी। अंतत: श्री हरि नारायण वेदों, भक्तों, धर्म के त्राण तथा अधर्म का नाश करने के लिये हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए क्योंकि दैत्य ने देवी से हयग्रीव के हाथों मारे जाने का वर प्राप्त किया था। भगवान का हयग्रीव रूप अत्यंत तेजस्वी एवं मनोहर था।
उनके अंग-अंग से तेज प्रवाहित हो रहा था। उन्होंने दैत्य हयग्रीव से युद्ध आरंभ किया। दीर्घकाल तक युद्ध करता हुआ वह असुर हयग्रीव परम मंगलमय भगवान के हयग्रीव रूप द्वारा मारा गया। समस्त पृथ्वी के प्राणी भयमुक्त होकर भगवान हयग्रीव की जय-जयकार करते हुए निश्चिंत व सुरक्षित होकर जीवन यापन करने लगे।
श्रुतियों को अपने समीप न देखकर विधाता दुखी होकर विलाप करने लगे— ‘वेद ही मेरे नेत्र, अद्भुत शक्ति, परम आश्रय तथा उपास्य देव हैं। उनके नष्ट हो जाने से मुझ पर घोर विपत्ति आ पड़ी है।’ फिर उन्होंने वेदों के उद्धार तथा रक्षा के लिये श्री हरि नारायण से स्तुति पूर्वक प्रार्थना की, ‘हे कमलनयन! आपसे उत्पन्न मैं आपका पुत्र कालातीत अर्थात कालरहित हूं। आपने मुझे वेद रूपी नेत्र प्रदान किये हैं। उनके चले जाने से मैं अंधा हो गया हूं। चारों ओर अंधकार है। मैं अब सृष्टिï-रचना में असमर्थ हो गया हूं। इसलिये हे स्वामी निद्रा त्यागकर मुझे मेरे वेद रूपी नेत्र वापस कीजिए। यह कार्य केवल आप ही कर सकते हैं।’
श्री हरि ने ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर निद्रा का त्याग कर दिया और वे एक कान्तिमय हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए। उनकी गर्दन और मुखाकृति घोड़े की सी थी। वे समस्त ब्रह्मांड को अपनी आकृति में समेटे हुए थे। इस प्रकार अत्यंत पराक्रमी, शक्तिशाली, आदि-अंत से रहित भगवान ने श्री हयग्रीव रूप में अवतार ग्रहण किया तत्पश्चात वे महासमुद्र द्वारा रसातल में पहुंच गये। वहां उन्होंने सामगान का सस्वर गान शुरू किया। चारों ओर उनका मधुर गान गूंजने लगा तथा इसने दोनों दैत्यों ‘मधु-कैटभ’ को भी मुग्ध कर दिया। उन दोनों ने वेदों को रसातल में फेंक दिया और उस मधुर ध्वनि की ओर दौड़ पड़े। भगवान ने अवसर पाकर वेदों को रसातल से निकाल लिया और लाकर ब्रह्मा जी को दे दिया। दैत्यों ने पाया कि वहां न कोई गायक और न ही मधुर गान था। वे वापस रसातल में आए किंतु वहां वेदों को न पाकर क्रोध से पागल हो गये। वे दोनों वेदों को वहां से ले जाने वाले अपने शत्रु को ढूंढऩे निकल पड़े। उन्होंने देखा कि महासागर की विशाल लहरों पर भगवान शेषशय्या पर शयन कर रहे हैं। उन दोनों ने भयानक गर्जना की तथा भगवान को जगाया। श्री हरि ने जान लिया कि वे युद्ध करने के लिये तत्पर हैं। भगवान उठे और दैत्यों से भयानक संग्राम छेड़ दिया। यह बाहुयुद्ध था जो पांच सहस्त्र वर्षों तक चलता रहा। इस युद्ध में दैत्यों को हराना असंभव जानकर भगवान ने अपनी महामाया से दोनों की बुद्धि को भ्रमित कर दिया। फिर उन्होंने दोनों से कहा, ‘मैं तुम्हारे पराक्रम से बहुत प्रसन्न हूं। तुम अत्यंत बलशाली व प्रशंसा के पात्र हो। इसलिये कोई भी वर मांग लो।’ किंतु उन दोनों ने भगवान का परिहास किया और उन्हें ही अपने से वर मांगने को कहा। भगवान ने मांगा कि ‘तुम दोनों मेरे हाथ से मारे जाओ।’ वे ठगे से रह गये और प्रभु से कहा कि ‘हम आपसे यह वर मांगते हैं— आवां जहि नयत्तोर्वी सलिलेन परिप्लुता। अर्थात जहां पृथ्वी जल में डूबी हुई न हो, जहां सूखा स्थान हो वहीं हमारा वध हो।’ फिर भगवान ने जल पर अपनी जांघों को फैलाकर जल पर ही स्थल दिखला दिया और दैत्यों से कहा, ‘इस स्थान पर जल नहीं है, तुम अपना मस्तक रख दो। आज मैं भी सत्यवादी रहूंगा और तुम भी।’ उन्होंने वैसा ही किया। भगवान ने हयग्रीव रूप में ही तीक्ष्ण चक्र से उन्हें काट डाला। इस प्रकार वेदों से सम्मानित और श्री नारायण से सुरक्षित होकर ब्रह्मा जी सृष्टि कार्य में संलग्न हो गये।
दूसरे कल्प में दिति का एक पुत्र बहुत ही बलवान तथा पराक्रमी हुआ जिसका नाम हयग्रीव था। किंतु वह दैत्य आरंभ से ही मां भगवती का भक्त था। उसने एक हजार वर्ष तक मां जगदम्बा की आराधना की। फिर एक दिन सिंहवाहिनी माता उसके सम्मुख प्रकट हुई और कहा, ‘मैं तुम्हारी भक्ति से प्रसन्न हूं इसलिये तुम वर मांगो।’ दैत्य हयग्रीव ने कहा, ‘हे देवी, मेरी कामना है कि मैं अमर भोगी बन जाऊं।’ देवी ने कहा, ‘जन्म के अनंतर मृत्यु निश्चित है। यह सत्य जानकर कोई अन्य वर मांग लो।’ इस पर दैत्य ने कुछ बुद्धिमानी दिखाते हुए कहा कि ‘मैं हयग्रीव के अतिरिक्त किसी अन्य द्वारा न मारा जाऊं।’ उसे विश्वास था कि मेरे नाम वाला और कोई व्यक्ति नहीं है और मैं स्वयं को नहीं मार सकता। उधर देवी जानती थी कि भगवान हयग्रीव रूप में पिछले कल्प में प्रकट हो चुके हैं। देवी ने उसे ‘तथास्तु’ कहा और अंतध्र्यान हो गईं।
वर प्राप्त करके उस दैत्य ने उपद्रव करने आरंभ कर दिये। वह ऋषि-मुनियों और वेदों को सताने लगा। सभी उससे त्रस्त व व्याकुल थे। उसे पराजित करना या मारना किसी के वश की बात न थी। वह निश्चिंत, नि:संकोच धर्मध्वंस कर रहा था। पृथ्वी भी अत्यंत भयभीत थी। अंतत: श्री हरि नारायण वेदों, भक्तों, धर्म के त्राण तथा अधर्म का नाश करने के लिये हयग्रीव के रूप में प्रकट हुए क्योंकि दैत्य ने देवी से हयग्रीव के हाथों मारे जाने का वर प्राप्त किया था। भगवान का हयग्रीव रूप अत्यंत तेजस्वी एवं मनोहर था।
उनके अंग-अंग से तेज प्रवाहित हो रहा था। उन्होंने दैत्य हयग्रीव से युद्ध आरंभ किया। दीर्घकाल तक युद्ध करता हुआ वह असुर हयग्रीव परम मंगलमय भगवान के हयग्रीव रूप द्वारा मारा गया। समस्त पृथ्वी के प्राणी भयमुक्त होकर भगवान हयग्रीव की जय-जयकार करते हुए निश्चिंत व सुरक्षित होकर जीवन यापन करने लगे।
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