प्रार्थना
सभी करते हैं। उसमें ईश्वर से कुछ माँगते और याचना भी करते हैं। किन्हीं
लोगों की प्रार्थना अथवा याचना फलीभूत होती है और किन्हीं को सर्वथा निराश
ही होना पड़ता है।
डॉ. कैरेला
जिस किसी भी रोगी का उपचार करते, कहते थे- प्रार्थना करो, सच्चे मन से
प्रार्थना करो, अपनी भूलों के लिए प्रायश्चित और भविष्य में निर्मल जीवन
जीने की प्रतिज्ञा के साथ यदि प्रार्थना करोगे तो यह अवश्य सुनी जाएगी,
सच्चा इलाज तो प्रार्थना है और जो सच्चे हृदय से प्रार्थना करेगा वह
शारीरिक ही नहीं, आंतरिक रोगों से भी छुटकारा पा जाएगा।
सच्ची
प्रार्थना अपनी आत्मा को परमात्मा का प्रतीक मानकर स्वयं को समझाना है कि
वह अपने में ऐसी पात्रता विकसित करे, जिससे आवश्यक विभूतियाँ उसकी योग्यता
के अनुरूप सहज ही मिल सकें।
वर्षा होती है। पहाड़ों, मैदानों और
सरोवरों में बिना किसी भेदभाव के बादल पानी बरसाते हैं, पर पहाड़ की चोटियों
पर पानी नहीं ठहरता, मैदानों पर बह जाता है और सूख भी जाता है। लेकिन
नदियाँ-सरोवर और गड्ढे, कुएँ पानी से भर जाते हैं, क्योंकि उनमें यह
रिक्तता-पात्रता विद्यमान रहती है, जिसमें कि पानी ठहर सके।
प्रार्थना मनुष्य का संपर्क विश्वव्यापी महानता के साथ बढ़ाती है। सच्चे मन
से की गई प्रार्थना का परिणाम आदर्शों के रूप में, भगवान की दिव्य
अभिव्यक्ति के रूप में होता है। उसके साथ जुड़ जाने से प्रतीत होता है कि
अपने दुःख-क्लेशों का हेतु कोई और नहीं अपनी ही तमसाछन्न मनोभूमि है,
जिसमें अज्ञान और आलस्य ने जड़ें जमा ली हैं।
अंतःशक्ति को जगाने
वाली एक भी किरण अंतः ज्योति को जग सके तो इस अंधकार को सहज ही मिटाने में
मदद मिल सकती है, जिसमें पग-पग पर ठोकरें लगती हैं और उनसे शोक-संताप
उत्पन्न होता है।
उस स्थिति में यह अंतःप्रकाश उत्पन्न होता है,
परमेश्वर यों साक्षी, दृष्टा, नियामक, उत्पादक, संचालक सब कुछ है, पर उसके
जिस अंश की हम उपासना करते हैं या प्रार्थना करते हैं, वह सर्वात्मा है और
पवित्र आत्मा है। अहंकार को खोकर समर्पण की नम्रता स्वीकार करना और उद्धृत
मनोविकारों को ठुकराकर परमेश्वर का नेतृत्व स्वीकार करने का नाम प्रार्थना
है।
जब मन दुर्बल हो रहा हो, मनोविकार बढ़ रहे हों और लगता हो कि
पैर अब फिसला, तब फिसला तो सच्चे मन से परमात्मा को पुकारना चाहिए। गज को
ग्राह के चंगुल से छुड़ाने वाले भगवान, पतन से परित्राण पाने के लिए व्याकुल
आर्तभक्त की पुकार को अनसुनी नहीं करते हैं और उस मनोबल के रूप में
अंतःकरण में उतरते हैं, जिसे गरूड़ कहा जा सकता है तथा जो पतनोन्मुख
दुष्प्रवृत्तियों के सर्पों को उदरस्थ करने का अभ्यासी है भी।
जो
कुछ प्राप्त है उसके लिए परमेश्वर के प्रति कृतज्ञता और धन्यवाद के बोध से
भरकर परमात्म से आत्मबल, मनोबल, आत्मबोध के ही दिव्य वरदान की माँग की जाए।
सर्वतोभावेन परमात्मा के प्रति समर्पित भक्त का योगक्षेम वहन
करने की प्रतिज्ञा भगवान ने स्वयं की है, पर उस शर्त को भी पूरा किया जाना
चाहिए, जो पात्रता विकसित करने, हृदय की वासनाओं और तृष्णाओं से रिक्त करने
के रूप में जुड़ी हुई हैं।
--- श्री कमल अग्रवाल
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