१. चातुर्मासकी परिकल्पना
भागवतमें मुनिश्रेष्ठ नारदजीने महर्षि व्यासजीको अपना चरित्र बताया । वे कहते हैं,
अहं पुरातीतभवेऽभवं मुने दास्यास्तु कस्याश्चन वेदवादिनाम् ।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।
निरूपितो बालक एव योगिनां शुश्रूषणे प्रावृषि निर्विविक्षताम् ।।
- श्रीमद्भागवत महापुराण १-५-२३
अर्थ : हे मुनिवर, पिछले जन्ममें
मैं वेद विषयक विवाद करनेवाले एक योगीकी दासीका पुत्र था । जब मैं बालक ही
था, तब ये योगी वर्षाकालमें एक स्थानपर चातुर्मास व्रत कर रहे थे । उस समय
उनकी सेवा मुझे सौंपी गई थी । इसीप्रकार भागवतमें नारदमुनिने धर्मराज
युधिष्ठिरको प्रवृत्त एवं निवृत्त कर्मोंके बारेमें बताते हुए चातुर्मासका
उल्लेख किया है । इससे बोध मिलता है कि, चातुर्मास व्रत अनादि कालसे
परंपरागत रूपमें चला आ रहा है ।
२. चातुर्माससे संबंधित व्रत
सामान्य लोग चातुर्मासमें
कोई तो एक व्रत रखते ही हैं । उसके अंतर्गत भोजन नियम बनाते हैं, जैसे
पर्णभोजन अर्थात पत्तेपर भोजन करना, एक समय भोजन करना, अयाचित अर्थात मांगे
बिना जितना मिले उतना ही ग्रहण करना, मिश्रभोजन अर्थात सर्व पदार्थ एक
साथ परोसकर, उसका कलेवा बनाकर अर्थात मिलाकर कर भोजन करना इत्यादि । अनेक
स्त्रियां चातुर्मासमें एक दिन भोजन एवं अगले दिन उपवास इस प्रकारका व्रत
रखती हैं । कुछ स्त्रियां चातुर्मासमें एक अथवा दो अनाजोंपर ही निर्वाह
करती हैं । उनमेंसे कुछ पंचामृतका त्याग करती हैं, तो कुछ एकभुक्त रहती हैं
। इसके साथही चातुर्मासमें कुछ अन्य व्रत भी रखे जाते हैं,
२ अ. चातुर्मासमें भोजनमें तेल, घी या मीठा पदार्थ वज्र्य करना
२ आ. जूते-चप्पल पहने बिना चलना
२ इ. अपक्व अर्थात न पकाया हुआ भोजन ग्रहण करना
२ ई. प्रतिदिन भगवान श्री विष्णुके देवालयमें जाकर सौ परिक्रमाएं करना
२ ई. भूमिपर या दर्भपर सोना इत्यादि
२ आ. जूते-चप्पल पहने बिना चलना
२ इ. अपक्व अर्थात न पकाया हुआ भोजन ग्रहण करना
२ ई. प्रतिदिन भगवान श्री विष्णुके देवालयमें जाकर सौ परिक्रमाएं करना
२ ई. भूमिपर या दर्भपर सोना इत्यादि
३. चातुर्मासमें वज्र्य बातें कौनसी है ?
३ अ. कंद, मूली, बैंगन, प्याज, लहसुन, इमली, मसूर,
चवली अर्थात लोबिया, अचार, तरबूज अर्थात सत्दह, बहुबीज या निर्बीज फल,
बेर, मांस इत्यादि पदार्थोंका सेवन नहीं करना चाहिए ।
३ आ. वैश्वेदेव किया गया अन्न अर्थात देवताओंको अग्निद्वारा दी गई आहुति
३ इ. मंच अर्थात खाट, पलंग अदि पर शयन नहीं करना चाहिए ।
३ ई. केशवपन अर्थात केश काटना वर्जित है ।
३ उ. विवाह एवं तत्सम अन्य कार्य भी वर्जित हैं ।
३ आ. वैश्वेदेव किया गया अन्न अर्थात देवताओंको अग्निद्वारा दी गई आहुति
३ इ. मंच अर्थात खाट, पलंग अदि पर शयन नहीं करना चाहिए ।
३ ई. केशवपन अर्थात केश काटना वर्जित है ।
३ उ. विवाह एवं तत्सम अन्य कार्य भी वर्जित हैं ।
ऐसेमें यह प्रश्न अवश्य
खडा होता है, कि चातुर्मासमें किन पदार्थोंका सेवन करना चाहिए ?
चातुर्मासमें हविष्यान्न अर्थात हवनके लिए उपयुक्त सात्त्विक अन्न, जैसे
चावल, जौ, तिल, गेहूं, गायका दूध, दही, घी, नारियल, केला इत्यादिका सेवन
बताया गया है । चातुर्मासमें वर्जित पदार्थ रज-तमोगुण युक्त होते हैं, तो
सेवनके लिए ग्राह्य माने गए हविष्यान्न सत्त्वगुणप्रधान होते हैं ।
४. चातुर्मासमें व्रत रखनेके लाभ
४ अ. आसुरी शक्तियोंके आक्रमणकी तीव्रता घट जाना
वर्षाऋतुमें तेजतत्त्व रूपी
सूर्यकी किरणें पृथ्वीपर अल्प मात्रामें आती हैं । इस कारण आसुरी
शक्तियोंके आक्रमण भी अधिक मात्रामें होते हैं । चातुर्मासमें फैलनेवाले
७० प्रतिशत रोग आसुरी अर्थात अनिष्ट शक्तियोंके कारणही आते हैं । इस कालमें
वरिष्ठ स्तरकी आसुरी शक्तियां वायुमंडलमें विद्यमान तेजोमय तरंगोंकी
सहायतासे अपनी सिद्धिको कार्यरत करती हैं । इसके माध्यमसे वे सामान्य
जनोंसे लेकर बडे योगियोंपर आक्रमण करनेका प्रयास करती हैं। चातुर्मासमें
किए जानेवाले व्रतोंके कारण व्यक्तिके साथ साथ वायुमंडलकी सात्त्विकता भी
बढती है । इस सात्त्विकताके प्रभावसे आसुरी शक्तियोंके आक्रमणकी तीव्रता घट
जाती है । इसी कारण हिंदुधर्मने चातुर्मास व्रतोंकी विधि बनाई है ।
४ आ. सूर्यनाडी कार्यरत होकर पेशियोंकी प्रतिकारक्षमता बढना
व्रतपालनसे आपतत्त्वके बलपर
तेजतत्त्व प्रवाही बनता है । इससे व्रतीकी सूर्यनाडी कार्यरत होकर उसकी
पेशियोंकी प्रतिकार क्षमता बढती है । परिणामस्वरूप व्रतीकी स्थूल देहसे
संबंधित रोग, तथा सूक्ष्म अर्थात आसुरी शक्तियोंके आक्रमणके कारण होनेवाले
कष्ट, इन दोनोंसे रक्षण होता है ।
४ इ. पातालसे प्रक्षेपित कष्टदायी तरंगोंसे रक्षण होना
चातुर्मासमें किए जानेवाले
विविध व्रतोंकी सहायतासे विविध देवताओंकी उपासना की जाती है । इसके द्वारा
उन देवताओंकी तत्त्वतरंगोंका आवाहन किया जाता है । ये तत्त्वतरंगें भूमिके
पृष्ठभागपर घनीभूत होती हैं । परिणाम स्वरूप पातालसे प्रक्षेपित
तेजतत्त्वरूपी कष्टदायी तरंगोंसे पृथ्वीपर रहनेवाले जीवोंका रक्षण होता है
।
४ ई. देवताओंकी कृपादृष्टि होना
चातुर्मासमें भूलोकमें
सूर्य किरणोंसे मिलनेवाले तेजतत्त्वकी मात्रा घटती है, जो व्रतोंके
माध्यमसे प्राप्त तेजतत्त्वसे बढाई जाती है । यह तेजतत्त्व वायुमंडलमें
विद्यमान पृथ्वी एवं आप कणोंकी सहायतासे व्यक्तिकी देहमें एकत्रित होता है,
जिसके कारण साधारण व्यक्तिको इससे कष्ट नहीं होता ।
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)
Thank you....
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