जिसे
आज आप धर्म कहते है , कई मनीषियों ने इसे और भी कई नाम दिए है! हालाकि इस
पर लिख कर अर्थात अपनी राय देकर मै कोई विवाद उत्पन्न नहीं करना चाहता था ,
लेकिन यदि इस पर कुछ भी ना तो बोला गया और ना ही लिखा गया तो धर्म केवल एक
संस्था बनकर रह जाएगी! धर्म मनुष्य क़ी मार्गदर्शिका है ना क़ी समुदाय ?
इसी तुछ विचार धारा के चलते मनीषियों ने धर्म को संप्रदाय तक कहा!कुछ ने
धारण करना भी कहा! धर्म ना तो संप्रदाय है और ना ही कोई संस्था अपितु धर्म
को जीवन क़ी मार्ग दर्शिका कहा जाये तो अतिउत्तम होगा!
मनुष्य
यदि जीवन में मोक्ष्य अर्थात निर्वाण पद क़ी प्राप्ति करना चाहता है, तो
उसे प्रकर्ति क़ी और अवश्य ही देखना होगा ! प्रकर्ति आठ प्रकार क़ी होती
है- प्रथ्वी, जल, वायु, अग्नि,आकाश,मन,बुद्धि और अहंकार! इन आठो प्रकर्तियो
को जो भी अपने वश में कर लेता है अर्थात इनमे रहते हुए भी इनका गुलाम नहीं
होता है, यानि जो इनके बन्धनों से ऊपर उठ जाता है उसे ही मोक्ष्य मिलता
है! वह व्यक्ति क़ी धन्यभागी हो जाता है ! प्रकर्ति को अपने सामान्तय
अनुकूल बनाने वाले को ही मुक्ति मिलती है इन जन्म- मरण के फेरो से! जन्म-
जन्मंतरण के इन चक्रों से!
प्रकर्ति को वश में करना सहज नहीं
है ! क्योकि जन्म लेने के तुरंत बाद ही तुम्हे प्रकर्ति के अनुसार रहना
नहीं सिखाया जाता अपितु प्रकर्ति विरोधी वातावरण में तुम्हे रखा जाता है !
शरीर क़ी संरचना और प्रकर्ति क़ी समझ हममे में नहीं है हम अपनी संतानों
विश्लेषण के बिना डंडे क़ी तरह हांक कर उनको वही गलतिया ना करने क़ी सलाह
देते है जिन्हें हम उनकी उपस्थिति में रात- दिन उनके समक्ष दोहरा रहे होते
है! माता- पिता के इस कर्त्य से क्षुब्ध से माता पिता का आदर नहीं करता
अपितु घर्णा से भरकर वह कोतुहल स्वरूप वही करता है जिसे तुमने करने को मना
किया था ! और यही से नासमझ शिशु के जीवन से श्रद्धा, प्रेम, विश्वास और
जीवन को जीने व् समझने क़ी इच्छा निकल जाती है!
यह समझना
नितांत आवश्यक है क़ि प्रकर्ति जीवो को अपने वश में रखती है , परंतु मनुष्य
के अन्दर ईश्वर तत्व है, गुरु तत्व है! जिसके वश में यह प्रकर्ति होती है !
जब तक अपने अन्दर के ईश्वर तत्व को, गुरु तत्व को एक कर नहीं कर लोगे तब
तक प्रकर्ति भी तुम्हारा साथ नहीं देगी! इसलिए प्रकर्ति के हर एक तत्व के
साथ एकाकार होकर उससे ऊपर उठाना है! भागना नहीं है क्योकि मन का सवभाव है
क़ि तुम जिस चीज से दूर भागोगे वही उसी क़ि चाहत यानि ख्याल लेकर आता रहेगा
!
प्रकर्ति से एकाकार होना और भागने में अंतर समझ लेना:-
एकाकार होना अतः क़ि तुम देख चके और संतुस्ठ होने के कारण अब पाने क़ि कोई
चाहत भी नहीं रह गयी लेकिन भाग तुम वस्तु से सकते हो शारीरिक रूप से,
लेकिन मन में हमेशा वही रहेगी, उसी क़ी चाहत बनी रहेगी तथा जितना भी दूर
जाने का प्रयत्न तुम करोगे उसकी चाहत तुम्हे असंतुस्ठी दे देगी! लेकिन
जैसे- जैसे तुम हर प्रकार क़ी प्रकर्ति के साथ एकाकार होते जायेंगे वैसे-
वैसे आठो प्रकार क़ी सिद्धिया सिद्ध होती जाएँगी१ इसलिए जीवन यात्रा में
पहले धर्म और अंत में मोक्ष्य है! इस अर्थ और काम को धर्म और मोक्ष्य के
अनुसार ही प्राप्त करना चाहिए! धर्म और मोक्ष्य मुखयत पुरुषार्थ है ! अर्थ
और काम गौण है! इस धर्म को समझने के लिए जो अर्थ रूपी जीवन का धारक यह
शरीर है, इसे पहले समझना जरुरी है! धर्म शरीर का भी है, धर्म देश काल का भी
है! धर्म प्रकर्ति के सभी तत्वों का भी है! धर्म चंद्रमा, सूर्य, प्रथ्वी ,
जल, अग्नि वायु आदि का भी है १ ये प्रथ्वी के तत्व अपने धर्म नहीं छोड़ते ,
परंतु मानव अपना धर्म अर्थात प्रेम और इंसानियत को छोड़ कर फिरका परस्ती
और मेरे - तेरे में लग जाता है! कहा रह जाता है तुम्हारा मनुष्य धर्म?
तुम्हारे दुखो का कारण भी यही है!
(स्वामी स सरस्वती)
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