प्रत्येक
मनुष्य की श्रद्धा अलग-अलग होती है। राजस, तामस, सात्विक एवं इन कारणों से
कर्म की गतियाँ भी अलग-अलग होती हैं। इसी तारतम्य में जब किसी भाव का
अनुपात कम-ज्यादा हो जाता है, उसी तरह से मनुष्य कर्म करता है एवं उसे वैसा
ही कर्म फल प्राप्त होता है।
जो पाप करता है उसका लक्षण
प्रतिसिद्ध कर्म है। जब आदमी दुखी होता है तब उसे ज्ञान होता है कि उसने
पाप कर्म किया है। मनुष्य में उपजी वासनाएँ उसे पाप कर्म
करने को प्रेरित करती हैं। यह बड़ी विचित्र बात है कि जिस कर्म से अहंकार
बढ़े वह देखने में पुण्य प्रतीत होने पर भी पाप हो जाता है। इसके विपरीत
जिससे अहंकार की निवृत्ति हो वह देखने में पाप होने पर भी पुण्य हो जाता
है।
इसलिए शास्त्रों की दृष्टि से, गुरु की दृष्टि से संप्रदाय
की दृष्टि से जो मना किया हुआ काम है उसको कभी नहीं करना चाहिए। पाप पहले
कर्तापन के अभिमान में आता है, फिर वासना के रूप में आता है, फिर दुख के
रूप में आता है। इसमें बड़े, बूढ़ों का तिरस्कार जरूर रहता है जिससे पाप की
उत्पति होती है।
ND
मनुष्य अनादि, अविधा को तो समझता नहीं, बस
कामना के वश में हो जाता है और उसके फलस्वरूप वह अनेक कर्मों में प्रवृत्त
हो जाता है। इन प्रवृत्तियों के कारण ही मनुष्य को दुख भोगना पड़ता है।
असल में जो अपनी उन्नति एवं दूसरों की उन्नति में मदद करने वाला काम है वह
पुण्य है किंतु जो अपनी और दूसरों की उन्नति में बाधक है वह पाप है। पाप
कर्म की परिभाषा ही यह है कि जिसमें कर्तव्य का अभिमान हो, वासना हो और
जिससे अंत में दुख मिले, ग्लानि हो, पछतावा हो। अतः मनुष्य मात्र को सचेत
होना चाहिए जिससे पछतावा ना हो। और वही मार्ग पुण्य का मार्ग है।
मनुष्य को अपने पापों का नाश करने का प्रयत्न करना चाहिए। बड़ा पाप हो तो
बड़ा प्रायश्चित, छोटा पाप हो तो छोटा प्रायश्चित। जैसे बड़े रोग के लिए अधिक
दवा, छोटे रोग के लिए कम दवा। किंतु यदि मनुष्य प्रायश्चित करने के बाद भी
पाप में प्रवृत्त हो जाता है तो सबकुछ व्यर्थ हो जाता है।
भक्ति
मार्ग यह कहता है कि यदि पंतजली दर्शन के यम-नियम की परिपालना ठीक से न हो
सके तो भगवान में मन लगा देना चाहिए। मनुष्य की वास्तविक शुद्धि भगवान की
भक्ति से संभव है। एक बार यदि मन भगवान में लग जाए, मनुष्य का राज भगवान के
गुणों में हो जाए और उनके चरणारविंद में उसका मन पहुँच जाए तो वह पाप
कर्मों से दूर ही रहेगा।
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