वर्तमान
दौर में अधिकतर नकली और ढोंगी संतों और कथा वाचकों की फौज खड़ी हो गई है
और हिंदुजन भी हर किसी को अपना गुरु मानकर उससे दीक्षा लेकर उसका बड़ा-सा
फोटो घर में लगाकर उसकी पूजा करता है। उसका नाम या फोटो जड़ित लाकेट गले
में पहनता है। यह धर्म का अपमान और पतन ही माना जाएगा।
हिंदू संत धारा को जानें
हिंदू संत बनना बहुत कठिन है क्योंकि संत संप्रदाय में दीक्षित होने के
लिए कई तरह के ध्यान, तप और योग की क्रियाओं से व्यक्ति को गुजरना होता है
तब ही उसे शैव या वैष्णव साधु-संत मत में प्रवेश मिलता है। इस कठिनाई,
अकर्मण्यता और व्यापारवाद के चलते ही कई लोग स्वयंभू साधु और संत
कुकुरमुत्तों की तरह पैदा हो चले हैं। इन्हीं नकली साधु्ओं के कारण हिंदू
समाज लगातार बदनाम और भ्रमित भी होता रहा है। हालाँकि इनमें से कमतर ही
सच्चे संत होते हैं।
हिंदू संन्यास की कुछ पद्धतियाँ है। इन
पद्धतियों के सम्प्रदायों में दीक्षित व्यक्ति को ही हिंदुओं का संत माना
जाता है। इस संन्यास परम्परा से जो बाहर है वे संत जरूर हो सकते हैं, लेकिन
हिंदू संत नहीं। इस संत धारा से जो बाहर है उनमें से ज्यादातर ने हिंदू
धर्म की मनमानी व्याखाएँ करके अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित कर रखी है और यह
भी कि उन्होंने हिंदुजन को भरमाकर उनका शोषण कर स्वयं के धार्मिक व्यापार
को विस्तार दिया है।
स्वतंत्र सत्ता स्थापित करने वालों में जैसे
संत आसाराम, दादा लेखराज, सत्यसाँई बाबा, महर्षि महेष योगी, श्रीराम शर्मा
आचार्य, श्रीश्री रविशंकर आदि असंख्य लोग हैं। इनमें कौन सही और कौन गलत है
यह तो जनता ही तय करती है।
हिंदू संत समाज तीन भागों में विभाजित
है और इस विभाजन का कारण आस्था और साधना पद्धतियाँ हैं, लेकिन तीनों ही
सम्प्रदाय वेद और वेदांत पर एकमत है। यह तीन सम्प्रदाय है- A. वैष्णव B.शैव
और C.स्मृति। वैष्णवों के अंतर्गत अनेक उप संप्रदाय है जैसे वल्लभ,
रामानंद आदि। शैव के अंतर्गत भी कई उप संप्रदाय हैं जैसे दसनामी, नाथ,
शाक्त आदि। शैव संप्रदाय से जगद्गुरु पद पर विराजमान करते समय शंकराचार्य
और वैष्वणव मत पर विराजमान करते समय रामानंदाचार्य की पदवी दी जाती है।
हालाँकि उक्त पदवियों से पूर्व अन्य पदवियाँ प्रचलन में थी।
A) शैव संप्रदाय :
शिव को मानने वाले शैव संप्रदाय वाले हैं। शैव परंपरा के अनेक संप्रदाय
हैं। इनमें शैव, पाशुपत, वीरशैव, कालामुख, कापालिक, काश्मीर शैव मत तथा
दक्षिणी मत और दसनामी अधिक प्रसिद्ध हैं। शाक्त और नाथ संप्रदाय भी शैव
संप्रदाय का ही अंग है। सभी में दसनामी संप्रदाय ही अधिक प्रचलित और
प्रसिद्ध है। शाक्त और नाथ संप्रदाय की उत्पत्ति तो शैव और वैष्णव संप्रदाय
में समन्वय की भावना से हुई थी।
*दसनामी संप्रदाय :
हिंदू
संन्यास की दसनामी पद्धतियों में से किसी एक पद्धति में हिंदू व्यक्ति जब
संन्यास लेता है तो उसको नया नाम दिया जाता है। नए नाम के आगे स्वामी और
नाम के साथ आनंद जुड़ा होता है अंत में जिस भी पद्धति से संन्यास लिया है
उसका नाम होता है। जैसे कि स्वामी अवधेशानंद गिरि- इसमें 'स्वामी' स्वयं के
मालिक होने का सूचक है जो सभी दसनामी संतों के नाम के पूर्व जोड़ा जाता है
अवधेशानंद में से 'अवधेश' व्यक्ति को दिया गया नाम है जिसमें 'आनंद' जोड़ा
जाता है जोकि सभी संतों के नाम के बाद जोड़ा जाता है। अंत में 'गिरि'
दसनामी सम्प्रदायों में से एक संप्रदाय का नाम है।
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इसी तरह
नाथ शब्द का उपयोग भी वही कर सकता है जो कि हिंदू संन्यास पद्धति से
दीक्षित हुआ है। अन्य किसी को भी इन शब्दों का इस्तेमाल करने का अधिकार
नहीं है, लेकिन मनमानी स्वतंत्रता और राजनीतिज्ञ संवरक्षण के चलते हर कोई
स्वामी, आचार्य और आनंद शब्द का इस्तेमाल कर लेता है। जो जानकार है वे
जानबूझ कर भी उक्त शब्दों का इस्तेमाल नहीं करते, लेकिन जिसे हिंदू धर्म की
परवाह नहीं है वे ही ऐसा करते हैं।
*संत नाम विशेषण और प्रत्यय : परमहंस, महर्षि, ऋषि, स्वामी, आचार्य, महंत, संन्यासी, नाथ और आनंद आदि।
*दसनामी संप्रदाय : गिरि, पर्वत, सागर, पुरी, भारती, सरस्वती, वन, अरण्य, तीर्थ और आश्रम।
*दसनामी पद्धति :
शंकराचार्य से सन्यासियों के दसनामी सम्प्रदाय का प्रचलन हुआ। इनके चार
प्रमुख शिष्य थे और उन चारों के कुल मिलाकर दस शिष्य हए। इन दसों के नाम से
सन्यासियों की दस पद्धतियाँ विकसित हुई। यह भारत के दस भाग का हिस्सा भी
है। शंकराचार्य ने चार मठ स्थापित किए थे जो दस क्षेत्रों में बँटें थे
जिनके एक एक मठाधीश थे।
दसनामी व्यक्तित्व : दसनामी सम्प्रदाय के
साधु प्रायः गेरुआ वस्त्र पहनते, एक भुजवाली लाठी रखते और गले में चौवन
रुद्राक्षों की माला पहनते हैं। हर सुबह वे ललाट पर राख से तीन या दो
क्षैतिज रेखाएँ बना लेते। तीन रेखाएँ शिव के त्रिशूल का प्रतीक होती है, दो
रेखाओं के साथ एक बिन्दी ऊपर या नीचे बनाते, जो शिवलिंग का प्रतीक होती
है। इनमें निर्वस्त्रधारियों को नगा बाबा कहते हैं। दसनामी संत 'नमो
नारायण' या 'नम: शिवाय' से शिव की आराधना करते हैं।
नाथ सम्प्रदाय
: प्राचीन काल से चले आ रहे नाथ संप्रदाय को गुरु मच्छेंद्र नाथ और उनके
शिष्य गोरख नाथ ने पहली दफे व्यवस्था दी। गोरखनाथ ने इस सम्प्रदाय के
बिखराव और इस सम्प्रदाय की योग विद्याओं का एकत्रीकरण किया। गुरु और शिष्य
को तिब्बती बौद्ध धर्म में महासिद्धों के रुप में जाना जाता है। इन्हीं से
आगे चलकर चौरासी और नवनाथ माने गए जो निम्न हैं:-
नाथ व्यक्ति :
परिव्रराजक का अर्थ होता है घुमक्कड़। नाथ साधु-संत दुनिया भर में भ्रमण
करने के बाद उम्र के अंतिम चरण में किसी एक स्थान पर रुककर अखंड धूनी रमाते
हैं या फिर हिमालय में खो जाते हैं। हाथ में चिमटा, कमंडल, कान में कुंडल,
कमर में कमरबंध, जटाधारी धूनी रमाकर ध्यान करने वाले नाथ योगियों को ही
अवधूत या सिद्ध कहा जाता है। ये योगी अपने गले में काली ऊन का एक जनेऊ रखते
हैं जिसे 'सिले' कहते हैं। गले में एक सींग की नादी रखते हैं। इन दोनों को
'सींगी सेली' कहते हैं।
इस पंथ के साधक लोग सात्विक भाव से शिव
की भक्ति में लीन रहते हैं। नाथ लोग अलख (अलक्ष) शब्द से शिव का ध्यान करते
हैं। परस्पर 'आदेश' या आदीश शब्द से अभिवादन करते हैं। अलख और आदेश शब्द
का अर्थ प्रणव या परम पुरुष होता है। जो नागा (दिगम्बर) है वे भभूतीधारी भी
उक्त सम्प्रदाय से ही है, इन्हें हिंदी प्रांत में बाबाजी या गोसाई समाज
का माना जाता है। इन्हें बैरागी, उदासी या वनवासी आदि सम्प्रदाय का भी माना
जाता है। नाथ साधु-संत हठयोग पर विशेष बल देते है|
--- श्री पुर्नेंद्र उपाध्याय
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