मानवीय भावनाओं में प्रेम ( ishq )का दर्ज़ा सबसे
ऊंचा बताया गया है। दुनियाभर की संस्कृतियों में जितने तरह के पंथ प्रचलित
हैं वे सभी प्रेममार्ग पर चलने की सलाह देते हैं। आमतौर पर प्रेम को
स्त्री-पुरुष के संदर्भ में ही जाना-पहचाना जाता है। अपने इस रूप में प्रेम
समाज में हमेशा अस्वीकार्य रहा है, विवाद का विषय रहा है, क्योंकि प्रेम
का दायरा अत्यंत व्यापक है। ये सारी सृष्टि प्रेमतत्व की वजह से ही जन्मी है
और इसके असर से ही कायम है। प्रेम वह रसायन है जो द्वैतभाव को मिटाकर
एकत्व के यौगिक रचता है। यह एकत्व ही सृष्टि के विस्तार का मूल भी है।
विभिन्न व्याख्याओं में यही बात उभरती है कि प्रेम वह भाव है जिसमें अपने
ईष्ट की चाह ...
प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो नहीं सकता। प्रेम में लगाव के साथ समष्टिभाव है, समभाव है ... में खुद के अस्तित्व को विस्मृत कर देना, विलीन कर देना अनिवार्य है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ने देश भर के जनमानस में प्रेम का राग पैदा कर दिया था। इस राग में सूफियाना कलामों की जुगलबंदी शामिल थी।
मनुष्य ने भी प्रेम प्रकृति से ही सीखा है। निसर्ग के कण कण में पल पल चल रहे क्रियाकलापों को उसने देखा और प्रेमतत्व का ज्ञान पाया। सूरज-चांद का उगना-अस्त होना, रात और दिन का होना, कीट-पतिंगों का फूलों और रोशनी से लगाव और लता-वल्लरियों की वृक्षों से जुगलबंदी को उसने समझा और इस तरह जाना प्रेम का अर्थ और उस की पराकाष्ठा। हिन्दी में प्रेम के अर्थ में इश्क-मोहब्बत जैसे शब्द खूब प्रचलित हैं और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग होता रहा है। ये दोनों शब्द सेमिटिक भाषा परिवार के हैं। इश्क बना है सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) से जिसमें समर्पण, लगाव,लिपटना, चाहत या प्रेम करना जैसे भाव हैं। सेम की फली से मिलती जुलती एक वल्लरी या बेल होती है जो पेड़ के तने से लिपट कर ऊपर चढ़ती है, जिसे अरबी में आशिका कहते हैं। इस इश्क के दार्शनिक अर्थ अरबी संस्कृति ने यहीं से ग्रहण किए। आशिका जिस पेड़ का आधार लेकर ऊपर बढ़ती है और फलती है,
"…इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है… "बाद में वह सूख जाता है।
मतलब यही है कि प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो ही नहीं सकता। प्रेम में समष्टिभाव है, समभाव है। दो के बीच लगाव हो सकता है, पर प्रेम की पूर्णता इसी में है कि दोनों में से कोई एक खुद को दूसरे में विलीन कर दे। आशिका से ही बना इश्क जिसके मायने हुए प्रेम। इस प्रेम में दैहिक अनुराग न होकर प्रकृति के साथ समभाव स्थापित करने की बात है।
प्रेम के मूल में प्रकृति का आधार बनना यूं ही नहीं है। आशिका नाम की जिस बेल के नाम में प्रेम के बीज छुपे हैं, अरबी में इसका एक नाम लिब्लाब है जबकि फारसी में इसे इश्क-पेचां कहते हैं। इश्क-पेचां यानी प्रेम की बेल। गौर करें, यहां लक्षणा नहीं बल्कि व्यंजना ही प्रमुख है और तात्पर्य सेमफली की बेल से ही है।
संस्कृत का वल्लरी शब्द ही हिन्दी के बेल शब्द का मूल है। बेल की प्रकृति वलय बनाते हुए ऊपर चढने की होती है। वलय यानी छल्ला, घुमाव, ऐंठन आदि। पेच का मतलब बल भी होता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि दानिशमंद आशिको-माशूक को इश्क के पेचो-ख़म से आग़ाह करते रहते हैं। क्योंकि ये इश्क नहीं आसान। ये पेच इसीलिए हैं क्योंकि प्रेम की बेल जब परवान चढ़ती है तो उसमें न जाने कितने घुमाव आते हैं। प्रेम वल्लरी वृक्ष को अपने पाश में पूरी तरह जकड़ते हुए शीर्ष की ओर बढ़ती है। तब वृक्ष को भी अपनी विशालता का गर्व नहीं रहता क्योंकि इश्क (आशिका) सिर चढ़ कर बोल रहा होता है। आखिरकार वृक्ष को अपने अस्तित्व का गुमान छोड़ना पड़ता है। भारतीय साहित्य में भी प्रेम के संदर्भ में आशिका अर्थात वल्लरी की उपमाएं हैं। प्रेम-लता, प्रेम-वल्लरी जैसे शब्द-प्रतीक महज़ यूं ही नहीं आ गए हैं। इसे अरबी प्रभाव भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान में अरबी भाषा के फैलने का समय सातवी-आठवी सदी से शुरू होता है जबकि प्रेम-लता या प्रेम-वल्लरी शब्द संस्कृत साहित्य में पहले से रहे हैं। जाहिर है प्राचीनकाल में मनुष्य का प्रकृति से गहरा तादात्म्य था और अलग-अलग समाजों में इसी वजह से विभिन्न लक्षणों के आधार पर बने शब्दों की अर्थवत्ता भी एक सी रही है। भाषा विज्ञानियों ने इश्क शब्द के भारोपीय संदर्भ भी ढूंढे हैं।भारत हो या अरब, पेड़ पर बेल के चढ़ने का अंदाज़ तो एक ही होगा!!
मीरा बाई का एक पद है- अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बीज बोई।। अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई।।
सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) ही स्थूल अर्थों में प्रेमी के लिए आशिक और प्रेमिका के लिए आशिका शब्दों का मूल है।इसी तरह माशूक और माशूका शब्द भी हैं। आशिक का अर्थ जहां प्रेमी होता है वहीं आशिक का लक्ष्य माशूका है अर्थात प्रेमपात्र के लिए माशूका सम्बोधन है। इसी तरह आशिका के लिए माशूक लक्ष्य है अर्थात प्रेमपात्र है। प्रेम में अपने लक्ष्य को पाने का प्रयत्न और उसकी प्राप्ति अनिवार्य है। सूफ़ी पंथ में इश्क के दार्शनिक अर्थ ही प्रमुख हैं जिसमें दो स्वरूप प्रमुख हैं एक इश्के-मजाज़ी यानी सांसारिक प्रेम, भौतिक प्रेम, प्राणियों से प्रेम। दूसरा, इश्के-हक़ीक़ी यानी आध्यात्मिक प्रेम, परमात्मा की भक्ति। प्रेमियों की भांति बर्ताव ही आशिकाना रुख कहलाता है जबकि प्रेमपात्र की तरह व्यवहार माशूकाना कहलाता है। प्रेमी सब कुछ निछावर करने पर आमादा रहता है फिर भी माशूक के लिए नाज़ो-अंदाज़ और नखरा दिखाना लाज़मी है क्योंकि मंजिल यूं ही हासिल नहीं होतीं। इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है।
कबीर ने अपनी बानी में प्रेम-गली की बात कही है। महान शायर इब्ने-इंशा ताउम्र चांद पर फिदा होकर कभी चांदनगर और कभी प्रेमनगर की बात करते रहे। प्रेमीजन अक्सर प्रेमनगर की कल्पना करते हैं जहां वे प्यार के नग़में गाते रहें। तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्काबाद है जिसे वहां के लोग इश्काबाद [अर्थात प्रेमनगर] से बना हुआ मानते हैं मगर भाषाविज्ञानियों और इतिहासकारों ने उनके इस खूबसूरत से भरम को तोड़त हुए साबित किया कि राजधानी का नाम अश्काबाद इश्क से नहीं बल्कि हैलेनिक दौर के शासक अर्शक (ग्रीक अर्सेसस) के नाम से बना है जो ईसा से दो सदी पहले इस क्षेत्र का शासक था।
प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो नहीं सकता। प्रेम में लगाव के साथ समष्टिभाव है, समभाव है ... में खुद के अस्तित्व को विस्मृत कर देना, विलीन कर देना अनिवार्य है। मध्यकालीन भक्ति आंदोलन ने देश भर के जनमानस में प्रेम का राग पैदा कर दिया था। इस राग में सूफियाना कलामों की जुगलबंदी शामिल थी।
मनुष्य ने भी प्रेम प्रकृति से ही सीखा है। निसर्ग के कण कण में पल पल चल रहे क्रियाकलापों को उसने देखा और प्रेमतत्व का ज्ञान पाया। सूरज-चांद का उगना-अस्त होना, रात और दिन का होना, कीट-पतिंगों का फूलों और रोशनी से लगाव और लता-वल्लरियों की वृक्षों से जुगलबंदी को उसने समझा और इस तरह जाना प्रेम का अर्थ और उस की पराकाष्ठा। हिन्दी में प्रेम के अर्थ में इश्क-मोहब्बत जैसे शब्द खूब प्रचलित हैं और प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए इनका प्रयोग होता रहा है। ये दोनों शब्द सेमिटिक भाषा परिवार के हैं। इश्क बना है सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) से जिसमें समर्पण, लगाव,लिपटना, चाहत या प्रेम करना जैसे भाव हैं। सेम की फली से मिलती जुलती एक वल्लरी या बेल होती है जो पेड़ के तने से लिपट कर ऊपर चढ़ती है, जिसे अरबी में आशिका कहते हैं। इस इश्क के दार्शनिक अर्थ अरबी संस्कृति ने यहीं से ग्रहण किए। आशिका जिस पेड़ का आधार लेकर ऊपर बढ़ती है और फलती है,
"…इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है… "बाद में वह सूख जाता है।
मतलब यही है कि प्रेम करनेवालों में द्वैतभाव हो ही नहीं सकता। प्रेम में समष्टिभाव है, समभाव है। दो के बीच लगाव हो सकता है, पर प्रेम की पूर्णता इसी में है कि दोनों में से कोई एक खुद को दूसरे में विलीन कर दे। आशिका से ही बना इश्क जिसके मायने हुए प्रेम। इस प्रेम में दैहिक अनुराग न होकर प्रकृति के साथ समभाव स्थापित करने की बात है।
प्रेम के मूल में प्रकृति का आधार बनना यूं ही नहीं है। आशिका नाम की जिस बेल के नाम में प्रेम के बीज छुपे हैं, अरबी में इसका एक नाम लिब्लाब है जबकि फारसी में इसे इश्क-पेचां कहते हैं। इश्क-पेचां यानी प्रेम की बेल। गौर करें, यहां लक्षणा नहीं बल्कि व्यंजना ही प्रमुख है और तात्पर्य सेमफली की बेल से ही है।
संस्कृत का वल्लरी शब्द ही हिन्दी के बेल शब्द का मूल है। बेल की प्रकृति वलय बनाते हुए ऊपर चढने की होती है। वलय यानी छल्ला, घुमाव, ऐंठन आदि। पेच का मतलब बल भी होता है। यह महज़ संयोग नहीं है कि दानिशमंद आशिको-माशूक को इश्क के पेचो-ख़म से आग़ाह करते रहते हैं। क्योंकि ये इश्क नहीं आसान। ये पेच इसीलिए हैं क्योंकि प्रेम की बेल जब परवान चढ़ती है तो उसमें न जाने कितने घुमाव आते हैं। प्रेम वल्लरी वृक्ष को अपने पाश में पूरी तरह जकड़ते हुए शीर्ष की ओर बढ़ती है। तब वृक्ष को भी अपनी विशालता का गर्व नहीं रहता क्योंकि इश्क (आशिका) सिर चढ़ कर बोल रहा होता है। आखिरकार वृक्ष को अपने अस्तित्व का गुमान छोड़ना पड़ता है। भारतीय साहित्य में भी प्रेम के संदर्भ में आशिका अर्थात वल्लरी की उपमाएं हैं। प्रेम-लता, प्रेम-वल्लरी जैसे शब्द-प्रतीक महज़ यूं ही नहीं आ गए हैं। इसे अरबी प्रभाव भी नहीं माना जाना चाहिए क्योंकि हिन्दुस्तान में अरबी भाषा के फैलने का समय सातवी-आठवी सदी से शुरू होता है जबकि प्रेम-लता या प्रेम-वल्लरी शब्द संस्कृत साहित्य में पहले से रहे हैं। जाहिर है प्राचीनकाल में मनुष्य का प्रकृति से गहरा तादात्म्य था और अलग-अलग समाजों में इसी वजह से विभिन्न लक्षणों के आधार पर बने शब्दों की अर्थवत्ता भी एक सी रही है। भाषा विज्ञानियों ने इश्क शब्द के भारोपीय संदर्भ भी ढूंढे हैं।भारत हो या अरब, पेड़ पर बेल के चढ़ने का अंदाज़ तो एक ही होगा!!
मीरा बाई का एक पद है- अंसुवन जल सींचि सींचि प्रेम बीज बोई।। अब तो बेल फैल गई आणंद फल होई।।
सेमिटिक धातु ‘श्क’ (shq) ही स्थूल अर्थों में प्रेमी के लिए आशिक और प्रेमिका के लिए आशिका शब्दों का मूल है।इसी तरह माशूक और माशूका शब्द भी हैं। आशिक का अर्थ जहां प्रेमी होता है वहीं आशिक का लक्ष्य माशूका है अर्थात प्रेमपात्र के लिए माशूका सम्बोधन है। इसी तरह आशिका के लिए माशूक लक्ष्य है अर्थात प्रेमपात्र है। प्रेम में अपने लक्ष्य को पाने का प्रयत्न और उसकी प्राप्ति अनिवार्य है। सूफ़ी पंथ में इश्क के दार्शनिक अर्थ ही प्रमुख हैं जिसमें दो स्वरूप प्रमुख हैं एक इश्के-मजाज़ी यानी सांसारिक प्रेम, भौतिक प्रेम, प्राणियों से प्रेम। दूसरा, इश्के-हक़ीक़ी यानी आध्यात्मिक प्रेम, परमात्मा की भक्ति। प्रेमियों की भांति बर्ताव ही आशिकाना रुख कहलाता है जबकि प्रेमपात्र की तरह व्यवहार माशूकाना कहलाता है। प्रेमी सब कुछ निछावर करने पर आमादा रहता है फिर भी माशूक के लिए नाज़ो-अंदाज़ और नखरा दिखाना लाज़मी है क्योंकि मंजिल यूं ही हासिल नहीं होतीं। इश्के-हक़ीक़ी में पथ-प्रदर्शक, ईश्वर या गुरु ही माशूक का दर्जा रखते हैं जबकि सांसारिक प्रेम का लक्ष्य सिर्फ कोई प्राणी ही होता है।
कबीर ने अपनी बानी में प्रेम-गली की बात कही है। महान शायर इब्ने-इंशा ताउम्र चांद पर फिदा होकर कभी चांदनगर और कभी प्रेमनगर की बात करते रहे। प्रेमीजन अक्सर प्रेमनगर की कल्पना करते हैं जहां वे प्यार के नग़में गाते रहें। तुर्कमेनिस्तान की राजधानी अश्काबाद है जिसे वहां के लोग इश्काबाद [अर्थात प्रेमनगर] से बना हुआ मानते हैं मगर भाषाविज्ञानियों और इतिहासकारों ने उनके इस खूबसूरत से भरम को तोड़त हुए साबित किया कि राजधानी का नाम अश्काबाद इश्क से नहीं बल्कि हैलेनिक दौर के शासक अर्शक (ग्रीक अर्सेसस) के नाम से बना है जो ईसा से दो सदी पहले इस क्षेत्र का शासक था।
--- गौरी राय
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