Wednesday, July 18, 2012

बलिदान की अद्भुत मिसाल


क्या मनुष्य जीवन में पुत्र-विछोह से बड़ी कोई व्यथा है? इस देश के इतिहास में ऐसे कुछ करुणा भरे प्रसंग है। गुरु गोविंद सिंह की पीड़ा तो इससे भी अधिक थी। माता-पिता, चारों पुत्र और अंत में स्वयं भी एक महत उद्देश्य की प्राप्ति के लिए संघर्ष करते हुए मृत्यु का वरण कर गए। तीन सौ तीन वर्ष पूर्व सन् 1704 की दिसंबर मास की कड़काती सर्दी के अंतिम दिन थे। आनंदपुर के दुर्ग को पहाड़ी राजाओं और मुगल सेनाओं ने चारों ओर से घेर लिया था। यह विशाल सेना उनसे निर्णायक युद्ध करने के लिए सितंबर 1704 में वहां आई थी। चार महीने तक खालसा सेना उसका वीरता पूर्वक सामना करती रही। अंत में शत्रु सेना ने आनंदपुर का कड़ा घेरा डाल दिया और बाहर से किसी प्रकार की सामग्री दुर्ग में न जा सके, इसका प्रबंध किया गया। धीरे-धीरे रसद की समस्या पैदा होना प्रारंभ हो गई। दुर्ग में पानी का भी अभाव हो गया। ऐसी स्थिति में चार-चार सिख पानी के लिए बाहर निकलते। घेरा डाले शत्रु सेना की टुकड़ी से दो सिख लड़ते हुए शहीद हो जाते और दो किसी प्रकार कुछ जल दुर्ग में ले आते। मुगल सैनिक और पहाड़ी राजा गुरु जी के पास यह संदेश भेज रहे थे कि यदि वह दुर्ग छोड़ दें तो उन्हे वहां से सुरक्षित निकल जाने दिया जाएगा। स्थिति ऐसी आ गई कि आनंदपुर छोड़कर निकलना अनिवार्य हो गया। वह 21-22 दिसंबर 1704 की रात्रि थी जब गुरु गोबिंद सिंह ने अपनी बची हुई सेना और परिवार सहित दुर्ग छोड़ दिया। अभी वह सरसा नदी के तट पर पहुंचे ही थे कि शत्रु सेना अपने वायदों को भुलाकर उनके पीछे आ गई। दुर्ग छोड़ते समय सभी लोगों को दो भागों में विभाजित कर दिया गया। गुरु जी की माता गुजरी, दो पत्नियों-माता सुंदरी और साहब देवा, दो छोटे पुत्र-जोरावह सिंह और फतेह सिंह तथा भाई उदय सिंह के नेतृत्व में दो सौ घुड़सवार पहले निकले। फिर अपने दो बड़े पुत्रों-अजीत सिंह और जुझार सिंह तथा चार सौ घुड़सवारों सहित गुरु गोबिंद सिंह स्वयं निकले।

गुरु गोबिंद सिंह की अगुआई वाला दल अभी सरसा नदी तक पहुंचा भी नहीं था कि सरहिंद के सूबेदार वजीर खान के नेतृत्व में मुगल सेना के एक विशाल दस्ते ने उन पर आक्रमण कर दिया। उदय सिंह ने सरसा नदी को किसी प्रकार पार करके गुरु परिवार की रक्षा की, किंतु उस बहाव में बहुत सी महत्वपूर्ण पांडुलिपियां बह गई। नदी के उस पार पहुंचने पर माता गुजरी और दोनों छोटे पुत्रों को परिवार का रसोइया गंगू अपने गांव ले गया। माता सुंदरी और माता साहब देवा को किसी प्रकार कुछ सिख अंबाला की ओर ले गए। गुरु गोबिंद सिंह और उनकी छोटी सी सेना दो ओर से शत्रु सेना से घिरी हुई थी। वे शीघ्रता से चमकोर की ओर बढ़े। वहां उन्होंने एक गढ़ी में मोर्चा बांध लिया। उनके साथ दो बड़े पुत्रों के अतिरिक्त केवल 40 सिख रह गए थे। 22 दिसंबर को शत्रु सेना ने गढ़ी पर आक्रमण करना आरंभ कर दिया। इन 40 सैनिकों ने बड़ी वीरतापूर्वक युद्ध किया। गुरु गोबिंद सिंह के बाणों की वर्षा से मुगल सेनापति नाहर खान मारा गया और ख्वाजा मुहम्मद ने गढ़ी की दीवार के नीचे छिप कर जान बचाई। उस युद्ध में गुरु गोबिंद सिंह के दो पुत्र अजीत सिंह और जुझार सिंह शत्रु सेना से युद्ध करते हुए शहीद हो गए। कैसा होगा वह दृश्य जब एक पिता ने किशोर आयु के अपने दो पुत्रों को अपनी आंखों के सामने वीरगति प्राप्त करते हुए देखा होगा? गुरु जी के पास केवल पांच सिख बचे थे-दया सिंह, धर्म सिंह, मान सिंह, संगत सिंह और संत सिंह। वे पांच सिख उनके सम्मुख आए और बोले, 'गुरुदेव, हम पांच सिख आपसे यह आग्रह करते हैं कि जो आंदोलन आपने प्रारंभ किया है उसे आगे बढ़ाने के लिए आप अपने प्राणों की रक्षा कीजिए और किसी प्रकार यहां से निकल जाइए।'
चमकौर की गढ़ी छोड़ने का निश्चय हो गया। यह भी तय हुआ कि दया सिंह, धर्म सिंह और मान सिंह गुरु जी के साथ जाएंगे। शेष दो-संगत सिंह और संत सिंह गढ़ी में रहकर शत्रु पर बाण वर्षा करते रहेगे। संत सिंह की शक्ल गुरु गोबिंद सिंह से बहुत मिलती थी। उसने उनके वस्त्र धारण कर लिए जिससे शत्रु को यह अहसास हो कि गुरु गोबिंद सिंह गढ़ी में ही है। घने अंधेरे में अपने तीन साथियों के साथ निकल कर जंगल में आकर वे अलग-अलग दिशाओं में चल दिए। माछीवाड़ा जंगल के पास के एक गांव में गुलाब नाम का एक सिख रहता था। चारों ने उसके घर में आश्रय लिया। उसी गांव में गनी खान और नबी खां नाम के दो पठान रहते थे। उन पठानों ने उनकी सहायता की। उन्हे सूफी संतों जैसी वेशभूषा दे दी और ऊंचा पीर बनाकर राय कोट के मुसलमान जमींदार के पास ले आए, जिसने उनका पूरा साथ दिया। इसी स्थान पर उन्हे अपने दोनों पुत्रों-जोरावार सिंह और फतेह सिंह (7 वर्ष) के दु:खद अंत का समाचार मिला। गंगू ने भय और इनाम के लालच में आकर यह सूचना वहां के मुगल फौजदार को दे दी। फौजदार ने उन्हे बंदी बनाकर सरहिंद के सूबेदार वजीर खान के पास भेज दिया था। 25 दिसंबर को दोनों बच्चों को दरबार में लाया गया। वजीर खान ने उनसे कहा कि उनके पिता और दोनों बड़े भाई मुगल सेना द्वारा मारे जा चुके है। यदि वे अपनी जान बचाना चाहते है तो वे अपना धर्म बदल लें।
दोनों साहबजादों ने इस प्रस्ताव को ठुकरा दिया। उन्हे बहुत से लालच भी दिए गए और मृत्यु का भय भी दिखाया गया, किंतु वे निश्चय पर अडिग रहे। वजीर खान ने उन्हे दीवार में जिंदा चुनवा देने का आदेश दे दिया। पहले उन्हे कंधों तक दीवार में चुना गया। इससे भी वे भयभीत नहीं हुए तो उनके सिर काट दिए गए। माता गुजरी ने इस शोक में प्राण त्याग दिए। गुरु गोबिंद सिंह के चारों पुत्र शहीद हो चुके थे। उन्होंने दीना कांगड़ नामक स्थान से एक पत्र उस समय अहमदनगर में रह रहे औरंगजेब को लिखा था कि मेरे चारों पुत्रों ने धर्म का सौदा नहीं किया अपने प्राण दे दिए। इनकी मुझे चिंता नहीं है, क्योंकि खालसा रूपी जिस शक्ति को मैंने सृजित किया है वह जीवित है।

--- गौरी राय

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