१. व्रत आरंभ करनेसे पहले एवं व्रतकालमें पालनयोग्य नियम
शुभदिन देखना :
सामान्यतः दिनशुद्धि एवं ग्रहोंकी विशिष्ट स्थिति देखकर अर्थात शुभदिन
देखकर ही कोई भी व्रत आरंभ कीजिए । अशौच हो अथवा वार, नक्षत्र, योग
प्रतिकूल हों, तो व्रत आरंभ नहीं करना चाहिए । व्रत आरंभ करनेसे एक दिन
पूर्व ही शौचस्नानादि नित्यकर्मके उपरांत व्रतका पूर्वायोजन प्रारंभ करना
चाहिए । उस दिन एक ही बार भोजन करना चाहिए ।
२. व्रतविधान अर्थात व्रतपद्धति
व्रतारंभ :
व्रतके दिन सूर्योदयसे दो घटिका अर्थात ४८ मिनट पूर्व जागकर, प्रातर्विधि
एवं स्नानादि कृत्य पूर्ण करने चाहिए । उसके उपरांत सुबह कुछ भी आहार लिए
बिना सूर्यदेवता एवं व्रतदेवताको प्रार्थनापूर्वक अपनी मनोकामना बताकर
व्रतका प्रारंभ करना चाहिए ।
संकल्प :
प्रारंभमें उत्तर दिशामें मुंह कर जलसे भरा तांबेका कलश हाथमें लेकर
व्रतका संकल्प कीजिए । इसका कारण यह है कि उत्तर दिशा आध्यात्मिक उन्नतिके
लिए पोषक दिशा है ।
३. संकल्पका महत्त्व
व्रतके
आरंभ एवं अंतमें संकल्प करना चाहिए; अन्यथा व्रत निष्फल होता है । देवता
हमें सबकुछ दे सकते हैं । तत्पश्चात भी जिस उद्देश्यसे व्रत रख रहे हैं,
उसका उच्चारण संकल्पस्वरूप न किया जाए तो देवता व्रतका फल क्या देंगे ?
जैसे सोलह सोमवार व्रत मोक्ष एवं पुत्र, दोनोंकी प्राप्ति करवाता है ।
संकल्प
करनेसे यजमानका कार्य समाप्त नहीं हो जाता । ‘विधि पूर्ण होनेतक वह योग्य
ढंगसे हो रही है अथवा नहीं’, तथा उसे पूर्ण कब करना है, इस बातपर ध्यान
देना भी उसका कर्तव्य है ।
४. पूजा एवं होम
व्रतके
अंतर्गत गणपति, मातृदेवता तथा पंचदेवताका स्मरणपूर्वक पूजन कीजिए ।
व्रतदेवताकी स्वर्णप्रतिमा बनाकर, यथाशक्ति पंचोपचार अथवा षोडशोपचार पूजन
कीजिए । जिस मास, पक्ष, तिथि, वार अथवा नक्षत्रका व्रत हो, उसके अधिष्ठाता
उस व्रतके देवता होते हैं, जैसे तिथिमें प्रतिपदाके – अग्नि; द्वितीयाके –
ब्रह्मा; तृतीयाकी - गौरी इत्यादि । उसी प्रकार नक्षत्रमें अश्विनीके –
अश्विनीकुमार; भरणी नक्षत्रके – यम; कृत्तिका नक्षत्रके - अग्नि इत्यादि
तथा दिनोंके सूर्य, सोम एवं भौम इत्यादि अधिष्ठाता देवता होते हैं । व्रतके
अधिष्ठाता देवताका संकल्पपूर्वक पूजन करना अनिवार्य है ।
५. पारण
व्रतसमाप्तिपर
उपवास तोडनेके पश्चात ग्रहण करनेवाले भोजनको ही पारण कहते हैं । यह भोजन
मिष्टान्न होना चाहिए । देवताको महानैवेद्य समर्पित कर इसका सेवन करना
चाहिए । जैसे एकादशीपर उपवास करनेके उपरांत द्वादशीपर पारण करना ही चाहिए ।
उस दिन उपवास नहीं रखना चाहिए । उपवास रखनेसे पाप लगता है ।
६. व्रतका उद्यापन
व्रत
पूर्ण होनेके उपरांत उसकी पूर्तिके लिए जप, होम, पूजा इत्यादि किए जाते
हैं । इस विधिको ‘उद्यापन’ कहते हैं । अधिकतर व्रत काम्य अर्थात सकाम होते
हैं । मनुष्य इसका आचरण किसी उद्देश्यसे करते हैं । व्रतका आचरण
अपेक्षानुसार हो तो व्रत करनेवालेको अत्यधिक समाधान प्राप्त होते हैं । उस
समाधानका प्रतीक है, व्रतका उद्यापन पर्यायस्वरूप ‘व्रतका समापन’ । व्रतके
नियमोंका यथाविधि पालन होनेपर उसकी समाप्ति उपरांत अपनी शक्तिनुसार
व्रतका उद्यापन कीजिए । उद्यापन किए बिना व्रतकी पूर्ति नहीं होती; व्रत
निष्फल होता है । व्रतका उद्यापन कैसे करना चाहिए, इसकी जानकारी उस
व्रतांतर्गत दी हुई होती है । इतनी विस्तृत एवं लाभदायी जानकारी हिंदु
धर्मकी महानता उजागर करती है ।
७. उद्देश्यानुसार कौनसे व्रतोंका आचरण करना चाहिए
हमारे
कारण यदि किसीको पीडा हुई हो तो उसके निवारणार्थ उपवास, एक भुक्त रहना
इत्यादि कायिक अर्थात शारीरिक व्रत करने चाहिए । किसीसे हमारा वैरभाव हो
तो मौन, सत्य, मृदु भाषण इत्यदि वाचिक व्रतोंका आचरण करना चाहिए । शांति
एवं समाधान प्राप्त करने हेतु अहिंसा, सत्य, ब्रह्मचर्य एवं आर्जव अर्थात
स्वयंमें नम्रता लाना इत्यादि मानसिक व्रतोंको अंगीकार करना चाहिए ।
(संदर्भ : सनातनका ग्रंथ-त्यौहार, धार्मिक उत्सव एवं व्रत)
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