वस्तुनिष्ट आनन्द(( objective happiness )) मे निहित दुःख और चुभन ही
विषाद है ..विषाद अर्थात खिन्नता , उद्विग्नता और अनुत्साह .....((अज्ञान , अहंकार , अविद्या , अभूति , कुविद्या , आलस्य और चांचल्य के सम्मिश्रण से बना रसायन ही विषाद कहलाता है ))..ऐसे विषाद के आने से स्वधर्मपरांगमुखता और किंकर्तव्यविमुखता आती है ..
पर यह भी सत्य है कि विकास के मूल मे विषाद का होना आवश्यक है ..बिना विषाद के मानव मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख नहीं हो सकता (( क्योकि मोक्ष की निषेधात्मक अर्थ ही है ..दुःख निवृति ))
विषाद के कारण ही मानव मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होता है... जब मानव को वस्तुनिष्ट आनंद मे रही हुई क्षणिकता , दीनता और परतंत्रता अत्यंत बुरी लगने लगती है ..और आत्मरति (( अर्थात अपने अन्तस्थ स्व का आनन्द लूटने और उस ओर प्रवृत होने का मन होना )) , आत्मतुष्टि और आत्म्पुष्टि रुचने लगती है ..तब मानव मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है ..
भक्ति के लिए भी विषाद उपयोगी है ..जब हमारी शक्ति शून्य होती है / लगती है तभी हम दूसरों को सहायता के लिए बुलाते हैं ...दूसरे पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जितना मै व्याधिग्रस्त हूँ उतना ही हमारा पड़ोसी भी है ..अतः आत्यंतिक दुःख से हमें उबारने वाला हमें एक मात्र भगवान ही दीखते हैं ..एक मात्र स्वस्थ एवँ निरोग अतः भक्ति का तात्पर्य है उस दूसरे (( भगवान से )) से सहायता लेना ...तात्विक दृष्टि से दूसरा भगवान है ..अतः भक्त अर्थात जो भगवान से विभक्त नहीं है ...भगवान से चिपक कर बैठा है ..भगवान से संलग्न है (( भक्ति का प्रारम्भ यही से होता है ))
मै अपूर्ण हूँ यही से भक्ति की शुरुवात होती है ( यही भक्ति की पहली सीढ़ी है )..दूसरा है भगवान के पास शक्ति/ क्षमता है ..वह पूर्ण है और भगवान से जुडना भक्ति की तीसरी सीढ़ी है ..(( अतः भक्ति की शुरुवात भी विषाद / शोक से ही होती है ))
विषाद अर्थ संकुल शब्द है ..इसमें विभिन्न भाव विद्यमान होते हैं अज्ञान , अहंकार , अविद्या , अभूति , कुविद्या , आलस्य ,चांचल्य....आदि विषद के आने परपौरुषहीनता आती है (( अब क्या हो सकता है ?? ..अब क्या फायदा ..?? मानव के करने से कुछ नहीं होता है..हीनता का भाव ..आदि आदि भाव ))विश्व मे भगवान जैसी कोई चीज नहीं है ..कही अकाल है ..कही भूकंप है ...कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि ..कहीं बाढ़ कहीं सूखा ....कोई व्यवस्था नहीं है ..((ऐसे भाव आते हैं)) मै दीन हीन त्याज्य तिरस्करनीय हूँ ..आदि ग्रंथियों का निर्माण विषाद के रसायनों के प्रभाव से होता है .. गीता विषाद के विभिन्न भावों के लिए औषधि स्वरुप है (( गीता के विभिन्न अध्याय विषाद मे विद्यमान अलग अलग भावों के लिए वैद्य योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त अलग अलग औषधि स्वरुप है ))पौरुषहीनता के विरुद्ध पुरुषोत्तम योग ( अध्याय १५ )अभूति के विरुद्ध विभूति योग ( अध्याय १० )आसुरी सम्पद के विरुद्ध दैवी सम्पद योग ( अध्याय १७ )बंधन के विरुद्ध मोक्ष योग ( अध्याय १८ )आलस्य के विरुद्ध कर्म योग ( अध्याय ३ )अज्ञान के विरुद्ध ज्ञान योग ( अध्याय ७ )चंचलता के विरुद्ध ध्यान योग ( अध्याय ६ )अविद्या के विरुद्ध राज विद्या राज गुह्य योग ( अध्याय ९).....आदि अतः गीता मानव मात्र के आत्यंतिक दुःख निवारण की सम्पूर्ण औसधि है ..दुःख पीड़ित आर्त मानव को इसकी शरण मे जाना ही समाधान है
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
पर यह भी सत्य है कि विकास के मूल मे विषाद का होना आवश्यक है ..बिना विषाद के मानव मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख नहीं हो सकता (( क्योकि मोक्ष की निषेधात्मक अर्थ ही है ..दुःख निवृति ))
विषाद के कारण ही मानव मोक्ष प्राप्ति की ओर उन्मुख होता है... जब मानव को वस्तुनिष्ट आनंद मे रही हुई क्षणिकता , दीनता और परतंत्रता अत्यंत बुरी लगने लगती है ..और आत्मरति (( अर्थात अपने अन्तस्थ स्व का आनन्द लूटने और उस ओर प्रवृत होने का मन होना )) , आत्मतुष्टि और आत्म्पुष्टि रुचने लगती है ..तब मानव मोक्ष मार्ग की ओर प्रवृत्त होता है ..
भक्ति के लिए भी विषाद उपयोगी है ..जब हमारी शक्ति शून्य होती है / लगती है तभी हम दूसरों को सहायता के लिए बुलाते हैं ...दूसरे पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जितना मै व्याधिग्रस्त हूँ उतना ही हमारा पड़ोसी भी है ..अतः आत्यंतिक दुःख से हमें उबारने वाला हमें एक मात्र भगवान ही दीखते हैं ..एक मात्र स्वस्थ एवँ निरोग अतः भक्ति का तात्पर्य है उस दूसरे (( भगवान से )) से सहायता लेना ...तात्विक दृष्टि से दूसरा भगवान है ..अतः भक्त अर्थात जो भगवान से विभक्त नहीं है ...भगवान से चिपक कर बैठा है ..भगवान से संलग्न है (( भक्ति का प्रारम्भ यही से होता है ))
मै अपूर्ण हूँ यही से भक्ति की शुरुवात होती है ( यही भक्ति की पहली सीढ़ी है )..दूसरा है भगवान के पास शक्ति/ क्षमता है ..वह पूर्ण है और भगवान से जुडना भक्ति की तीसरी सीढ़ी है ..(( अतः भक्ति की शुरुवात भी विषाद / शोक से ही होती है ))
विषाद अर्थ संकुल शब्द है ..इसमें विभिन्न भाव विद्यमान होते हैं अज्ञान , अहंकार , अविद्या , अभूति , कुविद्या , आलस्य ,चांचल्य....आदि विषद के आने परपौरुषहीनता आती है (( अब क्या हो सकता है ?? ..अब क्या फायदा ..?? मानव के करने से कुछ नहीं होता है..हीनता का भाव ..आदि आदि भाव ))विश्व मे भगवान जैसी कोई चीज नहीं है ..कही अकाल है ..कही भूकंप है ...कहीं अतिवृष्टि कहीं अनावृष्टि ..कहीं बाढ़ कहीं सूखा ....कोई व्यवस्था नहीं है ..((ऐसे भाव आते हैं)) मै दीन हीन त्याज्य तिरस्करनीय हूँ ..आदि ग्रंथियों का निर्माण विषाद के रसायनों के प्रभाव से होता है .. गीता विषाद के विभिन्न भावों के लिए औषधि स्वरुप है (( गीता के विभिन्न अध्याय विषाद मे विद्यमान अलग अलग भावों के लिए वैद्य योगेश्वर श्री कृष्ण द्वारा प्रदत्त अलग अलग औषधि स्वरुप है ))पौरुषहीनता के विरुद्ध पुरुषोत्तम योग ( अध्याय १५ )अभूति के विरुद्ध विभूति योग ( अध्याय १० )आसुरी सम्पद के विरुद्ध दैवी सम्पद योग ( अध्याय १७ )बंधन के विरुद्ध मोक्ष योग ( अध्याय १८ )आलस्य के विरुद्ध कर्म योग ( अध्याय ३ )अज्ञान के विरुद्ध ज्ञान योग ( अध्याय ७ )चंचलता के विरुद्ध ध्यान योग ( अध्याय ६ )अविद्या के विरुद्ध राज विद्या राज गुह्य योग ( अध्याय ९).....आदि अतः गीता मानव मात्र के आत्यंतिक दुःख निवारण की सम्पूर्ण औसधि है ..दुःख पीड़ित आर्त मानव को इसकी शरण मे जाना ही समाधान है
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
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