कुण्डलिनी
जागरण हम सब जानते है की हमारे शरीर में " इडा " जो चन्द्र का प्रतीक माना
जाता है " पिंगला " जो सूर्य का प्रतीक माना जाता है और " सुषुम्ना " जो
चन्द्र और सूर्य में समभाव करती है , ऐसा माना जाता है । जो क्रम अनुसार
दक्षिण शक्ति , वाम शक्ति और मध्य शक्ति के रूप में ऐसा योगी जन जानते हैं ।
और इन शक्तियों का त्रिकोण रूप में जो आधार विन्दु है वह शिव है पर ये
विन्दु सिर्फ खोल देने से शिव रूप नहीं ले
लेता इसके लिये तीनो त्रिकोणिय शक्तियों को जागृत होना पड़ता है अर्थात्
शिव तभी अपने चरम रूप में जाग्रत होते हैं जब तीनों शक्तियाँ जो आदिशक्ति
माँ काली , माँ तारा और माँ राजराजेश्वरी के रूप में है जो जागती है
क्योंकि शक्ति के बिना शिव अधुरे हैं , माँ काली की जाग्रत अवस्था में शिव
या विंदु के शिवमय होने की प्रथम स्थिति है । पर इस वक्त शिव शव अर्थात्
क्रिया हीन रहते हैं , माँ तारा के जाग जाने से शिव अपने श्वत्व में चरम
रूप में होते हैं और राजराजेश्वरी माँ के जागने से शिव का श्वत्व तो भंग हो
जाता है पर वो निद्रा में चले जाते हैं पर एक साधक के लिये ये पूरी
प्रक्रिया कुण्डलिनी जागरण ही होती है क्योंकि इसमें भी नाभि कुण्ड में
स्थापित कमलासन खुलता है पर राजराजेश्वरी माँ भगवती उसमें विराजमान नहीं
होती वो विराजमान होती है गुरुकृपा से और जब गुरु की कृपा दीक्षा या
शक्तिपात से प्राप्त हो जाती है तो स्थिति बनती है आनन्द की , विज्ञान की
और फिर सत्य की , जिसे योगी अपनी भाषा में * खण्ड , *अखण्ड और * महाखण्ड की
अवस्थिति में वर्णित करते हैं । जहाँ हममें हमारे देह में कोई भेद नहीं
होता वो मैं और मैं वो बन जाता है
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