सगुन-निर्गुण का भेद मिटाने वाली है ‘नाम
महिमा ‘..भगवान के अनेकानेक गुणों के अनुसार नाम कल्पना करके रूचि आवश्यकता
व अवस्था के अनुसार उस नाम का जप चिंतन मनन या उनके सभी नामों का जप करने
की परंपरा लगभग सभी धर्मों मे हि है ..दुनिया भर के सभी संतों ने ( नानक
,ज्ञानदेव, तुलसीदास, चैतन्य, तुकाराम, नरसी मेहता आदि ) प्रभु नाम महिमा
गाई है ..
वेदों मे नाम महिमा : >> सारे वेदों का सार परमेश्वर नाम हि है उपनिषद ( कठोपनिषद) कहते हैं “सर्वे वेदा यत पदं आमनन्ति”...अर्थात ”सारे वेद ईश्वर के हि नाम का आमनन करते हैं” इसी से वेद को आम्नाय अर्थात परमेश्वर के नाम का आमनन करने वाला यह संज्ञा भी मिली है . आमनन अर्थात ‘विस्तृत मनन ‘ >> मर्ता अमर्त्यस्य ते भूरि नाम मनामहे विप्रासो जातवेदस ( ऋगवेद ८-११ ) अर्थात “हे परमेश्वर , हम मरण धर्मी हैं तू अमृत स्वरुप है हम ज्ञान के उत्सुक हैं तू जानने वाला ज्ञान मय है हम ( अल्प ) तेरे विशाल नाम का मनन करते हैं “ ( यहाँ नाम- मनन का जिक्र है..नाम उच्चारण सिर्फ-वाणी की अपेक्षा ह्रदय से हो इसकी महत्ता अधिक है ) नाम लेना सिर्फ वाह्य क्रिया नहीं अंतः शोधन का साधन है .
नाम शब्द का अर्थ : नाम शब्द नम् धातु से बना है , जिससे नम्रता या नमस्कार साधित होता है ..
>> भक्त को नाम असत्य से सत्य मे ले जाएगा , इससे भी ज्यादा वह उसे नम्र बनाएगा . नम्रता के बिना सत्य शोधन नहीं हो सकता ( सारे महान वैज्ञानिक इसी कारण नम्र होते हैं ) नम्रता के बिना चित्त शोधन नहीं हो सकता ( सारे आध्यात्मिक इसी कारण नम्र होते हैं ) >> ईश्वर को ‘नम्रता की प्रतिमूर्ति’ कहते हुए उपनिषद मे भी कहा गया है तत् नम् इत्युपासीत नम्यन्ते अस्मै कामाः उसकी नम्रता के रूप मे उपासना करनी चाहिए . जो इस तरह उपासना करेगा , उसके सामने सब कामनाओं को झुकना पड़ेगा , अर्थात वह सर्वथा निर्विकार बनेगा . >> ऋगवेद मे ‘नम्रता मूर्ती’ ऐसा ईश्वर को बताने वाला एक वाक्य है .. नम् इत् उग्रं नम् आ विवासे नमो दाधार पृथिवीं उत् द्याम ( ऋगवेद संहिता ) नम्रता ही ऊँची है . मै नम्रता की उपासना करता हूँ . नम्रता ने पृथ्वी और स्वर्ग को धारण किया है . ( आखिरी वाक्य से स्पष्ट है कि यहाँ नम्रता परमेश्वर की संज्ञा है ) वेदों मे कहा है तेरे सख्य को कोई टाल नहीं सकता , क्योकि जो गाय चाहता है उसके सामने तू गाय बन कर खड़ा होता है और जो घोडा चाहता है उसके सामने तू घोडा .. गोरसि गव्यते , अश्वो अश्वायते भव ( ऋगवेद ६/ ४५ )
>> ‘बापू’ महात्मा गाँधी ने ईश्वर की नम्रता का वर्णन् करते हुए ‘ दीन भंगी की हीन कुटीया का निवासी’ कहकर संबोधित किया है .
>> गीता ( ४ -३४ ) मे तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः मे प्रणिपात शब्द का अर्थ भी नमस्कार करना है . नमस्कार का अर्थ है ..”मै अपना मस्तक आपको सौपता हूँ , मेरे लिए आपका निर्णय सच्चा “‘ ( व्यावहारिक नमस्कार और नाम जप के नमस्कार मे बहुत बड़ा अंतर है ) मस्तक झुका कर नमस्कार करने का अर्थ है ..’यह सिर मेरा नहीं है आपका है’ विवेक चूडामणि मे आचार्य शंकर कहते हैं .. स्वामिन्नमस्ते नतलोकबंधो कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ । मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या ॥३५॥ शरण मे आये लोगों के लिए बंधू के समान हे करुणासागर स्वामी ! मै आपको नमस्कार करता हूँ . आप अपनी सरल और अति करुणामय अमृत वृष्टि करने वाली दृष्टि से मुझ भवसागर मे डूबने वाले का उद्धार करो . यहाँ नमस्कार किसे करना जो करुणासागर , विश्व बंधू हो स्वामी हो अर्थात भगवान हो या ज्ञानी गुरु हो का भाव भी स्पष्ट है . >> नमस्कार अर्थात इन्द्रीय मन व बुद्धि की विनम्रता अर्जुन गीता अध्याय ११ मे पिताहमस्य जगतो...आदि श्लोको के माध्यम से भगवान को नमस्कार करता है ..नमो पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते... भगवान की महानता और हमारी सामान्यता का ज्ञान होने पर इन्द्रियाँ झुकती हैं ..उसे दीनता कहते हैं भगवान ! आप हि महान हैं हम आप तक नहीं पहुच सकते , आपके चरणों की धूलि के बराबर भी मेरी योग्यता नहीं है ऐसी भावना अंतः करण मे निर्माण होने पर इन्द्रियाँ झुकती हैं ..परन्तु मन नम्र नहीं होता उसे हीनता कहते हैं असामान्य होने पर भे मुझ जैसे सामान्य का आश्रय लेकर खड़े हैं , यह जब समझमे आता है , तब मन नम्र होता है . आप महान हैं यह आपकी शक्ति है पर आप मेरे लिए सामान्य हुए हैं यह आपकी कला/ माया है ..शक्ति व माया का ज्ञान होने पर जब मन नम्र होता है तो उसको लीनता कहते हैं . उसके बाद ध्यान मे आता है भगवान ! मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए, आप पूर्णकाम होते हुए भी आसक्त होकर आसक्ति प्रकट करते हैं . मुझसे आपकी जरूर कुछ ना कुछ अपेक्षा है ..ऐसा जब बुद्धि मे उतरता है तो वह झुकती है उसे नम्रता कहते है..जहाँ इन्द्रीय , मन बुद्धि सब एक होकर नम्रता रूप भाव अनुभव से झुकते हैं ..वह सच्चे अर्थ मे नम्रता है .. ज्ञान होने पर तुष्यन्ति च रमन्ति च का भाव / स्थिति आती है वह नम्रता है
अतः नाम जप इन्द्रीय मन व बुद्धि को एक करके भगवान मय होने के लिए है ..हनुमान जी ने इन तीनो को एक किया था अतः वो राम का काम भी कर सके नाम जपते हुए . नाम जप का सम्बन्ध नाम व उसके पीछे निहित गुणों के मनन चिंतन से है नाम जपने का अर्थ है उस माहन शक्ति के आगे झुकना ..मन बुद्धि की विनम्रता की धारणा नाम जपने का अर्थ है उस सत्ता को और उस सत्ता के बारे मे बताने वाले को नमन करना ..के प्रति कृतज्ञ होना
ऐसी मान्यता है कि जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी ने सर्वप्रथम विष्णुसहस्त्र नाम पर हि भाष्य लिखा था ...
इस पर एक दिलचश्प आख्यायिका है ..वे शास्त्र मे से किसी ना किसी वचन का मनन पाटिया पर लिख लेते थे , लेकिन वह टिकता नहीं था . माँ सरस्वती उस लेखन को अपने हाथ से मिटा देती थी ..आखिर उन्होंने विष्णु सहस्त्रनाम का मनन लिखना आरम्भ किया , तो उसे माँ सरस्वती ने नहीं मिटाया ..
( मेरे विचार से भले हि सारे शास्त्र या सारे लेखन मिट जाएँ पर परमेश्वर का नाम और उस नाम का चिंतन मनन करने वाली बुद्धि को नहीं मिटाया जा सकता ...ऐसा सतत होने पर एक आध मनुष्य को उसकी अपरोक्षानुभूति पुनः हो जायेगी और शास्त्र भी पुनः प्रगट हो जायेंगे )
आराध्य के नाम जप से तीन प्रकार की मुक्तियाँ आसानी से होती जाती हैं
१. भय मुक्ति
२. विकार मुक्ति
३. रोग मुक्ति
कोई मेरे साथ हो ना हो मेरे भगवान मेरे साथ हैं मेरे ह्रदय मे विद्यमान है ..ऐसी समझ नाम जप से आकर भय से मुक्त कर देता है ..दुनिया मे महान से महान कार्य करने वाले महापुरुषों का जीवन अगर देखते हैं ..तो उनके जीवन मे दृढ संकल्प , विपरीत परिस्थितियों मे भी कार्य करने की क्षमता , initiative लेना तथा प्राणों का मोह भी अपनी बुद्धिप्रामान्यता के कारण ना करना ये सभी गुन भय मुक्ति के संकेत है ...
मुह मे अपने ईश्वर का नाम और हाथ मे चाकू लेकर मानवता पर कलंक बने कुछ धर्म विशेष के लोग सही अर्थ मे ईश्वर का नाम लेने वाले नहीं हो सकते ..
जो स्वयं को निर्भय करे और दूसरों को त्राण दिलाए ..उन्हें भी निर्भय बनाए ऐसा चमत्कार होता है ..आराध्य के नाम के प्रभाव से
निर्विकारिता लाने के कई उपायों मे प्रभु नाम जप करना उन पर ध्यान लगाना एक प्रमुख उपाय है (( उदाहरणतः - ब्रम्हचर्य सिद्धि के लिए प्रमुख उपाय मनोवैज्ञानिक माना जाता है और वह है धार्मिक कार्यों मे रूचि ..)) चित्त शुद्धि का सम्बन्ध नाम स्मरण से है हि ..क्योकि इससे चित्त एकाग्र होता है ..
निर्विकारी होने का सम्बन्ध रोग मुक्ति से है . चरक का कथन है 'मनुष्य अगर संयम से रहे तो उसकी आयु सौ वर्ष तो होगा हि पर वह संयम से नहीं रहता इस लिए बीमार एवं शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है '
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
वेदों मे नाम महिमा : >> सारे वेदों का सार परमेश्वर नाम हि है उपनिषद ( कठोपनिषद) कहते हैं “सर्वे वेदा यत पदं आमनन्ति”...अर्थात ”सारे वेद ईश्वर के हि नाम का आमनन करते हैं” इसी से वेद को आम्नाय अर्थात परमेश्वर के नाम का आमनन करने वाला यह संज्ञा भी मिली है . आमनन अर्थात ‘विस्तृत मनन ‘ >> मर्ता अमर्त्यस्य ते भूरि नाम मनामहे विप्रासो जातवेदस ( ऋगवेद ८-११ ) अर्थात “हे परमेश्वर , हम मरण धर्मी हैं तू अमृत स्वरुप है हम ज्ञान के उत्सुक हैं तू जानने वाला ज्ञान मय है हम ( अल्प ) तेरे विशाल नाम का मनन करते हैं “ ( यहाँ नाम- मनन का जिक्र है..नाम उच्चारण सिर्फ-वाणी की अपेक्षा ह्रदय से हो इसकी महत्ता अधिक है ) नाम लेना सिर्फ वाह्य क्रिया नहीं अंतः शोधन का साधन है .
नाम शब्द का अर्थ : नाम शब्द नम् धातु से बना है , जिससे नम्रता या नमस्कार साधित होता है ..
>> भक्त को नाम असत्य से सत्य मे ले जाएगा , इससे भी ज्यादा वह उसे नम्र बनाएगा . नम्रता के बिना सत्य शोधन नहीं हो सकता ( सारे महान वैज्ञानिक इसी कारण नम्र होते हैं ) नम्रता के बिना चित्त शोधन नहीं हो सकता ( सारे आध्यात्मिक इसी कारण नम्र होते हैं ) >> ईश्वर को ‘नम्रता की प्रतिमूर्ति’ कहते हुए उपनिषद मे भी कहा गया है तत् नम् इत्युपासीत नम्यन्ते अस्मै कामाः उसकी नम्रता के रूप मे उपासना करनी चाहिए . जो इस तरह उपासना करेगा , उसके सामने सब कामनाओं को झुकना पड़ेगा , अर्थात वह सर्वथा निर्विकार बनेगा . >> ऋगवेद मे ‘नम्रता मूर्ती’ ऐसा ईश्वर को बताने वाला एक वाक्य है .. नम् इत् उग्रं नम् आ विवासे नमो दाधार पृथिवीं उत् द्याम ( ऋगवेद संहिता ) नम्रता ही ऊँची है . मै नम्रता की उपासना करता हूँ . नम्रता ने पृथ्वी और स्वर्ग को धारण किया है . ( आखिरी वाक्य से स्पष्ट है कि यहाँ नम्रता परमेश्वर की संज्ञा है ) वेदों मे कहा है तेरे सख्य को कोई टाल नहीं सकता , क्योकि जो गाय चाहता है उसके सामने तू गाय बन कर खड़ा होता है और जो घोडा चाहता है उसके सामने तू घोडा .. गोरसि गव्यते , अश्वो अश्वायते भव ( ऋगवेद ६/ ४५ )
>> ‘बापू’ महात्मा गाँधी ने ईश्वर की नम्रता का वर्णन् करते हुए ‘ दीन भंगी की हीन कुटीया का निवासी’ कहकर संबोधित किया है .
>> गीता ( ४ -३४ ) मे तद्विद्धि प्रणिपातेन परिप्रश्नेन सेवया उपदेक्ष्यन्ति ते ज्ञानं ज्ञानिनस्तत्त्वदर्शिनः मे प्रणिपात शब्द का अर्थ भी नमस्कार करना है . नमस्कार का अर्थ है ..”मै अपना मस्तक आपको सौपता हूँ , मेरे लिए आपका निर्णय सच्चा “‘ ( व्यावहारिक नमस्कार और नाम जप के नमस्कार मे बहुत बड़ा अंतर है ) मस्तक झुका कर नमस्कार करने का अर्थ है ..’यह सिर मेरा नहीं है आपका है’ विवेक चूडामणि मे आचार्य शंकर कहते हैं .. स्वामिन्नमस्ते नतलोकबंधो कारुण्यसिन्धो पतितं भवाब्धौ । मामुद्धरात्मीयकटाक्षदृष्ट्या ऋज्व्यातिकारुण्यसुधाभिवृष्ट्या ॥३५॥ शरण मे आये लोगों के लिए बंधू के समान हे करुणासागर स्वामी ! मै आपको नमस्कार करता हूँ . आप अपनी सरल और अति करुणामय अमृत वृष्टि करने वाली दृष्टि से मुझ भवसागर मे डूबने वाले का उद्धार करो . यहाँ नमस्कार किसे करना जो करुणासागर , विश्व बंधू हो स्वामी हो अर्थात भगवान हो या ज्ञानी गुरु हो का भाव भी स्पष्ट है . >> नमस्कार अर्थात इन्द्रीय मन व बुद्धि की विनम्रता अर्जुन गीता अध्याय ११ मे पिताहमस्य जगतो...आदि श्लोको के माध्यम से भगवान को नमस्कार करता है ..नमो पुरस्तादथ पृष्ठतस्ते... भगवान की महानता और हमारी सामान्यता का ज्ञान होने पर इन्द्रियाँ झुकती हैं ..उसे दीनता कहते हैं भगवान ! आप हि महान हैं हम आप तक नहीं पहुच सकते , आपके चरणों की धूलि के बराबर भी मेरी योग्यता नहीं है ऐसी भावना अंतः करण मे निर्माण होने पर इन्द्रियाँ झुकती हैं ..परन्तु मन नम्र नहीं होता उसे हीनता कहते हैं असामान्य होने पर भे मुझ जैसे सामान्य का आश्रय लेकर खड़े हैं , यह जब समझमे आता है , तब मन नम्र होता है . आप महान हैं यह आपकी शक्ति है पर आप मेरे लिए सामान्य हुए हैं यह आपकी कला/ माया है ..शक्ति व माया का ज्ञान होने पर जब मन नम्र होता है तो उसको लीनता कहते हैं . उसके बाद ध्यान मे आता है भगवान ! मेरे जैसे सामान्य व्यक्ति के लिए, आप पूर्णकाम होते हुए भी आसक्त होकर आसक्ति प्रकट करते हैं . मुझसे आपकी जरूर कुछ ना कुछ अपेक्षा है ..ऐसा जब बुद्धि मे उतरता है तो वह झुकती है उसे नम्रता कहते है..जहाँ इन्द्रीय , मन बुद्धि सब एक होकर नम्रता रूप भाव अनुभव से झुकते हैं ..वह सच्चे अर्थ मे नम्रता है .. ज्ञान होने पर तुष्यन्ति च रमन्ति च का भाव / स्थिति आती है वह नम्रता है
अतः नाम जप इन्द्रीय मन व बुद्धि को एक करके भगवान मय होने के लिए है ..हनुमान जी ने इन तीनो को एक किया था अतः वो राम का काम भी कर सके नाम जपते हुए . नाम जप का सम्बन्ध नाम व उसके पीछे निहित गुणों के मनन चिंतन से है नाम जपने का अर्थ है उस माहन शक्ति के आगे झुकना ..मन बुद्धि की विनम्रता की धारणा नाम जपने का अर्थ है उस सत्ता को और उस सत्ता के बारे मे बताने वाले को नमन करना ..के प्रति कृतज्ञ होना
ऐसी मान्यता है कि जगतगुरु आद्य शंकराचार्य जी ने सर्वप्रथम विष्णुसहस्त्र नाम पर हि भाष्य लिखा था ...
इस पर एक दिलचश्प आख्यायिका है ..वे शास्त्र मे से किसी ना किसी वचन का मनन पाटिया पर लिख लेते थे , लेकिन वह टिकता नहीं था . माँ सरस्वती उस लेखन को अपने हाथ से मिटा देती थी ..आखिर उन्होंने विष्णु सहस्त्रनाम का मनन लिखना आरम्भ किया , तो उसे माँ सरस्वती ने नहीं मिटाया ..
( मेरे विचार से भले हि सारे शास्त्र या सारे लेखन मिट जाएँ पर परमेश्वर का नाम और उस नाम का चिंतन मनन करने वाली बुद्धि को नहीं मिटाया जा सकता ...ऐसा सतत होने पर एक आध मनुष्य को उसकी अपरोक्षानुभूति पुनः हो जायेगी और शास्त्र भी पुनः प्रगट हो जायेंगे )
आराध्य के नाम जप से तीन प्रकार की मुक्तियाँ आसानी से होती जाती हैं
१. भय मुक्ति
२. विकार मुक्ति
३. रोग मुक्ति
कोई मेरे साथ हो ना हो मेरे भगवान मेरे साथ हैं मेरे ह्रदय मे विद्यमान है ..ऐसी समझ नाम जप से आकर भय से मुक्त कर देता है ..दुनिया मे महान से महान कार्य करने वाले महापुरुषों का जीवन अगर देखते हैं ..तो उनके जीवन मे दृढ संकल्प , विपरीत परिस्थितियों मे भी कार्य करने की क्षमता , initiative लेना तथा प्राणों का मोह भी अपनी बुद्धिप्रामान्यता के कारण ना करना ये सभी गुन भय मुक्ति के संकेत है ...
मुह मे अपने ईश्वर का नाम और हाथ मे चाकू लेकर मानवता पर कलंक बने कुछ धर्म विशेष के लोग सही अर्थ मे ईश्वर का नाम लेने वाले नहीं हो सकते ..
जो स्वयं को निर्भय करे और दूसरों को त्राण दिलाए ..उन्हें भी निर्भय बनाए ऐसा चमत्कार होता है ..आराध्य के नाम के प्रभाव से
निर्विकारिता लाने के कई उपायों मे प्रभु नाम जप करना उन पर ध्यान लगाना एक प्रमुख उपाय है (( उदाहरणतः - ब्रम्हचर्य सिद्धि के लिए प्रमुख उपाय मनोवैज्ञानिक माना जाता है और वह है धार्मिक कार्यों मे रूचि ..)) चित्त शुद्धि का सम्बन्ध नाम स्मरण से है हि ..क्योकि इससे चित्त एकाग्र होता है ..
निर्विकारी होने का सम्बन्ध रोग मुक्ति से है . चरक का कथन है 'मनुष्य अगर संयम से रहे तो उसकी आयु सौ वर्ष तो होगा हि पर वह संयम से नहीं रहता इस लिए बीमार एवं शीघ्र मृत्यु को प्राप्त करता है '
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
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