किसी भी क्षेत्र में सफल होने के लिए प्रायः तीन सूत्रों का अवलंबन लेना
होता है। 1. लक्ष्य का निर्धारण, 2. अभिरुचि का होना और 3. क्षमताओं का
सदुपयोग।
जीवन लक्ष्य का निर्धारण :- जिस तरह देशाटन के लिए
नक्शा, और जहाज चालक को दिशा सूचक की आवश्यकता पड़ती है। उसी प्रकार मनुष्य
जीवन में लक्ष्य का निर्धारण अति आवश्यक है। क्या बनना और क्या करना है यह
बोध निरंतर बने रहने से उसी दिशा में प्रयास चलते हैं। एक कहावत है कि ‘जो
नाविक अपनी यात्रा के अंतिम बंदरगाह को नहीं जानता उसके अनुकूल हवा कभी
नहीं बहती’। अर्थात् समुद्री थपेड़ों के साथ वह निरुद्देश्य भटकता रहता है।
लक्ष्य विहीन व्यक्ति की भी यही दुर्दशा होती है। अस्तु सर्वप्रथम
आवश्यकता इस बात की है कि अपना एक निश्चित लक्ष्य निर्धारित किया जाये।
अभिरुचि का होना :- जो लक्ष्य चुना गया है उसके प्रति उत्साह और उमंग का
जगाना – मनोयोग लगाना। लक्ष्य के प्रति उत्साह, उमंग न हो, मनोयोग न जुट
सके तो सफलता सदा संदिग्ध बनी रहेगी। आधे अधूरे मन से, बेगार टालने जैसे
काम पर किसी भी महत्वपूर्ण उपलब्धि की आशा नहीं की जा सकती। मनोविज्ञान का
एक सिद्धांत है कि ‘उत्साह और उमंग’ शक्तियों का स्रोत है। इसके अभाव में
मानसिक शक्तियाँ परिपूर्ण होते हुए भी किसी काम में प्रयुक्त नहीं हो
पातीं।
क्षमताओं का सदुपयोग :- ‘समय’ उपलब्ध संपदाओं में सर्वाधिक
महत्वपूर्ण है। शरीर, मन और मस्तिष्क की क्षमता का तथा समय रूपी सम्पदा का
सही उपयोग असामान्य उपलब्धियों का कारण बनता है। निर्धारित लक्ष्य की दिशा
में समय के एक-एक क्षण के सदुपयोग से चमत्कारी परिणाम निकलते हैं।
सफल और असफल व्यक्तियों की आरंभिक क्षमता, योग्यता और अन्य बाह्य
परिस्थितियों की तुलना करने पर कोई विशेष अंतर नहीं दिखता। फिर भी दोनों की
स्थिति में आसमान और धरती का अंतर आ जाता है। इसका एकमात्र कारण है कि एक
ने अपनी क्षमताओं को एक सुनिश्चित लक्ष्य की ओर सुनियोजित किया, जबकि दूसरे
के जीवन में लक्ष्यविहीनता और अस्त-व्यस्तता बनी रही।
--- श्री चन्दन प्रियदर्शी
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