जीव आचार्य शंकर के अनुसार सत् चित् आनन्द स्वरुप
आत्मा की पारमार्थिक सत्ता है , पर जीव की व्यावहारिक सत्ता है . जब आत्मा
शरीर , इन्द्रीय , मन आदि उपाधियों से सीमित होता है तब वह जीव हो जाता है .
जब आत्मा का प्रतिविम्ब अविद्या मे पड़ता है तब वह जीव हो जाता है (( जिस
प्रकार चन्द्रमा का प्रतिविम्ब जल की मलीन सतह पर
पड़ने से वह मलीन दिखता है ))आत्मा ( ब्रम्ह ) एक हि है पर जीव अनेक
..जितने व्यक्ति विशेष उतने हि जीव हैं .जिस प्रकार एक हि आकाश उपाधि भेद
के कारण घटाकाश , मठाकाश इत्यादि मे दीख पड़ता है उसी प्रकार एक हि आत्मा
शरीर व मनस की उपाधियों के कारण भिन्न भिन्न दिख पड़ती हैं .
जीव संसार के कर्मों मे भाग लेता है . इसलिए उसे कर्ता कहा जाता है . वह विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है अतः ज्ञाता कहलाता है ...उसे सुख दुःख के अनुभूति होती है ...तथा वह कर्म के नियमों के अधीन है ...प्रत्येक जीव को उसके कर्मो का फल भोगना पड़ता है . शंकराचार्य जी ने आत्मा को मुक्त माना है पर जीव बंधन ग्रस्त है . अपने प्रयत्नों से वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है .जीव को अमर माना गया है शरीर के नष्ट होने पर जीव आत्मा मे लीन हो जाता है . जीव आत्मा का वह रूप है जो देह से युक्त है उसके तीन शरीर हैं ..१. स्थूल २. सूक्ष्म ३. कारण जीव शरीर व प्राण का आधार स्वरुप है जब आत्मा का अज्ञान के फलस्वरूप बुद्धि से सम्बन्ध होता है तब आत्मा जीव का स्थान ग्रहण करती है जब तक जीव मे ज्ञान का उदय नहीं होगा , वह अपने को बुद्धि से भिन्न नहीं समझ सकती ...
ब्रम्ह व जीव का सम्बन्ध :जीव व ब्रम्ह के बीच दिखने वाला भेद सत्य नहीं है ..कारण दोनो का भेद उपाधि द्वारा निर्मित है और व्यवहारिक है . दोनो मे परमार्थतः कोई भेद नहीं है . महा वाक्य 'तत् त्वं असि' आत्मा व जीव की अभिन्नता को प्रमाणित करता है .
सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए आचार्य शंकर ने १.प्रतिविम्बवाद (the theory of reflection ) (( चन्द्रमा के प्रतिविम्ब का रूपक )) २.अवच्छेद वाद ( the theory of limitation ) (( उपरोक्त वर्णित घटा काश , मठाकाश का रूपक ))का आश्रय लिया इनमे यह बताया गया है कि जीव सीमित होने के वावजूद ब्रम्ह से अभिन्न है .
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
जीव संसार के कर्मों मे भाग लेता है . इसलिए उसे कर्ता कहा जाता है . वह विभिन्न विषयों का ज्ञान प्राप्त करता है अतः ज्ञाता कहलाता है ...उसे सुख दुःख के अनुभूति होती है ...तथा वह कर्म के नियमों के अधीन है ...प्रत्येक जीव को उसके कर्मो का फल भोगना पड़ता है . शंकराचार्य जी ने आत्मा को मुक्त माना है पर जीव बंधन ग्रस्त है . अपने प्रयत्नों से वह मोक्ष को प्राप्त कर सकता है .जीव को अमर माना गया है शरीर के नष्ट होने पर जीव आत्मा मे लीन हो जाता है . जीव आत्मा का वह रूप है जो देह से युक्त है उसके तीन शरीर हैं ..१. स्थूल २. सूक्ष्म ३. कारण जीव शरीर व प्राण का आधार स्वरुप है जब आत्मा का अज्ञान के फलस्वरूप बुद्धि से सम्बन्ध होता है तब आत्मा जीव का स्थान ग्रहण करती है जब तक जीव मे ज्ञान का उदय नहीं होगा , वह अपने को बुद्धि से भिन्न नहीं समझ सकती ...
ब्रम्ह व जीव का सम्बन्ध :जीव व ब्रम्ह के बीच दिखने वाला भेद सत्य नहीं है ..कारण दोनो का भेद उपाधि द्वारा निर्मित है और व्यवहारिक है . दोनो मे परमार्थतः कोई भेद नहीं है . महा वाक्य 'तत् त्वं असि' आत्मा व जीव की अभिन्नता को प्रमाणित करता है .
सम्बन्ध को स्पष्ट करने के लिए आचार्य शंकर ने १.प्रतिविम्बवाद (the theory of reflection ) (( चन्द्रमा के प्रतिविम्ब का रूपक )) २.अवच्छेद वाद ( the theory of limitation ) (( उपरोक्त वर्णित घटा काश , मठाकाश का रूपक ))का आश्रय लिया इनमे यह बताया गया है कि जीव सीमित होने के वावजूद ब्रम्ह से अभिन्न है .
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी
No comments:
Post a Comment