नारद
भक्ति सूत्र प्रवचनों में 'प्रेम तत्व' का सूक्ष्मतर अनुभव स्वरूप बताते
हुए वृन्दावन के तत्वज्ञ संत स्वामी गिरीशानन्द सरस्वती जी महाराज कहते हैं
कि ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम प्रकट हो जाने के बाद भक्त घर-परिवार और
संसार के व्यवहार के काम का नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में उसे न दिन का भान
रहता है और न रात का। वह कभी हसंता है तो कभी अपने अपास्य की स्मृति में
रोने लगता है।
इसीलिए देवर्षि नारद जी भक्ति सूत्र देते हैं- 'गुणरहितं काम रहितं प्रतिक्षणं वर्धमानयविच्छन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।'
नारदजी कहते हैं- भगवद् भक्ति मत छोड़ो; चाहे तुम दिखावे के लिए ही कर रहे
हो, क्योंकि एक न एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें स्वयं अपना लेंगे।
वृजगोपांगनांओं ने यही तो किया था।
श्रीकृष्ण प्रेम में मतवाली गोपी उनके विरह को सहन न कर सकी और स्वयं
कृष्णानुभूति के महाभाव में उतर कर बोल उठती हैं। अरी सखी कहां जा रही हो।
देखो तुम कृष्ण को खोज रही हो न, देखो मैं ही तो तुम्हारा प्रेमास्पद कृष्ण
हूं। अर्थात् सच्चा प्रेम वही है जिसमें तत् सुख... यानी अपने उपास्य को
सुख मिले। ऐसा समर्पण भाव हो न कि स्व सुख अर्थात् मुझे सुख मिले ऐसा भाव
हो।
प्रेम मार्ग में प्रतिपदा, द्वितीया आदि उत्तरोत्तर वृद्धि
तिथियां तो हैं, परंतु इस भक्ति प्रेम के पक्ष में पूर्णिमा कभी नहीं आती।
श्रीकृष्ण प्रेम में रोने का फल जितना प्रभावी होता है उतना श्रीकृष्ण
प्रेम में गाने का नहीं। जब गोपियों ने श्रीकृष्ण के विरह में गाया तो
सुकदेवजी कहते हैं रोते हुए करुण एवं सुस्वर में गोपी गीत प्रस्फुटित हुआ।
वस्तुतः कलाकार और भक्त के गायन में यही अंतर है एक लोकमर्यादा एवं
शास्त्रों के विधि-निषेध को ध्यान में रख कर गाता है तो भक्त विधि-निषेध के
बंधन से परे होकर अपने उपास्य के लिए गाता है।
अत: सच्चा प्रेमी
दूसरों पर दोष नहीं लगता बल्कि अपने को भी दोषी मानने लगता है। जिस प्रकार
भगवान श्रीराम के वनवास पूर्ण होने पर अयोध्या आने में देरी को देखकर भरत
जी कहने लगते हैं- 'उन्होंने मेरा ही कोई कुटिलपन अथवा कपटपूर्ण व्यवहार
देखा होगा इसी कारण आने में देर कर रहे हैं।
--- श्री कमल अग्रवाल
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