Tuesday, July 3, 2012

गुरुपूर्णिमा विशेष



दक्षिणा मूर्ती भगवान शिव


>>दक्षिणा मूर्ति का तात्पर्य यह नहीं कि किसी देवी देवता क़ी मूर्ति का मुँह दक्षिण दिशा क़ी तरफ हो. एक विशेष मुद्रा या आसन होता है. जिसे दक्षासन कहते है. ((आसन कुल 84 होते है. उनमें से एक दक्षासन है)). इस विशेष मुद्रा में जो कोई भी मूर्ति होगी वह दक्षिणा मूर्ति कहलायेगी. चाहे वह शिव क़ी हो या हनुमान क़ी या फिर गणेश क़ी.


>>दक्षिणा मूर्ति केवल मूर्ति के आकार प्रकार एवं रूप रंग पर ही निर्भर नहीं है. बल्कि उसके साथ कुछ एक अन्य आवश्यक शर्तें भी है. इन शर्तो के रहने पर ही कोई मूर्ति दक्षिणा मूर्ति कहला सकती है. मूर्ति का एक पाँव दूसरे के ऊपर चढ़ा होगा, मुड़े हुए चढ़े पाँव के घुटने पर ऋजु कोण बनाता हुआ हाथ रखा होगा. दूसरा हाथ वरद मुद्रा में होगा. आँखें आधी खुली एवं आधी बन्द होगी, सामने ऋषि लोग अपने युगल के साथ खड़े होकर ध्यान से मूर्ति क़ी तरफ देख रहे होगें. तथा यह समस्त कार्य वट वृक्ष के नीचे हो रहा होगा. तभी जाकर यह सिद्ध होगा कि यह मूर्ति दक्षिणा मूर्ति है,


चित्रं बट तरोर्मूले वृद्धाः शिष्या गुरुर्युवा. गुरोस्तु मौनं व्याख्यानम शिष्यास्तु छिन्न संशयाः.

अर्थात यह कितनी विचित्र बात है कि जो शिक्षा देने वाला गुरु नवजवान है. जब कि शिक्षा ग्रहण करने वाले शिष्य विद्यार्थी बूढ़े है. और अर्धोन्मीलित अर्थात आधी खुली एवं आधी बन्द आँखों वाले दक्षासन में बैठे ऐसे गुरु के मूक (Pantomime) अभिभाषण से भी शिष्यों के सारे संशय अर्थात अज्ञान नष्ट हो जा रहे है.

वटविटपिसमीपे भूमिभागे निषणणम सकल मुनिजनानाम ज्ञान दातारमारात. त्रिभुवन गुरुमीशम दक्षिणामूर्ति देवम जननमरणदुःखच्छेददक्षम नमामि

अर्थात जो वट वृक्ष के समीप भूमि भाग पर स्थित है,निकट बैठे हुए समस्त मुनिजनो को ज्ञान प्रदान कर रहे है, जन्म मरण के दुःख का विनाश करने में प्रवीण है, त्रिभुवन के गुरु और ईश है, उन भगवान दक्षिणामूर्ति को मै नमस्कार करता हूँ.
जैसा कि उपर्युक्त श्लोक से स्पष्ट है. केवल मूर्ति के दक्षासन में स्थापित कर देने मात्र से ही कोई मंदिर दक्षिणा मूर्ति मंदिर नहीं कहला सकता.

((ई एम् ई स्कूल बरोदा का दक्षिणा मूर्ति मंदिर इसका एक उत्कृष्ट उदाहरण है. इसकी स्थापना बरोदा के महाराजा द्वारा क़ी गयी थी. जन श्रुति के अनुसार उनका नाम रूद्र देव था. उनके ही वंशज सयाजी राव हुए. बहुत समय तक यह मंदिर देख रेख के अभाव में उपेक्षित रहा. बाद में राज परिवार द्वारा यह स्थान भारतीय सेना को दे दिया गया. ई एम् ई स्कूल के प्रथम समादेष्टा (Commandant) ब्रिगेडियर ए. के. यूजीन ने अपनी अलौकिक सूझ बूझ एवं उत्कृष्ट धर्म परायणता का परिचय देते हुए इस मंदिर को एक ऐसी संस्था का रूप दे डाला जो यह प्रमाणित करता है कि समस्त संसार एक अदृष्य शक्ति के द्वारा संचालित होती है. जिसे हिदू लोग भगवान, मुस्लिम लोग अल्लाह, ईसाई लोग गाड़ एवं सिख लोग गुरु के नाम से जानते है. यह धातु क़ी चद्दर से बना है. इसके बुर्ज पर मुस्लिम सम्प्रदाय का गुम्बद बना है. इसका आकार बौद्ध सम्प्रदाय के प्रतीक के रूप में बौद्ध बिहार के गुम्बद क़ी तरह गोलाकार ही है. इसमें प्रवेश के पांचो मार्ग जैन शैली पर बने है. गर्भ गृह के ऊपर जिसमें भगवान शिव क़ी प्रतिमा है उसके ऊपर 54 फुट ऊंची मीनार बनी है जो ईसाई शैली पर बनी है. तथा इसके शीर्ष पर हिदू सम्प्रदाय का पवित्र प्रतीक स्वरुप विशाल काय पीतल का मंगल कलश बना हुआ है. और इस प्रकार इस एक ही स्थान पर पांचो धर्मो क़ी उपासना सम्यक रूप से हो जाती है. और वेद का यह कथन भी प्रमाणित हो जाता है कि-

“एको सद्विप्रः बहुधा वदन्ति.”
अर्थात ईश्वर एक ही है, विद्वान लोग इसकी व्याख्या विविध रूपों में करते है.
इस मंदिर में प्राचीन काल क़ी बहुत सारी मूर्तियाँ खंडित हो चुकी है. मूल भगवान दक्षिणा मूर्ति क़ी प्रतिमा बहुत छोटी थी. और लगभग जीर्ण शीर्ण हो चुकी थी. किन्तु ब्रिगेडियर यूजीन साहब ने इसे रिपेयर करवाया. इसके ऊपर रेत एवं सीमेंट का लेप चढ़वा कर इसका आकार बड़ा करवाया.
यह मंदिर वास्तव में दक्षिणामूर्ति का मंदिर है.इसके गर्भ गृह में भगवान शिव आधी बन्द एवं आधी खुली आँखों में दक्षासन मुद्रा में बैठे है. सामने वट वृक्ष है. वट वृक्ष के नीचे सातो ऋषि अपनी पत्नियों के साथ खड़े होकर भगवान शिव से शिक्षा ग्रहण कर रहे है. जैसा कि श्लोक में बताया गया है, शिक्षक बिल्कुल नवयुवक है. अर्थात भगवान शिव युवावस्था में है. तथा विद्यार्थी जो सातो ऋषि है, वे बूढ़े हो चुके है.))

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