Wednesday, July 4, 2012

महाप्रयाण . . . किन्तु कार्य निरन्तर

एक मनोचिकित्सकीय मासिक में छपे लेख के अनुसार अमेरिका में 9/11 के आतंकी हमले के बाद चर्च में जानेवाले लोगों की संख्या दुगनी हो गई। लेख में इसका कारण मृत्युका भय बताया गया। मरने के डर से ही व्यक्ति ईश्वर की ओर मुड़ता है ऐसा पश्चिमी संस्कृति का अनुमान है। भारत में स्थिति अलग है। हमारे यहाँ पुनर्जन्म पर विश्वास के कारण कहो या शास्त्रों की वैज्ञानिकता के कारण कहो मृत्यु को ही पूजनीय बना दिया है। उजैन का महाकाल मंदिर शिव की संहारक शक्ति के पूजन का स्थान है। सृजन व पालन के जितना ही संहार भी अस्तीत्व का आवश्यक तत्व है यह हमारे वैज्ञानिक ऋषियों ने जान लिया था। इसीलिये संहार के देवता शिव का स्थान सृजन के देव ब्रह्मा तथा पालनकर्ता विष्णु के समकक्ष त्रिदेव में रखा गया। इतना ही नहीं इन्हें महादेव कहा गया। काल का एक अर्थ जहाँ समय है वही दूसरा अर्थ मृत्यु है। यह केवल भाषाविज्ञान ही नही अपितु साक्षात भौतिक विज्ञान है। आज समय के सन्दर्भ में जो खगोलीय अनुसंधान चल रहे है वे बताते है कि यही सबसे संहारक तत्व है। जलते तारे से उत्पन्न सूपर नोव्हा व मृत तारे से बने श्याम(Black hole) के अध्ययन से जो विस्मयकारी निष्कर्ष सामने का रहे है वे काल की संहारक महत्ता के बारे में हिन्दू शास्त्रों में दिये तत्वों की ओर ही संकेत कर रहे है। जहां विश्व के संहार के लिये महादेव है वहीं मृत्यु के व्यवस्थापन के लिये भी पूरा तन्त्र है। यमराज पर इसके सुचारू संचालन का दायित्व है। हिसाब-किताब के लिये चित्रगुप्त के रूप में एक प्रशिक्षित कार्यालय उनकी सेवा में है।
हमने सदा ही मृत्यु का सामना करने को वीरता का द्योतक माना है। शास्त्रों में नचिकेता व सावित्री ये दो ऐसे उदाहरण है जिन्हों
ने सफलतापूर्वक यमराज का सामना किया है और उनसे ज्ञान भी प्राप्त किया है। हम जानते है कि मृत्यु तो सदा साथ चलती है। जिस शरीर के प्राणहीन होने को हम मृत्यु मानते है वह तो प्रतिक्षण मर रहा है। जन्म और मृत्यु का यह सतत चलता नर्तन हमने समझा है। प्रत्येक क्षण हमारे शरीर में लाखों कोशिकायें मर रही है और लाखों नवीन कोशिकायें उनका स्थान ले रही है। कोशिकाओं के मरने को चय तथा नयी कोशिकाओं के बनने का अपचय कहते है। यह  चयापचय की प्रक्रिया किसी भी जीवन्त प्रणाली का अनिवार्य अंग हैं। अर्थात जीवन के लिये भी मृत्यु आवश्यक है। शरीर के जीवित रहने के लिये कोशिका की मृत्यु अनिवार्य है। जब कोशिका शरीर का अनुशासन मानने से चूकती है तब वह मरने के स्थान पर अपने आप को कई गुना विभाजित कर लेती है और कर्करोग की गाँठ बन जाती है। कोशिका का मरने से नकार शरीर की मृत्यु का कारण बन जाता है। अतः मृत्यु जीवन का अविभाज्य अंग है। यही कारण है कि हिन्दुओं ने मृत्यु को कभी अंतिम सत्य के रूप में स्वीकार नहीं किया। हमारे लिये तो ये आगे की यात्रा पर प्रयाण मात्र है।
साधक इस बात के मर्म को पहचानते है अतः मृत्यु का समारोह मनाते है। संत तुकाराम मराठी में कहते है- ह्याची देही ह्याची डोळा, पाहीन मृत्युचा सोहळा। इसी देह में इन्हीं आँखों से अपनी मृत्यु का समारोह देखुंगा। सोहळा किसी पवित्र उत्सव को कहते है। जैसे रथयात्रा का समारोह- पवित्र, आध्यात्मिक और उल्हास से परिपूर्ण। अपनी स्वयं की आँखों से इस प्रकार अपनी ही मृत्यु को देखना जन्म मरण के फेरे से मुक्ति के लिये पात्र साधक के लिये ही सम्भव है। समय को जीत लेने के कारण वे काल के परे हो जाते है। ऐसे कालजयी साधक ही अपनी मृत्यु के प्रत्यक्ष दर्शक बनते है। स्वामी विवेकानन्द इसी कोटी के साधक थे। अतः उनका शरीर छोडना सामान्य प्रयाण नहीं महाप्रयाण है। लौकिक दृष्टि से स्वामीजी के मृत्यु का निमित्त कुछ भी बना हो किन्तु वास्तव में उनके जीवन में ऐसे अनेक प्रमाण है जिससे ये कहा जा सकता है कि उन्होंने योग की विधि से अपने प्राणें का विसर्जन कर 4 जुलाई 1902 को महाप्रयाण किया। अमरनाथ की यात्रा पर बाबा बरफानी की गुफा में समाधिस्थ होने के बाद उन्होने अपने सहयात्रियों को बताया था कि बाबा ने उन्हें इच्छामरण का वरदान दिया है। अपने शरीर त्याग से कुछ दिन पूर्व ही स्वामी प्रेमानन्द जी को अपने अंतिम संस्कार का स्थान व विधि बताना, पूर्वसंध्या पर रात्रिभोजन में शिष्यों को परोसना व ईसा के समान अंतिम भोज पर शिष्यों के हाथ धोना। भगिनी निवेदिता के पूछने पर उस बात की ओर संकेत करना। ये सब बताता है कि स्वामीजी ने अपनी ईच्छा से महासमाधि ग्रहण की। दिनभर पूरे मनोयोग से कार्य करते हुए सायं संध्या के गोधुली मूहूर्त पर जब सब आरती में रत थे तब अपने प्राणों का प्रायोपवेशन कर शरीर का त्याग किया।
भारतमाता को पुनः जगद्गुरू बनाने इतने महान कार्य को आरम्भ कर उसकी पूर्णता की चिंता किये बिना स्वामीजी का महाप्रयाण इस बात का संकेत है कि उन्हें अपने शिष्यों पर पूरा विश्वास था कि वे उनका कार्य अवश्य सम्पन्न करेंगे। अब यह हमारा कर्तव्य है कि उस कार्य के सभी आयामों को समझ उसे पूर्णता तक ले जाये।
स्वामीजी ने कहा था कि आनेवाले 1500 वर्षों के लिये उन्होंने कार्य का नियोजन किया है। उन्होंने यह भी कहा था कि शरीर छोड़ने के बाद भी मैं कार्य करता रहुंगा। मद्रास के व्याख्यान ‘मेरी समर नीति’ में स्वामीजी ने युवाओं को अभिवचन दिया, ‘यदि तुम मेरी योजना को समझ कर कार्य में लग जाओगे तो मै तुम्हारे कंधे से कंधा मिलाकर कार्य करूंगा।’ स्वामीजी के कार्य में पूर्ण समर्पण से लगे साथियों को यह अनुभूति समय समय पर आती है कि स्वामीजी उनके साथ कार्य कर रहे है। आइये उनके महाप्रयाण पर हम सब भी इस कार्य में तन, मन, धन, सर्वस्व के समर्पण के साथ लग जाये

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