Thursday, July 5, 2012

आचार्य शंकर का अद्वैत वेदांत : माया

आचार्य शंकर ने माया , अविद्या , अध्यास , अध्यारोप , भ्रान्ति , विवर्त , भ्रम , नामरूप , अव्यक्त, मूलप्रकृति आदि शब्दों का एक हि अर्थों मे प्रयोग किया है .
माया रहती कहाँ है ? (( माया का आश्रय स्थान )):आचार्य के अनुसार माया ब्रम्ह मे निवास करती है . माया का आश्रय ब्रम्ह है फिर भी  ब्रम्ह माया से प्रभावित नहीं होता  ((जिस प्रकार जादूगर जादू की प्रवीणता से स्वयं प्रभावित नहीं होता )) ब्रम्ह अनादि है उसी प्रकार उसमे निवास करने वाली माया भी अनादि है . दोनो मे तादात्म्य सम्बन्ध है .माया ब्रम्ह की शक्ति है जिसके आधार पर वह विश्व का निर्माण करता है ..माया के कारण हि निष्क्रीय ब्रम्ह सक्रीय हो जाता है .माया सहित ब्रम्ह हि ईश्वर है .सांख्य दर्शन की प्रकृति के समान हि माया भी त्रिगुणात्मक, भौतिक ,अचेतन एवँ जड़ है  .माया मोक्ष प्राप्ति मे बाधक है .आचार्य शंकर के अनुसार मोक्ष प्राप्ति तभी संभव हो सकती है जब अविद्या का जो कि माया का हि रूप है अंत हो जाए . आत्मा मुक्त है पर वह अविद्या के कारण वह खुद को बंधन ग्रस्त पाती है / बंधन ग्रस्त हो जाती है .माया परतंत्र है (( जबकी सांख्य की प्रकृति स्वतंत्र है )).
माया के कार्य: माया के दो कार्य हैं ..१.आवरण (( concealment )): माया के कारण वस्तु पर आवरण / पर्दा पड़ जाता है ..माया वस्तु के वास्तविक स्वरुप को ढक देती है . जिस प्रकार रस्सी मे सर्प का भ्रम होने पर ..सर्प रस्सी के स्वरुप पर पर्दा डालने का कार्य करता है . यह माया का निषेधात्मक कार्य है .२. विक्षेप (( projection )) : माया सत्य के स्थान पर दूसरी वस्तु को उपस्थित करती है ..माया का यह भावात्मक कार्य विक्षेप कहलाता है .. जैसे रस्सी के स्थान पर सर्प को लाना 
 माया अपने आवरण शक्ति की वजह से ब्रम्ह को ढक लेती है और प्रक्षेप शक्ति के कारण उसके स्थान पर नाना रूपात्मक जगत की प्रतीति कराती है .सत्य पर पर्दा डालना और असत्य को प्रस्थापित करना माया के दो मुख्य कार्य हैं 
माया की विशेषताएं :१. माया अध्यास ( superimposition) रूप है ..जहाँ जो वस्तु नहीं है वहाँ उस वस्तु को कल्पित करना अध्यास कहा जाता है . जिस प्रकार रस्सी मे साँप का आरोपण होता है ..उसी प्रकार निर्गुण ब्रम्ह मे जगत अध्यसित हो जाता है .2. माया ब्रम्ह का विवर्त मात्र है जो व्यावहारिक जगत मे दिख पड़ता है ३. माया ब्रम्ह की शक्ति है जिसके आधार पर वह नाना रूपात्मक जगत का खेल प्रदर्शन करता है ४.माया अनिर्वचनीय है ((क्योकि  माया ना हि सत् है ना हि असत् ना हि दोनो ))५.माया का आश्रय स्थल ब्रम्ह है ..परन्तु ब्रम्ह माया की अपूर्णता से अछूता रहता है ६. माया अस्थायी है ..इसका अंत ज्ञान से हो जाता है जैसे ज्ञान होते हि / प्रकाश आते हि ..सर्प का अंत हो जाता है और मात्र रस्सी शेष रह जाता है ७. माया अव्यक्त और भौतिक है ८. माया अनादि है ..उसी से जगत की सृष्टि होती है . ईश्वर की शक्ति होने से माया ईश्वर के समान अनादि है ९. माया भावरूप है (( निषेधात्मक नहीं )) क्योकि माया के द्वारा हि ब्रम्ह सम्पूर्ण विश्व का प्रदर्शन करता है .माया हि विश्व को प्रस्थापित करती है   
--- श्री अनिल कुमार त्रिवेदी

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