Saturday, July 7, 2012

क्या सभी प्रकार की बहिर्मुखी पूजा भ्रामक और व्यर्थ है?

 संत सिरोमणि श्री रविदासजी के अनुसार सभी प्रकार की बहिर्मुखी पूजा- जैसे देव-मूर्तियों को फल-फूल या भेंट चढ़ाना, आरती उतारना तथा उनके आगे उन्हें रिझाने के लिए अनेक क्रिया कलाप (नृत्य करना, साष्टांग प्रणाम करना आदि) - भ्रामक और व्यर्थ है | अंतर्मुखी पूजा ही परमात्मा की वास्तविक पूजा है | जब हम अपने ध्यान को अपने भीतर एकाग्रकर अन्दर राम-नाम के तेज पुंज प्रकाश और दिव्य धुन को देखते हैं, तो हम एक ऐसी अनुपम शांति और दिव्य आनन्द की अवस्था में पहुँच जाते हैं जहां परमात्मा के प्रेम में डूबी हुई आत्मा अपूर्व खुशी से नाच उठती है और अन्तत: परमात्मा से मिलन का अमर सुख प्राप्त करती है | धुर दरगाह से आये परम संत रविदास जी फरमाते हैं:
सुरत शब्द जउ एक हों, तउ पाइहिं परम अनंद |
'रविदास' अंतर दीपक जरई, घट उपजई ब्रह्म अनंद
|| (रविदास दर्शन साखी ७७)
           सुरत - आत्मा की दो आंतरिक शक्तियों को जिनसे वह अन्दर के प्रकाश को देखती हैं और राम नाम की दिव्य धुन को सुनती हैं, उन्हें आध्यात्मिक भाषा में क्रमश: 'निरत' और सुरत कहा जाता है |
अन्दर की मधुर राम नाम की दिव्य धुन को सुनने में तल्लीन आत्मा जब उस पवित्र दिव्य नाद में मिलकर एकाकार हो जाती है तो उसे परम आनन्द की प्राप्ति होती है | संत रविदास जी कहते हैं कि इस स्थिति में आंतरिक ज्ञान का दीपक जलता रहता है और अंतर में सृष्टि के निर्माता ब्रह्म के साक्षात्कार करने का दिव्य आनन्द प्राप्त होता है |
'रविदास' दिआ जगमग जरई, बिन बाती बिन तेल |
सुरत साधिकर हिय मांहि, देख पिया का खेल ||
(रविदास दर्शन, साखी ८०)
           सुरत - आत्मा, स्व-रत अर्थात अपने में लीन; साधिकार - एकाग्र करके; हिय- ह्रदय (आँखों से ऊपर दोनों भौंहों के बीच के आंतरिक केंद्र को संतों ने 'ह्रदय', 'तीसरा तिल', या 'शिव नेत्र' कहा है |
           संत रविदास जी कहते हैं कि आंतरिक ज्ञान का दीपक बिना किसी बाती या तेल के निरन्तर जगमगाता हुआ जलता रहता है | आत्मा को अन्दर के ह्रदय (तीसरा तिल या शिव नेत्र ) में एकाग्रकर प्रियतम (परमात्मा) के इस अनुपम खेल को देखो | रविदास जी आगे कहते हैं: 'रविदास' सुरत कूं साधी कर, मोहन सों कर पिआर |
भौं-जल कर संकट कंटहि, छुटहि बिघन बिकार ||
(रविदास दर्शन, साखी ८१)
           संत रविदास जी कहते हैं कि सुरत (आत्मा की सुनने की शक्ति) को एकाग्रकर लुभावने शब्द-धुनरुपी परमात्मा से प्यार बढ़ाओ | इससे संसार-समुद्र में डूबने का संकट (आवागमन के चक्र में पड़ने का कष्ट ) दूर हो जायेगा तथा काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकाररूपी विघ्न-विकारों से छूटकारा मिल जायेगा |
--- श्री विपिन त्यागी

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