Monday, June 18, 2012

“ अन्तर्यामी कौन ? “

" अन्तर्यामी " अथात् " अन्तः अनुप्रविश्य " अन्दर प्रवेश करके शासन करने वाला । " " अनुप्रविश्य " ऐसा आचार्यों ने क्यों कहा ? एक " प्रवेश " होता है और एक " अनुप्रवेश " है । घड़े में पानी का प्रवेश होता है । घड़े में पानी का प्रवेश होने पर सूर्य के प्रतिबिम्ब का " अनुप्रवेश " होता है । पानी भरने के लिए प्रविष्ट का कार्य करना पड़ता है । लेकिन पानी भरने के बाद सूर्य का प्रतिबिम्ब डालने के लिए आपको कुछ करना थोड़े ही पड़ता है , पानी भर दिया तो प्रतिबिम्ब अपने आप ही पड़ेगा । इसलिये प्रवेश के बाद जो होता है उसी को " अनुप्रवेश " कहते हैं । श्रुतिमहारानी जी भी कहती है -
" अनेन जीवेन आत्मना अनुप्रविश्य " ।
श्रुति का भी तात्पर्य यही है । उसका प्रवेश घड़े में पानी की तरह नहीं है बल्कि पानी में सूर्य की तरह है । इसीलिये उसके शुद्ध रूप में कभी कोई फरक नहीं आ सकता , वैसा का वैसा बना रहता है । भाष्यकारों ने श्रुतिभगवती के अनुरोध से कह दिया कि " अन्तर्यामी " अर्थात् " अनुप्रवेश " करने वाला शासक । प्रतिबिम्ब का मतलब होता है कि बिम्ब की तरह तो लगे लेकिन बिम्ब न हो । प्रतिबिम्ब का मतलब यह नहीं कि अन्तःकरण में कोई होगा उसमें उसका मुँह दीखता होगा! जैसे काँच में अपना मुँह पड़ता है तो मुँह की तरह लगता है लेकिन मुँह है नहीं । इसी नाम प्रतिबिम्बरूपता है । ईश्वर सबके हृदय में घुसा हुआ प्रतीत होता है लेकिन वस्तुतः सचमुच घुसा हुआ नहीं है । ऐसा नहीं कि ईश्वर के टुकड़े - टुकड़े होकर हमने बाँट लिया हो और ईश्वर बेचारा छोटा सा रह गया हो । यद्यपि प्रत्येक जीव में " अन्तर्यामी " अलग - अलग लगता है लेकिन लगने पर भी वह " अखण्ड " का अखण्ड बना रहता है । यही उसका प्रतिबिम्ब रूप से प्रवेश है । इसलिये श्रुतिमाता ने " अन्तः अनुप्रविश्य " कहा । इस प्रकार से प्रविष्ट हुआ उन सबका नियमन या शासन करता रहता है ।
यह जो उसकी " अन्तर्यामिता " का शासन है यह बड़ा ही मीठा शासन है । उसके दो प्रकार से शासन हैं । एक बाहर रहकर शासन करना । जब कर्म के अनुसार सुख - दुःख का भोग देता है , बहिर्यामी है ; आपको कर्म के अनुसार भोग कराता है । " अन्तर्यामी " रूप से अन्दर से नियन्त्रण करता है । बाहर से उसका नियन्त्रण कठोर है क्योंकि आप चाहते नहीं कि वह दुःख मिले लेकिन जबरदस्ती भोगना पड़ता है । अन्दर रहकर जो शासन करता है , उसे " ऋग्वेद - श्रुति " ने " मधुकश " , अर्थात् मीठा चाबुक । वह दण्ड रूप से उस समय कुछ नहीं करता लेकिन अन्दर कहता है कि " तुमने बुरा किया , नहीं करना था " और ऐसा लगता है कि मैं खुद ही बोल रहा हूँ या कह रहा हूँ । विवेकी इस मिठे चाबुक को बाहर के चाबुक से अधिक महत्त्व देता है । यह बात आदमियों को अच्छी नहीं लगती जब हम कहते है कि यदि संसार में कोई सुधार ला सकता है तो स्त्रियाँ ला सकती है । न सरकार और न और न कोई और सुधार ला सकता है । वे तो बाहर का चाबुक मारेंगे । अगर स्त्रियाँ कह दे कि चोर बाजारी से लाई हुई साड़ी हम नहीं पहनेंगी अथबा कर बचाकर लाया हुआ गहना हम नहीं पहनेंगी विदेशों से आई हुई चीज़ का हम प्रयोग नहीं करेंगी तो आदमी साल दो साल लायेगा , अंत में कहेगा " मारो गोली " , इसको नहीं चाहिये तो अपने काहे के लिये सब करें । यह मीठा चाबुक है । बाहर के चाबुक में आदमी सोचता रहता है कि यह उपाय करें । श्रुति ने " मधुकश " क्यों कहा ? इसलिये कहा है क्योंकि परमात्मा इसका प्रयोग करके हमें प्रायः ठीक करता है । लोक में आजकल कहा जाता है कि जमाना खराब है । हमारा हमेशा यही कहना है कि जो बुरे से बुरा आदमी कहा जाता है , वह मी दिन भर में कितने बुरे काम करता होगा ? दिन भर में सौ झूठ बोलता होगा । वाक्य दो हजार बोलता होगा । उन्नीस सौ तो फिर भी सत्य ही बोलता है । घुस खाने वाले तीन चार आदमियों से दिन में घुस खाते होंगे लेकिन काम तो तीस चालीस का करते हैं । पाँच से घुस खाई तो पच्चीस का बिना घुस के कर रहे हैं । जिसको आप बहुत खराब जमाना या बहुत बुरा आदमी कहते हो वह भी कितनी बुराई कर लेता है ? बाकी समय बुराई न करने में कारण " मधुकश " अन्तयामी हैं क्योंकि उसकी आबाज को मनुष्य दो चार बार दबाता है दिन भर में , फिर भी दबा सकता नहीं । इसलिये मनुष्य को बाहर से नियन्त्रण करने का प्रयास करने के बजाय इस " अन्तर्यामी " को दृढ़ करें , वह बुरा काम नहीं कर सकेगा। इसलिये श्रुति कहती है -
" सवेषां भूतानां नियन्ता अपि " यह श्रुति इसी को घोषित करती है ।

1 comment:

  1. बहुत खूब! अन्तर्यामी अनिर्वचनीय को वचनों में लाये, सुन्दर है। साधुवाद!

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