Monday, June 11, 2012

सुभाषित क्यों ?

पृथिव्यां त्रीणि रत्नानि जलमन्नं सुभाषितम् ।
मूढैः पाषाणखण्डेषु रत्नसंज्ञा विधीयते ॥

पृथ्वी पर जल, अन्न, और सुभाषित - ये तीन रत्न है । (किंतु) मूढ लोग पत्थर के टुकडे को "रत्न" संज्ञा से पहचानते हैं !

संस्कृत साहित्य की यह विशेषता है कि इसका समस्त वाङ्गमय पद्य में रचा गया है; जब कि अन्य भाषाओं का ज़ादातर साहित्य गद्य में पाया जाता है !
यहाँ तक कि गहन समजे जानावाला दार्शनिक वाङ्गमय भी संस्कृत में पद्य में रचा गया है, और गेय होने के कारण वह सरलता से गाया भी जा सकता है । संस्कृत में संगीत का उद्गम और सुसंबद्ध शास्त्र सामवेद के भीतर आ जाता है ।

इतिहास एवं आज के काल में भी यह स्पष्ट दिखता है कि जो गाया जाता है, वह समाज में सरलता से स्थिर हो जाता है । आज-कल लोकमान्य होनेवाला “अंताक्षरी” का खेल हि उदाहरण के तौर पर ले लिजिए; कितने हि लोग उसे चाव से खेलते हैं, और कितनी त्वरा से रमत के दौरान गाने याद कर लेते हैं ! इतना हि नहीं, पर विश्वभर में रेडियो चैनल्स और म्युझिक इन्डस्ट्री की प्रसिद्धि भी यही सिद्ध करती है कि सामान्य इन्सान को गाने कितने प्रिय है !

हमारे मन के पास ऐसी विशिष्ट धारण-शक्ति है जो समय आने पर विचारों को स्मृति पट से निकालकर क्रियाशील मन में ला देने में समर्थ है । क्या वह बेहतर न होगा कि हम सही तरह का पद्य/गाने सुनने की आदत डालें जिसमें व्यवहार चातुर्य सूत्रात्मक रुप से भरा हो, और जो हमें दैनंदिन जीवन जीने में मार्गदर्शक हो ?

ऐसा सूत्रात्मक पद्य याने “सुभाषित”, जिस की छोटी सी पंक्तियों में महावरे, लोकोक्तियाँ इत्यादि हमें आसानी से याद कराने के लिए लिखी गयी हैं । जब मैं आलसी होता हूँ, तब अनजाने हि मेरा अंत:मन पुकार उठता है “....आलस्यं हि मनुष्याणां शरीरस्य महारिपुः”, और मैं आलस्य छोडकर खडा हो जाता हूँ । हमारे पूर्वज इस मानसशास्त्रीय सिद्धांत से परिचित थे, और इसी लिए उन्हों ने ज़ादातर शास्त्र सुभाषित के रुप में लिख रखा ।

दुर्भाग्य से वैज्ञानिक उपकरणों के आविष्कार ने स्मृतिशक्ति का उपयोग सीमित कर दिया है, उसे शिथिल बना दिया है; जब कि यह सर्वथा विदित है कि मन-बुद्धि के सर्वांगी विकास में स्मृति शक्ति का सम्यक् विकास महत्त्वपूर्ण है । बचपन में हि स्मृतिशक्ति के विकास पर योग्य ध्यान दिया जाना चाहिए । ऐसा कहा जाता है कि बच्चों की यादशक्ति बडों से बेहतर होती है । याने ठीक होता यदि हमने पूर्वजों के दिये हुए व्यवहार-चातुर्य के खज़ाने को मुखपाठ कर लिया होता, ताकि उन प्रेरणादायी वचनों ने समय समय पर हमारा सही मार्गदर्शन किया होता, और हमें वे अनुभव पुनः नहीं दोहराने पडते जो हमारे पूर्वज स्वयं कर चुके थे !

जब जागे सो सँवेरा; देर से हि सही, किंतु हम अब भी सुभाषित सीखना और मुकपाठ करना शुरु कर सकते हैं

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