Sunday, June 17, 2012

ब्रह्म क्या है ? -

श्रुतिभगवती ने उपदेश कर दिया " तच्च ब्रह्म परोक्षभिहितम् " अर्थात् सब कुछ जो है वह ब्रह्म है । लेकिन सब कुछ परोक्ष है । जो कुछ भी हमारे अनुभव मेँ आ रहा है , परोक्ष है , परोक्ष है , क्योँकि कुछ न कुछ बीच मेँ पर्दा रहता है । सोचते है कि सामने दरबाजा दीख रहा है । विचार करके देखेँ तो पता चलता है कि बीच मेँ कई पर्दे पड़े हुए है । पहले उसमेँ प्रकाश पर्दा पड़ा हुआ है । प्रकाश न हो तो दरबाजा कुछ और ही नजर आता है , मेरे भाई । इतना ही नहीँ , दरबाजे पर पेँट हुआ है , उसकी लकड़ी को छीला हुआ है , यह भी उसका पर्दा है । फिर आँख का पर्दा , आँख के द्वारा देख रहे हैँ , इसलिए आँख मेँ जितनी कमियाँ होँगी उनसे युक्त होकर दरबाजा दिख रहा है । मन का पर्दा पड़ा हुआ है। मन के संस्कारोँ के अनुसार दिखेगा । फिर अहं , अविद्या इत्यादि के पर्दे मान लेँ । हर हालत मेँ जिस पदार्थ को एतद् अथवा इदं शब्द से देख रहे हैँ वह कभी भी हम साक्षात् समझ मेँ नहीँ आता । वह हमेशा परोक्ष ही बना रहेगा । जब कहा " सव्र हि एतद् ब्रह्म " तो ब्रह्म परोक्ष ब्रह्म है। इन सब रूपोँ मेँ आने वाला ब्रह कैसा है ? यह पता नहीँ लगा । यह सारे रूप धारण करके जो आता है । जैसे सिनेमा देखने वाले को यह पता है कि अभुक एक्टर भीम कैसे बनता है या अमुक अर्जुन कैसे बनता है , लेकिन जब वह यह सब नहीँ बना हुआ है तब कैसा होता है ? यह किसी को पता नहीँ लगता । इसी प्रकार इन सब रूपो को लेकर ब्रह्म आ रहा है , इन सब रूपोँ मेँ ब्रह्म है , लेकिन उस ब्रह्म का रूप सचमुच कैसा है ? जब वह सब रूप नहीँ लेता है तब कैसा है ? ब्रह्म का परोक्ष रूप से ज्ञान तो हो गया , अब अति अनुग्रह करके श्रुतिभगवती कहती है - " प्रत्यक्षतः विशेषेण निर्दिशति " तुमको हम उसका अपरोक्ष , प्रत्यक्ष रूप बता देते हैँ जहाँ किसी प्रकार का व्यवधान नहीँ है ।
वह कौन सा रूप है ? " अयमात्मा ब्रह्म " जो तुम्हारा अपना स्वरूप है , वह ब्रह्म है । यह उसका प्रत्यक्ष ज्ञान हो गया । अपने आप को जानने के लिए आप को रोशनी की जरूरत नहीँ है । रोशनी न हो और आप से कोई पूछे कि तु कहाँ बैठे है , तो यह कोई कहता है " मेरे को पता नहीँ क्योँकि अंधेरा है । " प्रत्यक्ष ज्ञान होता है कि मैँ हूँ । कोई व्यक्ति मरा है या नहीँ , इसका पता तब लगेगा कि डाक्टर पहले नाड़ी देखेगा , आँखे देखेगा , हृदय देखेगा । फिर निश्चय होता है कि मर गया । अगर किसी आदमी से पूछेँ कि तू जिन्दा है या मरा , तो क्या वह कहता है कि पहले स्टेथोकोप आ जाये तो पता लगे ? दूसरा मरा या नहीँ , इसका तो पता लगाना पड़ता है , लेकिन अपना स्वरूप तो प्रत्यक्ष सिद्ध है । इसके लिए किसी इन्द्रिय की जरूरत नहीँ है । गहरी निँद मेँ इसका पता लगता है । वहाँ से जब सोकर उठता है तो उससे अगर पूछे कि कैसा था तो कहता है कि बड़े आनन्द से था । यह नहीँ कहता कि पता नहीँ कि जिन्दा था या मर गया था । यहाँ मन भी नहीँ था लेकिन वह स्वयं था । अपना आपा नित्य अपरोक्ष है । यह प्रत्यक्ष है , इसमेँ किसी प्रकार के व्यवधान ( intermediary ) की आवश्यकता नहीँ ।
यदि आप उस ब्रह्म के वास्तविक स्वरूपको समझना चाहेँ तो जो कुछ इदं रूप से अनुभव होता है वह सब उसके उपर पर्दा हुआ और जब आप उसको अहम् रूप से अनुभव करते हैँ तो वह उसका पर्दारहित रूप है । अहं के उपर कुछ न कुछ पर्दा लगाकर देखने के आदि हो गये हैँ । इस लिये तो कोई कहता है मैँ ब्राह्मण हूँ । ब्राह्मण तो आप शरीर रूप उपाधि से हो मेरे भाई । इस जन्म के पहले आप हो सकते हो चमार रहे हो या अगले जन्म मेँ इंगलैण्ड मेँ म्लेच्छ पैदा हो जाओ । शरीर को लेकर ही ब्राह्मणत्व धर्म है । मैँ महामुर्ख हूँ , यह बुद्धि की उपाधि है । आपकी बुद्धि मूर्ख हो सकती है । मैँ तो वहाँ वैसा का वैसा है । उसमेँ क्या फरक पड़ता है ? यह उपाधि आपका रूप नहीँ है । आप स्वयं अपरोक्ष ब्रह्म हो । यह उपाधि तो सर्वम से कह दी गई । इसलिये भगवान गोड़पाद कहते हैँ - " विशेषेण निर्दिशति " ।
संसार मेँ लोग परमेश्वर को किसी अन्य रूप मेँ पकड़ना चाहते है लेकिन वह रूप परमेश्वर का अपना रूप कभी नहीँ हो सकता । क्योँकि अपने से भिन्न जड़ होता है । जिस चीज को हम देखते है वह जड़ है । दूसरे आदमी को नहीँ देखते , उसके शरीर को हम देखते हैँ और वह शरीर जड़ है । उस शरीर मेँ बैठने वाले को देखने का हमारे आपके पास कोई तरीका नहीँ है । जब कभी आप अपने से भिन्न किसी को देखोगे तो उसके उपाधि को , जड़रूपता को पकड़ेँगे । जब अहं अर्थात् मैँ को पकड़ते हैँ तब चेतन का स्पर्श है । " मैँ " इस ज्ञान मेँ किसी प्रकार का जड़ पकड़ मेँ नहीँ आता बल्कि चेतन पकड़ मेँ आता है , और ब्रह्म चेतन स्वरूप है । आपको सामने पहाड़ दिखाई दे रहा है । पहाड़ का ज्ञान हो रहा है लेकिन पहाड़ का ज्ञान किसको ? आपको हो रहा है । बिना पहाड़ का और आपका सम्बन्ध हुए पहाड़ का ज्ञान नही हो सकता और सिवाय ज्ञान के पहाड़ मेँ कोई प्रमाण नहीँ । किसी दूसरे ने बता दिया कि नैनीताल का पानी बिल्कूल खराब हो गया है , उसमेँ जहरीली घास आ गई है , तो वहाँ भी जब आप आपको बताया और वह आपको ज्ञान हुआ तभी नैनीताल के पानी के अन्दर खराबी है यह आपको प्रमाणिक ज्ञान हुआ । इसलिए बिना ज्ञान से सम्बन्धित हुए कोई भी चीज़ ज्ञात नहीँ होती अर्थात् जानी नहीँ जाती । बिना ज्ञान के किसी पदार्थ की सिद्धि नहीँ । किसी भी चीज़ को जानेँगे तभी वह सिद्ध होगी , उसके पहले नहीँ । तो सीधी ही कह देँ कि मैँ हमेशा चेतन ज्ञानस्वरूप हूँ । मेरे साथ अगर हिमालय पहाड़ का तादात्म्य हो गया तो मैनेँ हिमालय पहाड़ को जाना . वह पहाड़ मेरी ही उपाधि बन गया । इसलिए जहाँ जहाँ जिस किसी चीज़ को देख रहे हैँ , देखने के साथ ही वह चीज़ आपकी ही उपाधि बन रही है । इन सब उपाधियोँ को धारण करने वाले आप ही ब्रह्मरूप हो । ऐसा नहीँ कि कोई दूसरा ब्रह्म इन रूपोँ को धारण करके आ रहा है । इसलिए सारे जगत् की उपाधियोँ को आपका अपना ज्ञान ही धारण करता जा रहा है और आप स्वयं ही ब्रह्मरूप हो । इसलिये श्रुतिभगवती ने कहा " अयमात्मा ब्रह्म " । " अयं " शब्द के द्वारा क्या बताया ? सामने पड़ी चीज को जब आदमी हाथ से दिखाकर कहता है " यह " । किसी चीज़ को कहने की इच्छा वाला व्यक्ति , उस चीज़ का ज्ञान स्पष्ट हो जाये , इसके लिए जो शरीर से कोई विशिष्ट काम करता है उसको अभिनय कहते हैँ । भगवान् भाष्यकार श्रीआद्य शङ्कर कहते है - " अयमिति चतुष्पात्त्वेन प्रविभज्यमानं प्रत्यगात्मतयाभिनयेन निर्दिशति " अभिनय का मतलब क्या होता है ? " विवक्षितार्थप्रतिप्रत्त्यर्थमसाधारणः शारीरो व्यापारः " हम जिस चीज को कहना चाह रहे हैँ , जो विवक्षित अर्थ है उसका आपको ज्ञान हो इसके लिये किया शारीरिक इशारा । जैसे किसी को केवल मुख से कहा कि यह दरी लाल है तो उसका ज्ञान उतना स्पष्ट नहीँ होता है , लेकिन अगर शरीर व्यापार से दिखा देँ कि " यह दरी " तो झट उसके अनुसार ही चीज को जानते हैँ और ज्ञान हो जाता है । केवल मुख से कहने पर व्यक्ति दाँयेँ बायेँ देखता है कि किधर की दरी की बात कर रहे हैँ । अगर केवल इतना कहेँ कि यह मदन है , तो किसी को पता नहीँ लगेगा । यदि शरीर व्यापार से बता दिया कि यह मदन है , तो मनुष्य की आँख वहाँ टिक जायेगी । ठीक इसी प्रकार यदि श्रुतिभगवती ने " अयम् " इसको अभिनय से न बताया होता तो ज्ञान न होता । आप कहोगे कि श्रुति तो ग्रन्थ हुआ । हमारे आचार्यो ने श्रुति को चेतन माना है । यह बात ठीक से समझेँगे । कारण क्या है ? हमारे आचार्यो ने श्रुति को ग्रन्थ नहीँ माना । श्रुति का अर्थ होता है सुनी जाये । गुरु के मुख से सुनने पर ही हम वेद को श्रुति कहते है ।
शिव ! शिव !! आप चाहे जितनी पुस्तकोँ को बाँच लो , पढ़ लो उसको आचार्यगण श्रुति या वेद नहीँ कहते । श्रुति पारिभाषिक शब्द है अर्थात् जो सुनी जाये । हमारी परम्परा मेँ ब्राह्मणोँ के पूजन का आधार ही यह है । हमलोग ब्राह्मणोँ का पूजन करते है । कई बार लोग शङ्का करते है कि कोई ब्राह्मण " महाकामुक " हो , क्रोधी हो तो क्या उनका भी पूजन कहते हैँ कि जरूर करना चाहिये । क्योँ करना चाहिये ? जैसे कुरान यदि किसी अखबार के कागज पर , मोटे कागज पर लिखी हो , स्याही भी ठीक छपी न हो तो क्या उस कुरान की किताब को मुसलमान पूजा नहीँ मानता ? उस पर कुरान लिखी है इसलिए उस विषय को लेकर पूज्5?कर पूज्य है । कागज या स्याही का पूजन थोड़े ही है । यद्यपि बाहर से किताब की पूजा हो रही है लेकिन उस किताब मेँ जो लिखा हुआ है , उसकी पूजा हो रही है , कागज की नहीँ । अगर वही कागज , स्याही अलग - अलग पास मेँ रख दो तो मुसलमान उसकी पूजा नहीँ करेगा ! ठीक इसी प्रकार से ब्राह्मण को वेद का अध्ययन कराया गया है । ब्रह्म नाम वेद का है । उसने वेद का अध्ययन किया है । उसके शरीर मेँ , दिमाग मेँ , बुद्धितत्त्व मेँ वेद मंत्र लिखे हुए हैँ । जैसे वह कागज मोटा हो सकता है . खराब स्याही से छपा हुआ हो सकता है । इसी प्रकार ब्राह्मण का जो शरीर है , वह कामुक , क्रोधी , लोभी भी हो सकता है। काम , क्रोध , लोभ के कारण उसकी कीमत तो अपने लिये घटती - बढ़ती रहेगी , क्योँकि उसने खुद फायदा नहीँ उठाया तो नरक वह जायेगा । लेकिन उसके हृदय मेँ जो वेद लिखा हुआ है , वह तो ठीक ही लिखा हुआ है । हम लोग चूँकी श्रुति को चेतन मानते है , इसलिये चेतन जो मनुष्य है , उसके उपर उसके दिमाग मेँ वैदिक मंत्र लिखे हुए हैँ , अतः हम उसी को ग्रन्थ मानकर उसकी पूजा करते है ।
ऐसा मानने मेँ हेतु क्या है ? किसी भी भाषा का हमेशा एक रूप नहीँ रह सकता । शब्370?प बदलता रहता है , शब्दोँ का कालान्तर मेँ बुरे भाव वाला हो जाता है । बहुत प्रसिद्ध शब्द है - " राक्षस " । " रक्ष एव राक्षसः " राक्षस का मतलब होता है जो रक्षा करने वाला होता है । रक्ष धातु से राक्षस शब्द बना । वर्तमान मेँ जो महादुष्ट हो उ𹨛्ट हो उसे राक्षस कहते हैँ । फिर मन मेँ आता है कि अगर इसका अच्छा मतलब था तो राक्षस का मतलब बुरा क्योँ ? जो आपकी रक्षा करता है , उसी के हाथ मेँ जब शक्ति अधिक दिन तक रहने लगती है तो वही अत्याचारी बनने लगता है । इसलिए वही राक्षस हो गया । पहले जो राक्षा के लिये नियत था , वही जब शक्ति का दुरुपयोग करने लगा तो उसे राक्षस कह दिया। अथवा " असुर " शब्द है । वेदोँ मेँ " असुर " शब्द का प्रयोग परमेश्वर के लिये हुआ है । इन्द्र को कई जगह असुर कहा है। लेकिन वर्तमान मेँ इसका अर्थ भी बुरा हो गया है । " असु " नाम प्राणोँ का है । गीताकार - भगवान् ने श्रीगीता जी मेँ गाया है - " गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः " । जिसे प्राण चलाये और जिसे प्राण न चलाये वह जिन्दा या मरा है । प्राण जिसमेँ खूब रमण करे अर्थात् प्राणशक्ति जिस समय प्रबल हो , वह " असुर " कहा जायेगा । परमेश्वर से अधिक बल वाला कौन होगा ? इसलिये प्राचीन काल मेँ यह शब्द प्रशंसावाची है । उसी शब्द का अपभ्रंश होकर " अहुर्रमजदा " फारसी मेँ परमेश्वर का नाम ही माना गया है । जो बल वाला होता है वही आगे चलकर लोगोँ को दबाने लगता है । जब वह दबाने लगा तो इस शब्द मेँ बुरा भाव आ गया और बुरे अर्थ मेँ यह शब्द रूढ हो गया । हर हालत मेँ शब्दोँ का भाव बहुत ज्यादा बदल जाता है । आज यदि कोई चाहे कि हम " ऋग्वेद " के " असुर " शब्द को लेकर इन्द्र को बुरा सिद्ध करे क्योँकि इसका रूढार्थ वही है तो सारा गड़बड़ हो जायेगा । ये थोड़े से शब्द हैँ , ऐसे अनेक शब्द हैँ जिनका भाव कालान्तर मेँ बदल जाता है । और यदि जड़ पुस तक का सहारा लेँगे तो कभी भी " इदमित्थं " भाव से निश्चय नहीँ हो सकता कि इसका वास्तविक अर्थ क्या है।
हम लोगोँ ने इसका बचाव ऐसे किया कि शब्द वही रहे लेकिन उसका श्रवण उसके मुख से किया जाये जिसने परम्परा से अध्ययन किया हो । उसने गुरु से उसका अर्थ समझा , गुरु ने आगे अपने गुरु से जाना । इस प्रकार शब्द वे सब रहने पर भी ज्ञान कराने के लिये अर्थ वर्तमान भाषा मेँ बताये । यदि आप कहो कि वे भाषा मेँ ही लिख देते तो क्या हर्ज था ?
शिव ! शिव !! भाषा मेँ अगर लिखते तो समस्या फिर वही होती कि तीन सौ साल बाद उसका अर्थ कौन समझता ? इसलिये हमने माना कि समझाने का काम चेतन अपनी भाषा मेँ करता चला जाये , सहारा वेद मन्त्रोँ का रहे । बजाय इसके कि हर सौ पचास साल बाद एक नया अनुवाद लिखेँ , व्यक्ति प्रधान होगा । दूसरी बात चाहे जितना अनुवाद करेँ हर आदमी एक सा नहीँ समझता । सामने बैठे हैँ तौ नजर से नजर मिलाकर देखते है कि यह शब्द समझ मेँ नहीँ आया तो दूसरे शब्द से कहेँ । इसलिये श्रुति हमारे यहाँ चेतन है । उलटा अर्थ नहीँ कि पैर होते होँगे और चलती होगी ।
श्रुति केवल चेतन व्यक्ति से श्रवण की जाती है , इसलिये चेतन के अभिनय द्वारा भगवान् भाष्यकार बता रहे हैँ कि गुरु जब शिष्य कौ उपदेश देता है तब अभिनय करके श्रुति कह रही है । गुरु बतायेँगे " अयमात्मा ब्रह्म " जिसका आपको अनुभव हो रहा है , आप जिसके द्वारा सबका अनुभव कर रहे हो वही तुम । यदि अभिनय न करके केवल " आत्मा ब्रह्म " कहा गया होता हो आदमी समझता कि ब्रह्म जैसे बड़ी चीज , वैसे ही आत्मा कोई दूसरा होगा । ब्रह्म नपुंसक लिँग वाला और आत्मा पुल्लिँग वाला , इसलिये संसार के दो परमेश्वर हैँ - एक आत्मा और एक ब्रह्म । जैसे कहीँ स्रीलिँग शक्ति वाचक शब्द का प्रयोग और कहीँ शिववाचक पुल्लिँग शब्द का प्रयोग कर लिया तो समझते हैँ कि शिव शक्ति दो जरूर है । वे नहीँ समझ पाते कि वही जिस समय किसी कार्य को नहीँ करता है उसी को शिव , वही जिस समय अपने धर्म को प्रकट करता है उस समय उसको शक्ति कह दिया जाता है । जैसे अंग्रेजी मेँ दो शब्दोँ का प्रयोग होता है " काइनैटिक एनर्जी " और " पोटैँश्यल एनर्जी " । जिस समय वह एनर्जी काम करने लगी , स्पष्टता के लिये उसे " काइनैटिक " कह दिया । जिस समय वह काम नहीँ करती है उस समय उसे " पोटैँश्यल " कह दिया । इसी प्रकार शिव शक्ति दो चीज नहीँ । स्रीलिँग और पुल्लिँग शब्दो को देखकर कल्पना करते है कि दुनिया को चलाने वाली एक औरत और एक मर्द होँगे । जैसे घर मेँ औरत और मर्द चलाने वाले हैँ । ऐसी भिन्न - भिन्न कल्पनायेँ कर लेते हैँ । इसलिये " अयमात्मा " के द्वारा बताया कि आत्मा कोई दूसरी चीज नहीँ । जिसका आप निरन्तर अनुभव कर रहे हो , जो आपके " अहंप्रत्यय " मेँ प्रत्यक्ष है , वह आत्मा ही ब्रह्म है ।

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